जिस दिन शंकर का त्रिशूल भी चूक जाए संधानों से.
उस दिन रुकने की आशा करना भारत की संतानों से..
गीता कहती है कि रात्रि में सब सोते हैं, जो जागता है वह संयमी है. यह तो पता नहीं कि वे गीता जानते थे या नहीं, पर सत्य है कि उस घनघोर बरसाती रात में पूरा ठेपहरा सो रहा था. ठेपहरा बिहार प्रांत के सीवान जिले का वह गाँव है, जहाँ की घटना बता रहे हैं. पास ही एक दूसरा गाँव था तितरा. इसकी एक बस्ती मिश्रोंलिया के एक घर में बारह साल का बच्चा बच्चन प्रसाद आज पलक भी न झपका सका था. पटना में हुए सात विद्यार्थियों के बलिदान की घटना उसके मन मस्तिष्क को चक्रवाती तूफान की भाँति मथ रही थी. निश्चय तो दिन में ही हो गया था, पर आकाश डरावने बादलों से पटा हुआ था. यूं ही जागते-जागते सुबह के तीन बज गए. वह उठा. अपने कुर्ते के नीचे भारतीय ध्वज सम्हाल कर छिपाया और धीरे से बिना आहट दरवाजा खोल चल पड़ा. सांय-सांय करती तीर सी चुभती हवाएँ, हाथ को हाथ न सूझे, ऐसा अंधेरा. वर्षा से कीचड़ भरा रास्ता पर, वह शायद इन्हें अनुभव करने की स्थिति से परे अपनी योजना की धुन में ही खोया हुआ था. वह सीवान के रास्ते पर बढ़ा और आगे जाकर अपने 14 वर्षीय मित्र झगरू साहू के ताँगे पर बैठ गया. यह पूर्व नियोजित ही था. ताँगा सीवान की कोट के पहले ही एक सुनसान जगह पर रुका. घोड़ा हिनहिना न दे, इसलिए उसके मुँह पर उसके दाने का थैला लटका दिया गया.
दोनों कोर्ट पहुँचे. पहरेदार ऊँघ रहे थे. छिपते-छिपाते ऊपर चढ़े. अंग्रेजी झण्डा उतार फेंका और भारतीय ध्वज लहरा दिया. बादल गरजते-बरसते रहे, पहरेदार सोए पड़े रहे. यही कृत्य दीवानी, कचहरी और डाकघर पर भी करके चुपचाप अपने घर आकर सो गए.
12 अगस्त, 1942 का वह दिन. तीन-तीन सरकारी भवनों पर भारतीय ध्वज शान से लहरा रहा था. सिपाहियों को तो तब खबर लगी, जब लोग मुस्कुराते हुए झण्डों की ओर देख कर फुसफुसाने लगे. आनन-फानन में भारतीय ध्वज उतारे गए. फिर से यूनियन जैक चढ़ाए गए. यह करामात किसने की, कब की, कैसे की, रात में ऊँघते पहरेदार तो बता न सके पर अंग्रेजी झण्डा पुनः देखा तो छात्रा रोष से भर उठे. अगले ही दिन सीवान में बड़े जुलूस की तैयारी की गई. सबसे पहले कचहरी पर झण्डा फहराना तय हुआ. फौजदारी कचहरी पर मजिस्ट्रेट पहले ही तैनात थे. चाक-चौबन्द, लेकिन संयोगवश झड़प होने के पहले ही एस.डी.ओ. वहाँ पहुँच गए. वे भारतीय थे. अंग्रेजों की नौकरी करते थे, पर स्वभाव वैसा न था. नाम था शरणचन्द्र मुखर्जी. उनकी भारतीयता इतनी मरी न थी. वे संघर्ष और उसके बाद देशभक्तों की नृशंस हत्याओं को टालने के प्रयास में बोले “क्या चाहते हैं आप?”
“हमारा भारतीय ध्वज लौटा दिया जाये?” तीखे स्वर में आक्रोशित बच्चन चीख उठा. उनके संकेत पर भारतीय ध्वज लौटा दिया गया. भारत माता की जय से आकाश गूंज उठा.
“अच्छा! आप मुझे अपना मानते हैं न? आइये मेरे साथ.” आगे-आगे शरणचन्द्र पीछे-पीछे विशाल छात्र समूह और साथ जुड़ता जा रहा जन समुदाय भी. वे दीवानी कोर्ट पर जा पहुँचे. यहाँ भारतीय ध्वज फहराया, झण्डा गीत गाया तभी बन्दूकों से लैस सैनिक बल आ पहुँचा और एक बार फिर वही दमनचक्र. बन्दूकों के सामने तने हुए राष्ट्रभक्तों के वक्ष. उनमें कई लोग तमाशा देखने वाले भी थे, उनमें भगदड़ मच गई. सात विद्यार्थी पकड़े गए पर बच्चन और झगरू वहाँ से गायब हो चुके थे.
वहाँ, से हटकर जनसमुद्र जुबली सराय से आ टकराया. डॉ. सरयू प्रसाद मिश्र का ओजस्वी भाषण लोगों की नसों में राष्ट्रीयता की आग भर रहा था. तभी अंग्रेजी दमन दल ने सराय घेर कर उसे खाली करने की चेतावनी दे दी. अंधाधुंध लाठियाँ भाँजी जा रही थीं. कई साहसी नौजवानों ने पुलिस के डण्डे छीन उन्हें ही धुनना शुरू कर दिया. कई के हाथ लाठी न लगी तो अपनी धोतियों के कोड़े बनाकर पुलिस वालों की धुनाई शुरू कर दी. पासा पलटते देख दण्डाधिकारी एस.सी. मिश्र ने गोलीबारी का आदेश दे दिया. पहली गोली बच्चन प्रसाद को लगी. झगरू साहू बिजली की स्फूर्ति से उसके आगे आकर शेष गोलियाँ अपने शरीर पर झेल गया. 13 वर्ष का छटू गिरि भी गोलियाँ झेल रहा था. झगरू और छटू का वहीं प्राणान्त हो गया. बच्चन प्रसाद ने तीन दिन अस्पताल में मौत से संघर्ष किया और प्राण विसर्जित कर दिये.
सीवान की दाहर नदी इन बाल बलिदानियों झगरू व छटू की अन्त्येष्टि की साक्षी बनी. उसकी तरंगों में ध्यान से सुनो तो आज भी इन वीरोचित बलिदानों की गाथा सुनाई पड़ती है.
(गोपाल महेश्वरी – लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है.)