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12 अप्रैल 1801 – महाराजा रणजीत सिंह और सिक्ख साम्राज्य की स्थापना

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देश के इतिहास में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का नाम भी आता है. पंजाब पर शासन करने वाले महाराजा रणजीत सिंह ने केवल 10 वर्ष की आयु में पहला युद्ध लड़ा था और 12 वर्ष की आयु में उन्होंने गद्दी संभाल ली थी. जबकि, 18 वर्ष की आयु में उन्होंने लाहौर को जीत लिया था. 40 वर्षों तक पने शासन में उन्‍होंने अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आसपास भी नहीं फटकने दिया. 12 अप्रैल, 1801 को महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर (अब पाकिस्तान में) में सिक्ख साम्राज्य की स्थापना की थी.

7 जुलाई, 1799 को उन्होंने दुश्मन सेना को हराकर लाहौर को अपने अधीन किया था. जब किले के मुख्य द्वार से प्रवेश किया तो उन्हें तोपों की शाही सलामी दी गई. उसके बाद अगले कुछ दशकों में एक विशाल सिक्ख साम्राज्य की स्थापना की. 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह की पंजाब के महाराज के तौर पर ताजपोशी का यह क्षण एक महत्वपूर्ण क्षण था. महाराजा रणजीत सिंह के अधीन सिक्ख साम्राज्य की स्थापना से पंजाब क्षेत्र में स्थिरता और समृद्धि आई. रणजीत सिंह, अपने सैन्य कौशल के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने सिक्ख खालसा सेना का नेतृत्व करते हुए युद्ध में कई जीत हासिल की और पूरे पंजाब और उसके बाहर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. प्रशासनिक कौशल, सिक्ख प्रमुखों को एकजुट करने और एक मजबूत शासन स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

महाराजा रणजीत सिंह के शासन के तहत, सिक्ख साम्राज्य ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया. साम्राज्य की राजधानी लाहौर संस्कृति, कला और वाणिज्य का केंद्र बनी. रणजीत सिंह की धर्मनिरपेक्ष नीतियों और सभी धर्मों के प्रति सम्मान ने उन्हें विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों से प्रशंसा दिलाई. उनके नेतृत्व में सिक्ख साम्राज्य सिक्ख संप्रभुता का प्रतीक बन गया. लाहौर में सिक्ख साम्राज्य की स्थापना न केवल विदेशी आक्रमणों के खिलाफ दशकों के संघर्ष और प्रतिरोध की परिणति थी, बल्कि इस क्षेत्र में स्थिरता और समृद्धि के दौर की शुरुआत भी हुई.

19वीं शताब्दी के आरंभ में महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य पंजाब, कश्मीर और पेशावर तक फैला था. इस समय मुग़ल और इस्लामी कट्टरपंथियों को टक्कर देने के लिए हिन्दू और सिक्ख एक साथ मिलकर लड़ रहे थे. महाराजा रणजीत सिंह का यह साम्राज्य सिक्ख गुरुओं के नेतृत्व में मुस्लिम शासकों के विरुद्ध विद्रोह का परिणाम था. इसी समय सईद अहमद बरेलवी, जो अवध से था और वहाबी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता था, उसने भारत में फिर से इस्लामिक राज्य की परिकल्पना करके जिहाद को पुनर्जीवित किया. शक्तिशाली अंग्रेजों के शासन में ऐसे राज्य की स्थापना करना आसान नहीं था, इसलिए उसने सिक्खों के साम्राज्य को जिहाद के लिये चुना. उसने पहले पेशावर के पख्तूनों को सिक्खों के विरुद्ध भड़काया और धीरे-धीरे बालाकोट को अपना जिहादी गढ़ बनाया.

सन् 1831 में महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों ने बालाकोट में बड़ी कार्रवाही करके सईद अहमद बरेलवी और उसके साथी इस्माइल देलहवी को मार गिराया और उनके ठिकाने ध्वस्त कर दिए . बरेली का सपना था कि वह बालाकोट को अपना ठिकाना बना कर कश्मीर पर कब्जा कर लेगा. लेकिन वीर सिक्ख सेना के कारण उसका यह सपना पूरा ना हो सका. महाराजा रणजीत सिंह की बालाकोट के युद्ध में विजय हुई और बरेलवी का सिर धड़ से अलग कर दिया. इसी जिहाद के फितूर में अजर मसूद ने भी कश्मीर में अपनी आतंकी गतिविधियों के लिए बालाकोट को हेडक्वार्टर बनाया था.

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