शीतल पथिक
1922 में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कंपनी के रूप में स्थापित व 1927 में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन के रूप में पुनर्गठित, बीबीसी ब्रिटेन का सबसे पुराना प्रसारक है. जिसका कार्यक्षेत्र ब्रिटिश औपनिवेशिक देशों, विशेष कर एशिया में विस्तृत है.
अपनी स्थापना के समय से ही BBC कई विषयों में विवादों से घिरा रहा है, चाहे फिर वह कोई अंतरराष्ट्रीय मुद्दा हो या फिर किसी देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप की बात हो. राजनीति, धर्म, नैतिकता, सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के विषयों पर बीबीसी के कई लेख व रिपोर्ट्स पर अनेक देशों में विवाद हमेशा देखा जा सकता है. फंड व स्टाफिंग के मामले में भी इसके अनेक झगड़े हैं. विवाद उत्पन्न करने वाले एवं कई प्रसंगों में पक्षपाती समाचार, कवरेज व एजेंडा युक्त न्यूज स्टोरी वाली बीबीसी की छवि समय-समय पर सामने आती रही है. बीबीसी में कार्य करने वाले कर्मचारी, उच्च स्तर के कई अधिकारी स्वयं इसके गैर जिम्मेदाराना व वामपंथ केंद्रित रवैये की निंदा करते नजर आते हैं.
लंबे समय तक बीबीसी में समाचार प्रस्तुतकर्ता पीटर इस मामले में कहते हैं कि “बीबीसी के मूल में, इसके डीएनए में, सोचने का एक तरीका है, जो दृढ़ता से वामपंथी है.”
एक अन्य बीबीसी प्रस्तुतकर्ता एंड्रयू मार ने कहा कि “बीबीसी निष्पक्ष या तटस्थ नहीं है.”
भारत के संदर्भ में देखा जाए तो 1940 में स्थापित “बीबीसी हिंदी” मीडिया चैनल भी इस मामले में अपनी मुख्य संस्था का अनुगामी लगता है. वाम विचार केंद्रित और घृणित मानसिकता के चलते बीबीसी ने भारत और भारतीयता व ना केवल सामाजिक, राजनीतिक, बल्कि पारिवारिक मूल्यों पर भी गलत रिपोर्टिंग द्वारा प्रहार के प्रयास समय-समय पर किए हैं. गलत नैरेटिव गढ़ने और अपने असामाजिक और अनैतिक हथकंडों द्वारा भारतीय संस्कृति को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के प्रयासों में बीबीसी लंबे समय से लगा रहा है. राष्ट्रीयता में विश्वास करने वाले व अपनी संस्कृति को गर्व से अपनाने वाले भारतीयों को उग्रवादी व चरमपंथी कहना भी इसकी दूषित मानसिकता का परिचायक है.
1968 -71 के बीच तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाया गया बेन इसका प्रमाण है. परंतु आश्चर्यजनक बात है कि वर्तमान में विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस नेतृत्व इसका समर्थन कर रहा है.
इसके अन्य भी कई उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहे हैं, जैसे बीबीसी के लिए तीस वर्षों तक कार्य करने वाले भारतीय पत्रकार मार्क टुली का त्यागपत्र व इस संबंध में भारत में उनसे हाथापाई के मामले. अपने कार्यकाल के दौरान दक्षिण एशिया की प्रमुख घटनाओं के साथ-साथ भारत-पाक संघर्ष, भोपाल गैस त्रासदी, ऑपरेशन ब्लूस्टार, जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को कवर करने वाले टुली ने 1994 में बीबीसी के तत्कालीन महानिदेशक जॉन बर्टी के साथ बहस के बाद बीबीसी को “भय द्वारा चलाने” व बीबीसी पर “अपारदर्शी संस्था” होने का आरोप लगाया था.
इसके अलावा 2008 के मुंबई हमले के बाद आरोपियों के लिए “आतंकवादी” के स्थान पर “बंदूकधारी” शब्द का प्रयोग किया गया. यह कृत्य बीबीसी के रवैया और इसकी पत्रकारिता में एकतरफा झुकाव को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है. इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग द्वारा अपराध को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता का गिरा हुआ स्तर बीबीसी में स्पष्ट देखा जा सकता है. हालांकि, हमारे ही देश में दीमक की तरह काम कर रहा एक तबका बीबीसी के इस प्रकार के प्रत्येक विवाद में बीबीसी के साथ ढाल की तरह खड़ा रहता है. और उनका इस तरह बचाव में आना कोई बड़ी बात भी नहीं, क्योंकि दोनों का एक ही लक्ष्य है, भारत व भारतीयता पर प्रहार. परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाए तो वर्ष भर पहले के एक प्रकरण से बीबीसी के इस रवैया को और अच्छे से समझा जा सकता है, जहां स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर हिन्दू संस्कृति पर प्रहार व पाकिस्तान प्रेम का राग अलापने वाले कुणाल कुमार और मुनव्वर फारुखी जैसे लोगों के बचाव में बीबीसी अपना पक्षपाती इंटरव्यू जारी करता है.
