डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
रविवार दिनांक 29 अक्तूबर, 2023 को प्रात: 7.00 बजे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्येष्ठ प्रचारक, पूर्व अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख श्री रंगाहरि जी ने अंतिम श्वास ली और वे अपने निजधाम की ओर प्रस्थान कर गए. हिन्दुत्व विचार के उत्तुंग बौद्धिक योद्धा, आत्मीयता की ऊष्मा और शीतलता की एकत्र अनुभूति कराने वाले संवाद-पटु, ध्येय की दिशा में लीक से हटकर नया सोचने वाले और एक राष्ट्र समर्पित संघ ऋषि की जीवन-यात्रा समाप्त हुई. वे 93 वर्ष के थे. 13 वर्ष की आयु में स्वयंसेवक बने श्री रंगाहरि जी लगातार 80 वर्ष तक संघ कार्य में सक्रिय रहे. 1983 से 1993 तक वे केरल के प्रांत प्रचारक और 1991 से 2005 तक वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख थे. संघ के दायित्व से मुक्त होने के बाद भी रोबिन शर्मा द्वारा लिखित “A Leader who had no Title” इस पुस्तक के वर्णन के अनुसार श्री रंगाहरि जी एक स्वयंसेवक के नाते सतत सक्रिय रहे.
कम्युनिस्टों के गढ़ रहे केरल में संघ के राष्ट्रीय विचार का बीजारोपण करना, ‘एक्सक्लूसिविस्ट’ और हिंसक वामपंथ के वैचारिक और धरातल की चुनौतियों का सक्षम उत्तर देते हुए हिन्दुत्व के सर्व-समावेशी और राष्ट्रीय विचार को केरल में प्रतिष्ठित करने में जिन ज्ञाननिष्ठ एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें श्री रंगाहरि जी एक प्रमुख व्यक्ति थे. हिंसक कम्युनिस्टों के साथ रक्तरंजित संघर्ष में संघ के 298 कार्यकर्ताओं ने अपने प्राण गंवाए हैं, जिनमें से 70 प्रतिशत ऐसे थे, जो कम्युनिस्ट विचार को त्याग कर संघ के स्वयंसेवक बने थे. इन सब कार्यकर्ताओं के घर-परिवार को संभालना, उनको सांत्वना देना, उन्हें संघ के साथ जोड़े रखना, ये सब आसान नहीं था. इसके लिए आवश्यक हृदय की दृढ़ता कैसे आई होगी? एक दिन जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछा तब वे सहसा फूट-फूट कर रोने लगे. ऐसे संघर्षमय जीवन में कुछ कठोर निर्णय भी करने पड़ते हैं. परंतु, श्री रंगाहरि जी का हृदय कितना संवेदनशील और कोमल था, इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति मुझे उस दिन हुई.
गंभीर और गूढ़ विषयों को उदाहरण के साथ विनोदी शैली में साभिनय समझाना उनकी विशेषता थी. संस्कृत के श्लोक, सुभाषितों का समृद्ध भंडार उनके पास रहता था. उनके पढ़ने में आए जिन सुभाषितों को उन्होंने लेखन और बौद्धिकों में उपयोग किया, ऐसे सुभाषितों का संग्रह पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है. इस संग्रह का नाम भी अत्यंत सटीक –‘सुधी वाणी सुधा वाणी’ है. नई-नई भाषाएं सीखने का उनका तंत्र और उत्साह अद्भुत था. गुजरात के प्रवास पर जब वे पहली बार आए तब बहुत अल्प समय में गुजराती पढ़ना और बोलना सीख गए, यह देखकर मैं अचंभित था. सातत्य से पढ़ना, मूलभूत चिंतन करना और गूढ़ार्थ समझने की चेष्टा वे निरंतर करते रहते. विभिन्न विषयों पर उनके द्वारा लिखित 62 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हुई हैं.
केरल में असामाजिक कम्युनिस्ट तत्वों के साथ संघर्ष करते हुए भी कम्युनिस्ट नेताओं से संवाद की प्रक्रिया प्रारंभ करने की पहल करने वाले श्री रंगाहरि जी थे. ऐसे एक संवाद में श्रेष्ठ विचारक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी उपस्थित थे. मलयालम साप्ताहिक पत्रिका ‘केसरी’ ने जब एक लेख श्रृंखला-संघर्षरत केरल में शांति कैसे स्थापित की जा सकती है – शुरू की, तब श्री रंगाहरि जी प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने संपादक को पत्र लिखकर इस पहल के लिए साधुवाद दिया था.
