पोलैंड में प्रत्येक वर्ष दिसंबर महीने में वामपंथी क्रूरता की उस घटना को याद किया जाता है, जिसमें वामपंथी समूह ने अपनी तानाशाही गतिविधियों को अंजाम देते हुए सैकड़ों आम प्रदर्शनकारियों की निर्ममता से हत्या कर दी थी. घटना के दौरान एक हजार से अधिक लोग घायल हुए थे और कम्युनिस्ट प्रशासन ने सुरक्षाबलों के साथ मिलकर 3000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था.
दरअसल, वर्ष 1970 में आम पोलिश जनता ने पोलैंड के उत्तरी क्षेत्र में 14 से 19 दिसंबर तक विरोध प्रदर्शनों को अंजाम दिया था. बढ़ती महंगाई, खान-पान की वस्तुओं की कमी और खाद्य संकट के चलते आम जनता सड़क पर उतर कर आंदोलन करने लगी थी.
आंदोलन के दौरान पोलैंड में कम्युनिस्ट शासन स्थापित था, जो सोवियत की साम्यवादी शक्तियों से प्रभावित था. आम जनता के प्रदर्शन, आक्रोश एवं नाराजगी के बाद पौलेंड की कम्युनिस्ट सत्ता को लगा कि यह आंदोलन उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकेगा.
इस कारण कम्युनिस्ट सत्ता ने अपनी सैन्य इकाई पोलिश पीपल्स आर्मी और सिटीजन मिलिशिया को जमीन पर उतारा और परिणामस्वरूप निर्दोष लोग ना सिर्फ हिंसा का शिकार हुए, बल्कि कुछ लोग बेमौत मारे भी गए.
वर्ष 1970 के दिसंबर महीने में पोलैंड की कम्युनिस्ट सरकार ने मूलभूत वस्तुओं के मूल्य में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी. इसमें प्रमुख रूप से दुग्ध उत्पाद भी शामिल थे, जिसका उपयोग बच्चों के भरण-पोषण के लिए किया जाता था.
इन प्रदर्शनों को कुचलने के लिए कम्युनिस्ट सेना और मिलिशिया ने आम जनता पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर आम पोलिश जनता का नरसंहार शुरू कर दिया था.
अनाधिकृत आंकड़ों के अनुसार सैकड़ों लोगों का नरसंहार किया गया था, लेकिन कम्युनिस्ट शासन ने इस नरसंहार की क्रूरता छिपाने के किए आधिकारिक रूप से केवल 44 लोगों के मारे जाने की बात को स्वीकार किया था.
इसके अलावा मारे गए लोगों के शवों को कम्युनिस्ट सेना द्वारा रात के अंधेरे में ही ‘ठिकाने’ लगा दिया गया ताकि नरसंहार की चर्चा ना हो सके और साथ ही इसकी व्यापकता उजागर ना हो.
पोलैंड के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक जान पोलोव्स्की ने इस पूरी घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है, जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट क्रूरता की सच्चाई को उजागर किया है.
उन्होंने अपनी पुस्तक में बताया है कि कैसे आम जनता ने कुशासन, महंगाई, खाद्यान्न संकट और कमुनिस्ट तानाशाही के विरोध में उत्तरी बाल्टिक शहरों के तटीय क्षेत्रों में प्रदर्शनों को अंजाम देना शुरू किया था. आम जनता के प्रदर्शन ने कम्युनिस्ट शासन की नींदें उड़ा दी थी और उन्हें यह अहसास हो गया था कि यदि इस आंदोलन को नहीं रोका गया तो उनकी सत्ता की नींव हिल सकती है.
इन प्रदर्शनों के बीच जो सबसे दिलचस्प घटना यह थी कि जैसे ही कम्युनिस्ट अधिकारियों ने आम जनता को आंदोलन छोड़कर पुनः कार्य में लौटने के लिए मनाने का प्रयास किया (इसके लिए उन्होंने पुलिस कार से लाउडस्पीकर का उपयोग किया था). प्रदर्शनकारियों ने इस लाउडस्पीकर की आवाज़ सुनी, और फिर इसी लाउडस्पीकर को अपने कब्जे में लेकर आम हड़ताल का आह्वान कर दिया. इसके बाद देर शाम तक प्रदर्शनकारियों की भीड़ बढ़ती रही और विभिन्न क्षेत्रों में कम्युनिस्ट सरकार की कुनीतियों के कारण दंगे, आगजनी और अन्य हिंसक घटनाएं सामने आती गई.
16 दिसंबर को टीवी प्रोग्राम में शामिल अपने भाषण में पोलैंड के तत्कालीन कम्युनिस्ट उप प्रधानमंत्री ने प्रदर्शनकारियों की ही आलोचना की. 17 दिसंबर की रात तक देश के उत्तरी हिस्से में कम्युनिस्ट सेना और पुलिस ने अपनी छावनी बना ली और कम्युनिस्ट नेता और पोलैंड के उप प्रधानमंत्री के कथन के पश्चात कर्मचारियों और प्रदर्शनकारियों पर कम्युनिस्ट सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें 11 लोग मारे गए.
इस नरसंहार को अंजाम देने के लिए कम्युनिस्ट सत्ता ने स्पेशल फोर्स के 5000 पुलिसकर्मी और 27000 से अधिक कम्युनिस्ट सैनिक शामिल किए थे, जो पूरी तरह आधुनिक हथियारों एवं युद्धक समानों से लैस थे.
कम्युनिस्ट शासन की क्रूरता ने एक बार फिर आम जनता के खून से अपनी सत्ता को स्थापित रखा और अपने सत्ता रूपी पेड़ को उसी रक्त से सींचा था. यह कम्युनिस्ट विचार की वह सच्चाई है. जिसके उदाहरण दुनिया के उन सभी क्षेत्रों में दिखाई देते हैं, जहां कम्युनिस्ट शासन स्थापित रहा है.
आखिर जो विचार स्टालिन, लेनिन, माओ, पोल पोट, फिदेल कास्त्रो जैसे कम्युनिस्ट तानाशाहों को अपना नेता और आदर्श मानता हो, उसकी गतिविधियों में आतंक और निरंकुशता तो शामिल होना अवश्यंभावी है.