एक तरफ मोतीलाल ब्रिटिश साम्राज्य की स्तुति कर रहे थे तो ब्रिटिश संसद में डायर को क्षमता वाला अधिकारी बताया जा रहा था. 19 जुलाई, 1920 के इस एक प्रस्ताव में कहा गया है कि डायर ने कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया है. ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता और फासीवाद का उदाहरण था. इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था कि कांग्रेस ने इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी.
कांग्रेस अमृतसर अधिवेशन का मकसद नरसंहार से राजनीतिक फायदा उठाना था. दरअसल कांग्रेस के एक सदस्य ने अमृतसर के उप-आयुक्त को पत्र लिखकर सुझाव दिया कि अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन दोनों के हितों के लिए जरुरी है. उस कांग्रेस सदस्य ने लिखा है कि अगर ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को अधिवेशन की अनुमति देती है तो इससे जनता के बीच सरकार की छवि में सुधार होगा. (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह राजनैतिक, जनवरी 1920/77).
कांग्रेस उन खूनी धब्बों से ब्रिटिश सरकार को बचा रही थी, जिनके निशान आज तक अमृतसर में मौजूद हैं. ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की. जिसमें बताया गया है कि 13 अप्रैल, 1919 को 5000 से ज्यादा लोग वहां मौजूद थे. डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी, इनमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुखरी (छोटी तलवार) थी. बिना चेतावनी के वे लोग लगातार 10 मिनट तक गोलियां चलाते रहे. इस घटना के बाद डायर ने लिखित में बताया कि जितनी भी गोलियां चलाई गईं वह कम थीं. अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक होती.
इस नरसंहार में कितने लोग शहीद हुए इसकी आज तक कोई ठोस जानकारी नहीं है. राष्ट्रीय अभिलेखागार में गृह (राजनीतिक) की फाइल संख्या23-1919 में इस संबंध में जानकारी दी गयी है. इस फाइल के अनुसार एक ब्रिटिश अधिकारी जे.पी. थोमसन ने एच.डी. क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को पत्र लिखा – “हम इस स्थिति में नहीं हैं, जिसमें हम बता सकें कि वास्तविकता में जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए. जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती है. उसने यह भी बताया कि उसके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता है.” उस दिन कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गयी थीं. इस प्रकार उस अनुमान के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी. हालाँकि, डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने तो 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोग घायल होने की बात कही है. पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियांवाला बाग का दौरा किया था. उन्होंने कहा था मरने वालों की संख्या 1000 से अधिक है.
मोतीलाल नेहरू के बाद उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू ने भी जलियांवाला बाग नरसंहार को कांग्रेस का एक उपक्रम बनाया. स्वतंत्रता के बाद जलियांवाला बाग ट्रस्ट को वैधानिक रूप दिया जाना प्रस्तावित था. प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि इसका विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत न करके मंत्रिमंडल से ही पारित हो जाए. वे 11 मार्च, 1950 को लिखते हैं – “मैं चाहता हूं कि इस विधेयक के मसौदे को जलियांवाला बाग मैनेजिंग कमिटी की बैठक में रखा जाए. उसके बाद, मुझे उसकी प्रति भेज दें. तब विधेयक को मंत्रिमंडल के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जाएगा. जाहिर है इसे संसद के वर्तमान सेशन में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह मंत्रिमंडल द्वारा पारित कराया जाएगा.” (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 Judicial).
विधेयक के मसौदे पर एक भ्रम फैलाया जाता है कि इसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने तैयार किया था. दरअसल इसका मसौदा कांग्रेस के ही एक सदस्य टेकचंद ने बनाया था. आंबेडकर के पास तो यह समीक्षा के लिए 24 मार्च, 1950 को भेजा गया था. कुछ मामूली सुझावों के साथ उन्होंने इसे वापस भेज दिया. जलियांवाला बाग मेमोरियल ट्रस्ट बिल, 1950 में नेहरू के साथ सरदार पटेल भी न्यासी थे. एक्स-ऑफिसियो में पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रखा गया. इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा पहले चार लोगों को नामांकित किया जा सकता था, लेकिन अंत में यह संख्या तीन कर दी गई. इसके न्यासी जीवनभर के लिए पदाधिकारी बनाए गए. आखिरकार, नेहरू ने संसद के समक्ष 07 दिसंबर, 1950 को यह विधेयक प्रस्तुत किया गया. तब तक सरदार पटेल बेहद अस्वस्थ हो गए थे. उनके स्थान पर पहले राजकुमारी अमृतकौर के नाम पर विचार किया गया. बाद में नेहरू के सुझाव पर डॉ. सैफुद्दीन किचलू को न्यासी बनाया गया.
कांग्रेस ने इस पूरे मामले में अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया. किसी अन्य दल और सामाजिक एवं राजनीतिक व्यक्ति से इस सन्दर्भ में चर्चा तक नहीं की. शुरुआत में विधेयक को संसद में न लाकर मंत्रिमंडल से ही पारित किया जाना था. बाद में नेहरू ने इसे संसद के समक्ष रखा तो इसमें सभी सदस्य कांग्रेस के ही थे. कांग्रेस का जो भी अध्यक्ष होगा, वह ट्रस्ट का सदस्य होगा. यह नियम 1951 से लागू था, जिसे भारत सरकार ने 2018 में बदल दिया.
देवेश खंडेलवाल