प्रो. गीता भट्ट
औपनिवेशिक ताकतों के विरोध में जिन दो शब्दों ने वैचारिक अलख जगाई, वे थे – स्वराज और स्वदेशी. इन दो शब्दों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति और वैचारिक सन्दर्भ को गति दी. जिस से अंग्रेजों से स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी आंदोलन की आधारशिला मज़बूत हुई. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई धार्मिक-सुधारवादी आंदोलनों और संगठनों ने स्वाधीनता की अभिलाषा को जगाया. दयानंद सरस्वती ने भारतवासिओं के लिए भारत और स्वराज का आह्वान किया. बाल गंगाधर तिलक ने 1896 में इसी से प्रेरित होकर कहा कि ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’. 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में भारतीय जनता के ध्येय के रूप में ‘स्वराज’ को अपनाया गया. स्वराज के साथ स्वधर्म और स्वभाषा को लिए स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई. विदेशी वस्तुओं का त्याग करने और स्वदेशी का उत्पादन करने और संरक्षण देने का आह्वान किया गया.
राजनारायण बोस और नबागोपाल मित्रा द्वारा हिन्दू मेला, वीडी सावरकर द्वारा मित्र मेला जिसे बाद में अभिनव भारत के नाम से जाना गया, पंडिता रमाबाई द्वारा स्थापित आर्य महिला समाज जैसे कई सुधारवादी संगठनों ने एक ऐसा वातावरण विकसित किया, जिस से महिलाओं को देश के राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने की जगह मिली. कुछ प्रसिद्ध शिक्षाविदों और समाज सुधारकों, शेवंतीबाई त्र्यंबक, शांताबाई निकम्बे, काशीबाई कनितकर और मनॉकजी कुर्सेतजी ने महिलाओं को शिक्षित होने और राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया. रवींद्रनाथ ठाकुर की बड़ी बहन, स्वर्णकुमारी देवी, बंगाली पत्रिका ‘भारती’ की पहली महिला संपादक बनीं और उन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देश की सबसे शुरुआती महिला संगठनों में से एक ‘सखी समिति’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य महिलाओं को राष्ट्रहित के प्रति प्रबुद्ध बनाना था. वह उन दस महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1889 के अधिवेशन में भाग लिया था.
स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर भगिनी निवेदिता 1898 में भारत आईं और महिलाओं के बीच बड़े पैमाने पर काम किया. उन्होंने एक पत्र में लिखा, “भारत में कुछ भी इतना असाधारण नहीं है, जितना कि अद्भुत राजनीतिक शांति के साथ गहन धार्मिक विश्वास का संयोजन, जहां तथ्यों की वास्तविकता को जानने के लिए स्थिति पर व्यापक दृष्टि डालता है. भारत के बारे में जितना मैं जानती हूँ, एक कमी दिखी कि भारत के बारे में सही इतिहास नहीं लिखा गया. वे औपनिवेशिक शासन के खिलाफ देशवासियों में बढ़ते असंतोष की साक्षी थीं. ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध बढ़ रहे असंतोष और रोष की भावना को दिग्भ्रमित करने के उद्देश्य से 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन करने की अंग्रेजों की घोषणा के साथ ही स्वदेशी आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल गयी.
बंगाल के विभाजन के समय ब्रिटिश भारत के वायसराय कर्जन ने अपने बयानों से अशांति फैला, लोगों को और भड़का दिया. 11 फरवरी, 1905 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में दिए भाषण में उन्होंने कहा था कि भारतीय अपने पालन-पोषण और संस्कृति के कारण उच्च पद लेने के योग्य नहीं हैं, जिसकी सभी ने कड़ी निंदा की. दीक्षांत समारोह के दौरान भगिनी निवेदिता विश्वविद्यालय सभागार में मौजूद थीं और उन्होंने कर्जन के बयान की निंदा करने की पहल की. जब ‘युगांतर’ अखबार के संपादक भूपेंद्रनाथ दत्त, राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हुए और उन्हें एक साल की कैद की सजा सुनाई गई, तो भगिनी निवेदिता उनकी जमानत के लिए अदालत में गईं. अपना समर्थन देने के लिए आयोजित एक बैठक में, दो सौ महिलाओं ने दत्त के लिए सम्मान पत्र पर हस्ताक्षर किए.