प्रचलित मान्यताओं से हट कर सोचना और इसके लिए सहकारियों को भी प्रोत्साहित करना, यह उनकी विशेषता थी. नए विचार को योग्य दिशा देकर नया सोचने के लिए, पढ़ने के लिए वे हमेशा प्रोत्साहित करते थे.
दीप्ति वर्मा एक नवोदित लेखिका हैं, जिन्होंने ‘पंचकन्या’ नामक एक बहुत अच्छी पुस्तक लिखी है. अहिल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा और मंदोदरी, ये पंचकन्याएं प्रात:स्मरणीय हैं. यह पुस्तक वस्तुत: इस दृष्टि से उत्तम है कि आज की सदी की युवतियों को उनके जीवन से क्या संदेश लेना चाहिए. इस शृंखला का पहला लेख ‘अहिल्या’ दीप्ति जी ने श्री रंगाहरि जी को उनके विचार जानने के लिए भेजा था. दीप्ति जी श्री रंगाहरि जी की पोती की उम्र की हैं. पर नए विचार का, नए अभिगम का स्वागत करते हुए उन्होंने पत्र के अंत में उन्हें आशीर्वाद देने के स्थान पर उनके सहित ‘हम सभी को ईश्वर आशीर्वाद दें’, ऐसा लिखा है. यह बात उनकी विनम्रता दर्शाती है. ‘अहिल्या’ को पढ़ने के बाद रंगाहरि जी ने जो उत्तर दिया था, वह इस प्रकार है –
Sushri Deeptiji,
Namaskars. Yesterday I read your write-up on Ahalya. In short, it is very fine. I very much enjoyed the original approach and elucidation. I think I can rightly expect, the write-ups on the other four also will be in the same refrain.
I would like to bring to your notice one happy fact. In Kerala, there was a famous lady writer Lalitambika Antarjanam born about 120 years ago. Though she belonged to the orthodox Namboodiri (Kerala Brahmin) community, she has authored a book in Malayalam named Sita Muthal Satyavati Vare, meaning ‘From Sita to Satyavati.’ In that, one piece is on Ahalya. She says in it the whole tragedy was due to a mis-match, the very point you have emphasised. This book is in Malayalam. It was the first book I read wherein a woman evaluates a woman, which by itself is extremely important. I appreciate you have done verily that.
I very much liked the interpretation of your satisfying the thirst and temperament of sisters and mothers of these times tempered by science. Further, I am awaiting the other four as and when completed.
Through your good self.
May God bless us all,
Yours sincerely
Ranga Hari
विनोद श्री रंगाहरि जी के जीवन का अविभाज्य भाग था. संघ की अखिल भारतीय बैठकों में मुक्त कालांश में यदि कहीं कार्यकर्ताओं का जमावड़ा दिख रहा हो, आने-जाने वाले कार्यकर्ता उस जमावड़े में स्वत: ही जुड़ते जाते हों और अचानक हास्य का फव्वारा फूट पड़ता हो, तब निश्चित मान लेना चाहिए कि वहां श्री रंगाहरि जी अवश्य होंगे. उनकी शारीरिक ऊंचाई बहुत कम (5 फुट से भी कम) थी, इसलिए वे ऐसे जमावड़े में बाहर से दिखते नहीं थे. पर वहां से यकायक उठने वाला हास्य का फव्वारा उनकी उपस्थिति दर्शाता था. एक बार प्रसिद्ध लेखक खलील जिब्रान की एक कविता ‘आपके बच्चे’ मेरे पढ़ने में आयी थी. उसे मैं कई बार उद्धृत भी करता था. पर, मैंने वह अधूरी पढ़ी है, यह मुझे पता नहीं था. एक बार एक जगह मैंने उस कविता का उल्लेख किया, तब श्री रंगाहरि जी भी वहां थे. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि उसके आगे भी कविता शेष है. वह ईमेल का जमाना नहीं था. तब रंगाहरि जी का केंद्र मुंबई था.
