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दिल्ली हिंसा – हिंसा में संपत्ति जली, पत्थर खाए, नुकसान उठाया और फिर बना दिए गए हत्यारे

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आशीष कुमार ‘अंशु’

दिल्ली दंगों के दौरान जिस प्रकार एक वर्ग द्वारा हथियारों का प्रयोग किया गया था, उससे स्पष्ट है कि दिल्ली दंगे सुनियोजित थे…..जांच के दौरान छतों पर मिली सामग्री (फाइल फोटो)

 

सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के खिलाफ चले मुस्लिम आंदोलन को दिल्ली अभी भूली नहीं होगी. यह आंदोलन लगातार अपनी हिंसक गतिविधियों की वजह से दिल्ली में खौफ का वातावरण पैदा करता रहा था. आंदोलन के नाम पर बहुसंख्यक आबादी की सड़क बंद करके बाहरी दिल्ली में अराजकता का माहौल पैदा करने की कोशिश की गई थी. कई लाख की आबादी का जनजीवन महीनों तक आंदोलन की वजह से अस्त व्यस्त रहा. बच्चों के स्कूल छूटे और समय पर ऑफिस न पहुंचने की वजह से कई लोगों की नौकरी गई.

मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हुए धरने में सबसे अधिक चर्चित दिल्ली के शाहीन बाग का धरना रहा था. वरिष्ठ पत्रकार अजय सेतिया के अनुसार – ”जब शाहीन बाग के धरने से बात नहीं बनी तो दिल्ली में दंगे भड़काए गए. दंगे भड़काने वाले लोग कौन थे, इस संबंध में पुलिस ने भी काफी खुलासे कर दिये हैं.”

शाहीन बाग के धरने से ही एक नाम सफूरा जर्गर का चर्चित हुआ. जो काफी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी कर रहीं थी. उनकी गिरफ्तारी के बाद यह बात सामने आई कि वे गर्भवती हैं. उन्हें इस आधार पर जमानत भी मिल गई. वहीं एक उत्तम चन्द्र मिश्रा हैं, जिनकी दंगों में दुकान जला दी गई. घर पर गोलियां चलाई गईं. इसके बाद उन्हें दंगाई बताकर हत्या के आरोप में जेल भेज दिया गया. उनकी बेटी 19 वर्षीय बेटी की मृत्यु हो गई, पर उन्हें जमानत नहीं मिली.

मीडिया के एक खास वर्ग में सफूरा जर्गर सुर्खियों में बनी रहीं. बताया गया कि वह गर्भवती हैं. इस बात को बार-बार बोला गया. इस बात को भुलाकर कि पहले भी जेल के अंदर कई गर्भवती महिलाओं ने स्वस्थ बच्चों को जन्म दिया है और परिणाम यह हुआ कि विशेष परिस्थितियों में सफूरा को जमानत दे दी गई. दिल्ली में बीते दस सालों में 44 बच्चों को मांओं ने जेल के अंदर जन्म दिया, लेकिन वामपंथी पत्रकारों के ईको सिस्टम का जोर था कि विशेष मानवीय परिस्थितियों का हवाला देते हुए सफूरा को जमानत दे दी गई. यह एक ऐसी जमानत थी, जो यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून) की किसी गर्भवती आरोपी को न पहले मिली थी और जमानत देते हुए इस बात को भी सुनिश्चित किया गया कि इस मामले का हवाला देकर आगे भी ऐसे मामले में कोई जमानत नहीं दी जा सकेगी.

सबकी किस्मत सफूरा जैसी नहीं होती. जो यूएपीए में गिरफ्तार हो. जो भीड़ को उकसाती हुई देखी गई हो और वामपंथी पत्रकारों के ईको सिस्टम के दबाव में वह जमानत पा जाए. निश्चित तौर पर नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली दंगों के एक आरोपी 49 वर्षीय उत्तम चन्द्र मिश्रा सफूरा जितने सौभाग्यशाली तो बिल्कुल नहीं थे. यमुना विहार सड़क पर उनकी छोटी सी बिजली की दुकान थी. जो दंगे की भेंट चढ़ गई. जो दंगाइयों से अपनी दुकान नहीं बचा पाए, उन्हें इस उम्र में दंगों की क्या सूझेगी? वे मुश्किल से अपना परिवार चला पाते हैं. उनके परिवार के लोग ही बता रहे हैं कि 24-25 फरवरी को पूरा परिवार जान बचाकर घर में छिपा हुआ था. उनके कॉल डिटेल रिकॉर्ड में भी यह बात आ जाएगी. उनके घर पर ईंट और पत्थर फैंके जा रहे थे. इस बात की शिनाख्त उनके घर जाकर कोई भी कर सकता है. घर पर ईंट और पत्थर के निशान मिल जाएंगे. 24 फरवरी को घर पर गोलियां भी चलाई गईं.

अचानक 09 अप्रैल को इनके घर एक नोटिस आया. जिसे देखने के बाद उत्तम चन्द्र मिश्रा ने इसे सामान्य पूछताछ समझा और द्वारका क्राइम ब्रांच आफिस पहुंच गए. वहां पहुंचने के बाद उनसे बिना कोई बातचीत किए, जमीन पर दस-बारह घंटे बिठाया गया. फिर औपचारिक थोड़ी बात करके सीधा उन्हें मंडोली जेल भेज दिया गया. उन्हें घर पर फोन तक नहीं करने दिया गया.