अभी कुछ समय पूर्व दीपावली पर घर की सफाई व महिलाओं के संबंध में बीबीसी का लेख भी सब ने देखा कि किस तरह हमारे उत्सवों का अवमूल्यन करने का कुत्सित प्रयास व भारतीय परम्परा और संस्कृति को कमतर बताने के लिए यह बिना तर्कों की बातें करने से भी बाज नहीं आता.
परंतु अब लोग बीबीसी के इन षड्यंत्रों को समझने लगे हैं, क्योंकि बीबीसी की इस पत्रकारिता के विपरीत विश्व भर में बनी भारत की लोकप्रिय छवि को लोग देख रहे हैं. चाहे वह विश्व की टॉप पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की बात हो, जलवायु परिवर्तन, विश्व शांति जैसे अनेक मुद्दों में भारत की अहम भूमिका हो या फिर जी-20 की अध्यक्षता. वैश्विक अर्थव्यवस्था, राजनीति व अन्य सभी पहलुओं में भारत के स्टैंड को लोग समझ रहे हैं. अतः बीबीसी एक बार फिर अपने एजेंडा के तहत एक नई डॉक्यूमेंट्री के साथ सामने आया है, ताकि आंतरिक अशांति द्वारा फिर से भारत की प्रगति से ध्यान भटकाया जा सके. और बीबीसी के मैदान में उतरते ही भारत के तमाम लेफ्ट- लिबरल गेंग व भारत विरोधी संगठन एक बार फिर इसके साथ मैदान में आ गए. प्रतिबंध के बाद भी टुकड़े टुकड़े समूह द्वारा विभिन्न विश्वविद्यालयो में यह दिखाई जा रही है.
डॉक्युमेंट्री का विषय लंबा है, उस पर अलग से चर्चा हो सकती है, फिर भी यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि हर बात में लोकतंत्र की बात करने वाले व लोकतंत्र को खतरे में बताने वाले भारत के ही कुछ लोग इस विषय पर देश में अशांति फैला रहे हैं. जिसे सुप्रीम कोर्ट सिरे से खारिज कर चुका है.
बात बीबीसी की है तो इसके पाकिस्तान प्रेम को भी नहीं भूला जा सकता. जब भी बीबीसी ने भारत के खिलाफ इस प्रकार की पत्रकारिता की कोशिश की है, पाकिस्तान हमेशा इसके साथ खड़ा दिखाई देता है. वर्तमान में जारी डॉक्युमेंट्री के संबंध में भी इसे देखा जा सकता है. जहां ब्रिटेन के प्रधानमंत्री व कई अन्य मंत्री और आम जनता बीबीसी, जो ब्रिटेन का प्रसारक होने के बावजूद भी उसकी निंदा कर चुके हैं. यूएस, फ्रांस व कई अन्य देश बीबीसी के इस कृत्य की निंदा करते नजर आ रहे हैं, वहीं पाकिस्तान इसके साथ खड़ा दिखाई देता है. और दूसरी तरफ बीबीसी भी अनेक विवादित मुद्दों पर पाकिस्तान के पक्ष में पत्रकारिता करता देखा जा सकता है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विषय में अमेरिका की मशहूर लेखिका और विशेषज्ञ क्रिस्टीन फेर ने बीबीसी के एक प्रोग्राम में पाकिस्तान को पूरी दुनिया में आग लगने वाला बताया तो बीबीसी एंकर भड़क गई व क्रिस्टीन फेर से ही भिड़ गई. आखिर यह रिश्ता क्या कहलाता है?
बीबीसी की भारत के प्रति यह सोच उसी औपनिवेशिक मानसिकता की ओर संकेत है जो भारत को लगातार मानसिक परतंत्रता की और धकेलने में लगी रहती है. सरकार बीबीसी पर भारत में प्रतिबन्ध लगाए यह सरकार व जागरूक समाज दोनों की जवाबदेही है कि भारत विरोधी विमर्श नहीं बनने दे.