उनकी यात्रा पूर्ण होने पर दो माह के बाद जब वे मुंबई पहुंचे, तब उन्होंने स्मरणपूर्वक वह खलील जिब्रान की पूर्ण कविता ‘आपके बच्चे’ पत्र द्वारा लिख कर भेजी और अपनी विनोदी शैली में पत्र के अंत में लिखा – “Dear Manmohan, sending ‘Your Children’ to one who has none by one who also has none. – R. Hari.” (संघ के लिए जो नए हैं उन पाठकों के लिए – हम दोनों संघ के प्रचारक थे और प्रचारक अविवाहित होते हैं.)
प्रचारक ‘अनिकेत’ होता है, उसका एक केंद्र अवश्य होता है जो संगठन की आवश्यकतानुसार संघ तय करता है. श्री रंगाहरि जी का केंद्र मुंबई था, यह उल्लेख ऊपर आया ही है. उस समय एक बार वे जब गुजरात आए थे, तब हम एक ख्यातनाम उद्योगपति के घर साथ गए थे. उन उद्योगपति ने प्राथमिक बातचीत में श्री रंगाहरि जी से सहज पूछा, ‘हरि जी आपका कब पधारना हुआ?’ और वे जानना चाहते थे कि हरि जी कितने दिन गुजरात में रहने वाले हैं. इसलिए उन्होंने हरि जी से सहज पूछा कि – ‘आप कब वापस पधारने वाले हैं?’ हरि जी का तुरंत उत्तर था, ‘मैं तीन दिन के बाद यहां से दिल्ली जाने वाला हूं. वापस नहीं. मेरा केंद्र मुम्बई है. मैं मुंबई जाता हूं, तब वापस जाता हूं, ऐसा कहता हूं.’ सहज संवाद में भी ‘अनिकेत’ की ऐसी सजगता से मैं अचंभित था और प्रभावित भी.
श्री रंगाहरि जी ने अपने जीवन से, आचरण से और व्यवहार से अनेक कार्यकर्ताओं को बहुत कुछ सहज सिखाया है. परंतु अपनी मृत्यु के बारे में उन्होंने मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व, मृत्यु की आहट आने के साथ जो लिख रखा था, वह भी प्रेरणादायक और मार्गदर्शक है. केरल के सभी संबंधित अधिकारियों को लिखे सीलबंद पत्र, जो उन्होंने केरल के प्रांत प्रचारक के पास रखवाए थे, वे उनकी मृत्यु के बाद ही खोलने चाहिए, ऐसी सूचना थी. उसमें श्री रंगाहरि जी ने लिखा था कि जीवन में तो व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार सब बातें कर सकता है, पर मृत्यु के बाद के कार्य वह स्वयं नहीं कर सकता. उसे बाकी लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है.
इसलिए मेरी प्रार्थना है कि – ‘‘मेरी मृत्यु के बाद मेरे शव का दाह किसी विशिष्ट जाति के श्मशान में नहीं, बल्कि सामान्य लोगों का जहां अग्निदाह होता है, ऐसे श्मशान में ही करना. मैंने जीवन भर जातिगत भेद नहीं माना है, मृत्यु के बाद भी मैं वैसा ही करना चाहता हूं. सभी पाण्डवों ने अपने पूर्वजों का पिंडदान जहां किया था, ऐसा एक ऐतिहासिक स्थान आईवरम मठम केरल में भारती नदी के किनारे है, वहीं मेरा अग्निदाह करना चाहिए. बाद में मेरी राख और अस्थियां किसी सेलिब्रिटी के समान दो-तीन जगह विसर्जित न करते हुए वहीं नजदीक किसी जलाशय में विसर्जित करनी चाहिए. मैंने अपना श्राद्ध और पिंडदान ब्रह्मकपाल में कर लिया है. इसलिए मेरा कोई श्राद्ध-विधि या पिंडदान किसी को करने की आवश्यकता नहीं है. अपनी सभी प्रकाशित पुस्तकों के अधिकार मैं संघ को देता हूं. कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के मृत शरीर को लाल कपड़े में लपेटकर अग्निदाह करने की परंपरा केरल में है. उसी प्रतिसाद के नाते संघ स्वयंसेवकों के मृत शरीर को भगवा रंग के कपड़े में लपेटकर अग्निदाह करने की परंपरा केरल में किसी कारण शुरू हुई होगी, परंतु यह अयोग्य है. भगवा अपना गुरु है. इसलिए मेरी पार्थिव देह को अग्निदाह के समय भगवा कपड़े में न लपेटा जाए.’’