स्वदेशी से प्रेरित हो बड़ी संख्या में महिलाओं ने आयातित कपड़े का उपयोग करना छोड़ दिया और अपनी विदेशी चूड़ियों तोड़ डाली. महिलाओं ने अपने आभूषण दान में देना शुरू किया और गांवों में राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए प्रत्येक घर से प्रतिदिन मुट्ठी भर अनाज निकाला जाने लगा. 1906 के प्रांतीय सम्मेलन के दौरान सरोजिनी बोस ने प्रतिज्ञा ली कि वे तब तक सोने की चूड़ियाँ नहीं पहनेंगी, जब तक कि ब्रिटिश सरकार के परिपत्र “वंदे मातरम” के प्रयोग पर लगी रोक वापस नहीं ली जाती. जे.के. गंगौली ने अपना कंगन दुर्गा मोहन सेन के जुर्माने की अदायगी में योगदान के रूप में दिया, जिसे अंग्रेजों द्वारा देशद्रोही गतिविधियों के लिए दोषी ठहराया गया था.
आर्य समाज से जुड़ी महिलाएं महिलाओं का समर्थन जुटा रही थीं. हिसार की एक प्रमुख आर्य समाजी श्रीमती पुरानी ने स्वदेशी के लिए विभिन्न जिलों की यात्रा की. उन्होंने इस बात की वकालत की कि महिलाओं को चाहिए कि वे अपने बेटों को सरकारी नौकरियों की तलाश करने के बजाय स्वदेशी के व्यापार, निर्माण और बिक्री में भाग लेने को प्रेरित करें. लाहौर में, महिलाओं ने 1909 की औद्योगिक और कृषि प्रदर्शनी में एक महिला भाग बनाया. सियालकोट की सुशीला देवी ने श्रृंखलाबद्ध व्याख्यान दिये, जिसमें उन्होंने सरकार पर हमला किया और महिलाओं को इस अवसर पर उठने का आह्वान किया.
लाहौर के एक बैरिस्टर की पत्नी, हिंदी पत्रिका ‘द भारत भगिनी’ की संपादक हर देवी ने मुक़दमा झेल रहे राष्ट्रवादियों की सहायता के उद्देश्य से बैठकें आयोजित कीं और धन एकत्र किया.
देश के पश्चिमी भाग में रहने के दौरान रवींद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरला देवी बाल गंगाधर तिलक द्वारा आयोजित गणपति उत्सव, दामोदर और बालकृष्ण चाफेकर द्वारा दिए जा रहे शारीरिक और सैन्य प्रशिक्षण से बहुत प्रभावित थीं. कलकत्ता लौटने पर, उन्होंने युवकों के शारीरिक प्रशिक्षण के लिए अखाड़ों और व्यायाम समितियों का गठन किया, जो क्रांतिकारियों के साथ जुड़ाव के रूप में भी काम करते थे. उन्होंने ‘लक्ष्मी भंडार’ नामक एक दुकान भी खोली, जिसमें महिलाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वदेशी सामग्री और वस्तुओं का भंडार था.
गांवों और शहरों में महिलाएं स्वदेशी और स्वराज की भावना से लामबंद हो रही थीं. एक उदाहरण में, बंगाल को विभाजित करने के ब्रिटिश सरकार के फैसले के विरोध में मुर्शिदाबाद जिले के जेनोकंद गांव में पांच सौ महिलाएं इकट्ठा हुईं और लोगों से स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का आग्रह किया. महिलाओं के बीच ब्रिटिश शासन के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध ने सरकार को ग्रामोफोन डिस्क पर स्वदेशी गीतों की रिकॉर्डिंग और थिएटर हॉल में उनके बजने पर रोक लगाने के लिए मजबूर कर दिया. ब्रिटिश पत्रकार वैलेंटाइन चिरोल ने ‘इंडिया अनरेस्ट’ में लिखा है – “ऐसा लगता है कि विद्रोह ने जनाना पर एक मजबूत पकड़ बना ली है और पर्दे के पीछे रहने वाली हिन्दू महिला दुनिया में स्वतंत्र रूप से विचरने वाली अंग्रेजी महिलाओं की तुलना में अक्सर अपने पति और उसके बेटों के बीच अधिक प्रभावी हैं. … बंगाल में इतनी कोमल उम्र के छोटे लड़के भी हैं, जिनके पीछे औरतें भागती हैं. मुझे बताया गया है कि देशद्रोह का पूरा पैटर्न सिखाया गया है और छोटे-छोटे संन्यासियों के रूप में अंग्रेजों से नफरत का प्रचार करने वे घर-घर जाते हैं.”
(लेखिका नॉन-कॉलीजिएट वूमेन एजुकेशन बोर्ड, दिल्ली विश्वविद्यालय की निदेशक हैं)