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मतांतरण पर बेजा शोर

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आगरा में हुए कथित मतांतरण को लेकर मीडिया और संसद में कोहराम मचा है. मतांतरण की इस घटना पर गुस्सा क्या महज मतांतरण अभियान के कारण है या मतांतरण करने वाले और मतांतरित होने वालों के मजहब के कारण है? यदि मतांतरित होने वाले दलित समाज के होते और वे इस्लाम या ईसाइयत में मतांतरित होते तो क्या स्वयंभू सेक्युलरिस्टों की यही प्रतिक्रिया होती? अभी मध्य प्रदेश के रतलाम में ईसाई समाज की चंगाई सभा में वनवासियों (आदिवासियों) के मतांतरण कराये जाने का समाचार प्रकाशित हुआ है. इन वनवासियों को बीमारियों के इलाज और नौकरी का प्रलोभन दिया गया था. इस घटना पर खामोशी क्यों? आगरा में हुई घटना में लालच या प्रलोभन के बल पर मतांतरण हुआ या नहीं, इसका निर्णय न तो संसद और न ही मीडिया कर सकता है. अंततोगत्वा इसका फैसला तो न्यायालय को करना होगा और सभ्य समाज को उसके निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिये. किसी नागरिक को लालच, डर या धोखे से मतांतरित करना दंडनीय अपराध होना ही चाहिये. कोई व्यक्ति अपने विवेक और स्वेच्छा से उपासना पद्धति बदलता है तो उस पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती. यह दूसरी बात है कि अधिकांश इस्लामी देशों में स्वेच्छा से इस्लाम छोड़ने की सजा मृत्युदंड है. क्या एक सभ्य समाज स्वयं के मजहब के प्रचार के नाम पर दूसरों के मजहब की निंदा कर, प्रलोभन दे या भय दिखाकर उनका मतांतरण करना स्वीकार कर सकता है?

भारत की कालजयी सनातनी मजहबी परंपरा सदियों से भय, लालच और धोखे की शिकार रही है. अंग्रेजों के सत्ता में आने के बाद ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं की आस्था का जहां मखौल उड़ाया वहीं उनके मानबिंदुओं पर भी चोट की. इस बीमारी का संज्ञान गांधीजी ने बहुत गंभीरता से लिया था. अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है, ”उन दिनों ईसाई मिशनरी लोग हाईस्कूल के पास एक नुक्कड़ पर खड़े हो जाते थे और हिंदुओं तथा देवी-देवताओं पर गालियां उड़ेलते हुए अपने पंथ का प्रचार करते…मैंने यह भी सुना कि नया ‘कन्वर्ट’ अपने पूर्वजों के धर्म को, उनके रहन-सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है. इन सबसे मुझमें ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई.” गांधी जी का मानना था कि भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता का पर्याय बन गई है. गांधीजी से मई, 1935 में एक मिशनरी नर्स ने भेंट वार्ता में पूछा कि क्या आप मतांतरण के लिये मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगाना चाहते हैं तो जवाब में गांधीजी ने कहा था, ‘अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूं. मिशनरियों के प्रवेश से उन हिंदू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठे हैं, वेषभूषा, रीति-रिवाज और खानपान तक में अंतर आ गया है.”

इस्लाम के साथ भी भारत का ऐसा ही कटु अनुभव है. 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद से इस्लामी आक्रांताओं ने तलवार के भय से और हिंदुओं के पूजा स्थलों को ध्वस्त करके उनका मतांतरण किया. उस बर्बर दौर का विस्तृत वर्णन मुस्लिम काल के इतिहासकारों की लेखनी से उपलब्ध है. वास्तव में देखा जाये तो भारतीय उपमहाद्वीप में मतांतरण एकतरफा है. सनातन संस्कृति में हर व्यक्ति को अपनी मान्यताओं के अनुसार जीवन जीने का अधिकार है और यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है. इसका लाभ उठाकर हिंदू समाज के कमजोर भाग को इस्लाम और ईसाइयत जैसे संगठित पंथ निगलने का प्रयास करते हैं. स्वामी दयानंद सरस्वती के काल से हिंदू समाज ने ‘शुद्धि’ के माध्यम से इस्लाम और मिशनरी समाज की नकल करने की कोशिश की है, किंतु चूंकि हिंदू चिंतन में इसका आधार नहीं है इसलिये ज्यादा सफलता नहीं मिली. हाल की घटना में भी शोर अधिक है, किंतु उसके ठोस परिणाम सामने नहीं आये हैं.

आगरा के बहाने संघ परिवार पर देश में हिंदुत्व एजेंडा थोपने का आरोप हास्यास्पद और तर्कहीन है. भारतीय उपमहाद्वीप में सन् 1941 में हिंदू धर्मावलंबियों का अनुपात 84.4 प्रतिशत था. आज आंकड़े क्या हैं? भारत की आबादी 120 करोड़ है. पाकिस्तान और बांग्लादेश की आबादी 20-20 करोड़ अर्थात् इन तीनों देशों की कुल आबादी 160 करोड़ है. भारत की आबादी में आज 80 प्रतिशत हिंदू होने का अर्थ हुआ कि यहां 96 करोड़ हिंदू आबादी है. पाकिस्तान और बांग्लादेश की करीब दो करोड़ हिंदू-सिख आबादी को मिला दें तो आज इन तीनों देशों में कुल 98 करोड़ हिंदू हैं, जो 160 करोड़ की आबादी का 61.25 प्रतिशत है. यदि हिंदुओं का अनुपात 1941 के आंकड़ों के अनुसार बना रहता तो आज इन तीनों देशों में हिंदुओं की कुल आबादी 135 करोड़ होनी चाहिए थी. बाकी के 37 करोड़ लोग कहां गये? स्वाभाविक है कि या तो उन्हें मार दिया गया या उनका जबरन मतांतरण किया गया.

इसके विपरीत उत्तर प्रदेश, बिहार-झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम के सीमावर्ती पट्टी में सन् 1951 में मुसलमानों का अनुपात 20.49 प्रतिशत था, अब यह 29 प्रतिशत है. राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हिंदुओं की प्रतिशत जनसंख्या में जहां निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है, वहीं मुसलमान और ईसाइयों के मामले में लगातार वृद्धि के आंकड़े हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी मिशनरियों की गतिविधियां चलती रहीं. इसकी जांच के लिये मध्य प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने 14 अप्रैल, 1955 को पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी. 1982 में तमिलनाडु में वेणुगोपाल आयोग, 1989 में उड़ीसा में वाधवा आयोग गठित हुआ. इन सबने मिशनरियों द्वारा कराए गये मतांतरण को अवैध बताते हुए कानून बनाने की संस्तुति की. मध्य प्रदेश और उड़ीसा की प्रांतीय सरकारों ने छल-फरेब और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण के विरुद्ध कानून बनाये. वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में मतांतरण विरोधी कानून हैं. आज आवश्यकता इस बात की है कि झूठ-फरेब, प्रलोभन और बलात् मतांतरण के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कठोर कानून बनाया जाये. जिन लोगों (या जिनके पूर्वजों) का शर्मनाक तरीकों से मतांतरण किया गया उन्हें वापस अपने पुरखों के मत में लौटने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ऐसा विचार राष्ट्र के सामने रखा है. देखना यह है कि आगरा की घटना पर हाय-तौबा मचाने वालों की इस सुझाव के प्रति क्या प्रतिक्रिया रहती है?

(लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)

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