रंगाहरि जी ने अपनी यह अंतिम इच्छा पहले ही लिख दी थी. उन्होंने जीवन भर अपने आचरण से उदाहरण देकर जीना सिखाया. वे मृत्यु के समय भी एक बोध, सोचने की दिशा देकर गए. श्री रंगाहरि जी ने अपने जीवन की अंतिम प्रार्थना तीन संस्कृत श्लोकों द्वारा व्यक्त की थी –
मामिकान्तिम प्रार्थना
करणीयं कृतं सर्वम्
तज्जन्म सुकृतं मम
धन्योस्मि कृतकृत्योस्मि
गच्छाम्यद्य चिरं गृहम् ॥ 1॥
कार्यार्थं पुनरायातुम्
तथाप्याशास्ति मे हृदि
मित्रै सह कर्म कुर्वन्
स्वान्त: सुखमवाप्नुयाम् ॥ 2॥
एषा चेत् प्रार्थना धृष्टा
क्षमस्व करुणानिधे
कार्यमिदं तवैवास्ति
तावकेच्छा बलीयसी ॥ 3॥
अर्थ – सारा करणीय कार्य पूर्ण कर मैं धन्य और कृतकृत्य हुआ हूं और आज अपने चिरंतन गृह की ओर प्रस्थान कर रहा हूं. तथापि मेरे मन में इसी कार्य के लिए वापस आने की इच्छा है, मेरे सहकारियों के साथ यह कार्य और अधिक करने से स्वांत सुख प्राप्त होगा.
इस मेरी प्रार्थना से धृष्टता हुई हो तो, हे करुणानिधे! क्षमा करना. यह कार्य भी आपका ही है और आपकी इच्छा बलवती है.
स्वयं की मृत्यु के समय भी इतने संतुलित, आशादायी विचार और पूर्ण समर्पण देखकर मराठी के श्रेष्ठ कवि श्री बा. भ. बोरकर की कविता का स्मरण होता है. उसका हिंदी अनुवाद इस तरह है –
है मनोहर अस्त भी वह, उदधि में ज्यों सूर्य सा हो.
यामिनी को दे विरासत अग्नि की जो जा रहा हो..
(मराठी – देखणा देहांत तो जो, सागरी सूर्यास्त सा.
अग्निचा पेरून जातो रात्रगर्भी वारसा..)
हिमालय सी ऐसी ऊंचाई छूने वाले व्यक्ति को हम सब ने प्रत्यक्ष देखा है, उनसे वार्तालाप किया है, अपने सहकारी के नाते उन्होंने हम जैसे सामान्य कार्यकर्ता मित्र भाव से उनके द्वारा स्नेहसिंचित हुए हैं! विश्वास नहीं होता कि अब वे हमारे बीच नहीं रहे.
केरल के हिंसक वामपंथी विचार के गढ़ में सतत संघर्ष करते हुए ध्येयनिष्ठ संघ यात्री की श्रृंखला निर्माण करने वाले इस महापुरुष को, ज्येष्ठ मार्गदर्शक को गौरवपूर्ण, सादर प्रणाम.
मराठी कवि श्री बा. भ. बोरकर की उस कविता की और दो पंक्तियां स्मरण आती हैं –
सत्य सुंदर वे चरण जो ध्येयपथ चलते रहे.
बीहड़ों में, मरुस्थल में स्वस्तिपद्म खिला रहे..
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी की जन्मशती (2005 – 2006) के निमित्त उनके 33 वर्ष के (1940 – 1973) प्रदीर्घ कार्यकाल में दिए गए असंख्य व्याख्यान एवं बौद्धिकों को एकत्र कर उनका सुयोग्य वर्गीकरण कर 12 खंडों में ‘श्रीगुरुजी समग्र’ के प्रकाशन का भगीरथ कार्य श्री रंगा हरि जी का एक महत्वपूर्ण योगदान है.
इसी तरह, श्रीगुरुजी के कालजयी शाश्वत विचारों के अमृत कुंभ जैसा ‘श्रीगुरुजी-दर्शन और कार्य’ (Shri Guruji Vision and Mission) और श्रीगुरुजी का जीवन चरित्र इस जन्मशती के निमित्त की वैचारिक साधना का सुमधुर प्रतिफल है.