उसके बाद उन्हें बताया गया कि उनका नाम परवेज आलम हत्या कांड में शामिल कर लिया गया है. जेल भेजे जाने वालों में मिश्रा अकेले नहीं थे. उनके साथ उनके आस-पास के 15 अन्य लोगों के नाम भी हत्याकांड में डाले गए हैं.

उत्तम चन्द्र मिश्रा जेल भेज दिए गए हैं. इस दुख को उनकी 19 वर्षीय बेटी क्षमा मिश्रा सह नहीं पाई. 12 जून को उसका निधन हो गया. कैसे बदनसीब बाप हैं मिश्रा कि उन्हें अपनी बेटी के अंतिम दर्शन का अवसर भी नहीं मिला. इसकी वजह साफ तौर पर यही जान पड़ती है कि उनके पीछे सफूरा जैसी प्रतिबद्ध मीडिया आर्मी नहीं लगी थी. जो सुबह-शाम यह बता पाती कि उनकी बेटी का निधन हुआ है, उन्हें मानवता के आधार पर तो जमानत मिलनी ही चाहिए. वे अंतिम बार नहीं देख पाए अपनी बेटी को. उनके परिवार को यकीन है कि वे आज नहीं तो कल इस पूरे मामले से बरी होकर निकलेंगे. हो सकता है कि जेल से आने के बाद जेल में बिताए गए दुःख के पलों वे भुला भी दें, लेकिन बेटी को खोने का दर्द वे कैसे कम कर पाएंगे?

मिश्रा को अपने परिवार से छह घंटे के लिए मिलने की इजाजत 30 जून को मिली, लेकिन वह नहीं गए क्योंकि जिस बेटी को अंतिम बार देखना चाहते थे, वह तो बहुत दूर जा चुकी थी.

दंगों के दौरान जिस परवेज आलम की हत्या के आरोप में मिश्रा को जेल में बंद रखा गया है, उनके परिवार के लोग बार-बार कहानी बदल रहे हैं. जिस कहानी के आधार पर 16 लोगों की गिरफ्तारी हुई है, उन्हें पढ़कर ही लगता है कि ये सारे नाम जो खुद दंगा पीड़ित हैं, उन्हें सिर्फ वैचारिक रंजिश की वजह से आरोपी बना दिया गया है. सभी सोलह परिवारों की न्यायालय में पूरी आस्था है और उन्हें विश्वास है कि न्यायालय से उन्हें न्याय मिलेगा.

जिन सोलह लोगों को परवेज आलम की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, यदि एक-एक कर उनकी कहानी देखी जाए तो ऐसा लगता है कि निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले ये सोलह आरोपी, वास्तव में आरोपी नहीं, बल्कि पीड़ित हैं. सिस्टम के विक्टिम. आरोपी बनाए गए विरेन्द्र चौहान-अतुल चौहान के पिताजी को पैरालिसिस है. दोनों भाई जेल में हैं तो चिन्ता यह भी है कि घर में पिता जी को कौन देख रहा होगा? लवी चौहान कोविड पोजिटिव है. पिता की सेहत ठीक नहीं रहती. इसलिए उनके गत्ते का व्यावसाय लवी ही संभाल रहा था. इस वक्त वह जेल में है. उसकी जमानत नहीं हो रही. एक तो व्यावसाय पर कोविड19 की मार पहले से पड़ रही थी. अब लवी चौधरी भी कोविड का शिकार हो गया है. उसे परिवार तक से नहीं मिलने दिया जा रहा. आरोपी जयवीर तोमर की गाड़ी जली, मेडिकल स्टोर जला, घर जला दिया गया. वे दंगा पीड़ित हैं, लेकिन हत्या के इस मामले में उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. राजपाल त्यागी की पत्नी किडनी की मरीज हैं. उन्हें लेकर नियमित राममनोहर लोहिया अस्पताल जाना होता है. जहां उनका ईलाज चल रहा है. बेटी का ईलाज मनोचिकित्सक के पास चल रहा है. उनकी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. वे एक निजी स्कूल में शिक्षक हैं. इस वक्त वे जेल में हैं और परिवार अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. हरीओम मिश्रा का एक छोटा सा ढाबा था यमुना विहार रोड पर. जिसे जला दिया गया. जब गिरफ्तार हुए थे, उस वक्त स्वस्थ थे, जब पेशी के लिए उन्हें लाया गया तो उनके सिर पर पट्टी लगी थी. ऐसा लग रहा था, जैसे उन्हें मारा-पीटा गया है. नरेश त्यागी की दंगे में बाइक जला दी गई.

सभी 16 आरोपियों की पीड़ा देखकर यही लगता है कि ये सभी निर्दोष साबित होकर बाहर आएंगे. लेकिन बड़ा सवाल अब भी यह बना हुआ है कि इन आरोपियों का जो नुकसान हुआ है, उसे क्या व्यवस्था लौटा सकती है? क्षमा मिश्रा तो 19 साल की ही उम्र में सबको छोड़ कर चली गई.

पाञ्चजन्य

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