लोकेन्द्र सिंह
स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी हैं, जिन्होंने हिमालय की कंदराओं में जाकर स्वयं के मोक्ष के प्रयास नहीं किये. बल्कि भारत के उत्थान के लिए अपना जीवन खपा दिया. विश्व धर्म सम्मलेन के मंच से दुनिया को भारत के ‘स्व’ से परिचित कराने का सामर्थ्य स्वामी विवेकानंद में ही था, क्योंकि विवेकानंद अपनी मातृभूमि भारत से असीम प्रेम करते थे. भारत और उसकी उदात्त संस्कृति के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा थी. समाज में ऐसे अनेक लोग हैं जो स्वामी जी या फिर अन्य महान आत्माओं के जीवन से प्रेरणा लेकर भारत की सेवा का संकल्प लेते हैं. रामजी की गिलहरी के भांति वे भी भारत निर्माण के पुनीत कार्य में अपना योगदान देना चाहते हैं. परन्तु भारत को जानते नहीं, इसलिए उनका गिलहरी योगदान भी ठीक दिशा में नहीं होता.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, चिन्तक एवं वर्तमान में सह सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य अक्सर कहते हैं कि “भारत को समझने के लिए चार बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है. सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ”. भारत के निर्माण में जो भी कोई अपना योगदान देना चाहता है, उसे पहले इन बातों को अपने जीवन में उतारना होगा. भारत को मानेंगे नहीं, तो उसकी विरासत पर विश्वास और गौरव नहीं होगा. भारत को जानेंगे नहीं तो उसके लिए क्या करना है, क्या करने की आवश्यकता है, यह ध्यान ही नहीं आएगा. भारत के बनेंगे नहीं तो बाहरी मन से भारत को कैसे बना पाएंगे? भारत को बनाना है तो भारत का भक्त बनना होगा. उसके प्रति अगाध श्रद्धा मन में उत्पन्न करनी होगी. स्वामी विवेकानंद भारत माता के ऐसे ही बेटे थे, जो उनके एक-एक धूलि कण को चन्दन की तरह माथे पर लपेटते थे. उनके लिए भारत का कंकर-कंकर शंकर था. उन्होंने स्वयं कहा है – “पश्चिम में आने से पहले मैं भारत से केवल प्रेम करता था, परंतु अब (विदेश से लौटते समय) मुझे प्रतीत होता है कि भारत की धूलि तक मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा तक मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए पुण्यभूमि है, तीर्थ स्थान है”.
भारत के बाहर जब स्वामी विवेकानंद ने अपना महत्वपूर्ण समय बिताया, तब उन्होंने दुनिया की नज़र से भारत को देखा, दुनिया की नज़र में भारत को देखा. भारत के बारे में बनाई गई मिथ्या प्रतिमा खंड-खंड हो गई. भारत का अप्रतिम सौंदर्य उनके सामने प्रकट हुआ. दुनिया की संस्कृतियों के उथलेपन ने उन्हें सिन्धु सागर की अथाह गहराई दिखा दी. एक महान आत्मा ही लोकप्रियता और आकर्षण के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर भी विनम्रता से अपनी गलती को स्वीकार कर सकती है. स्वामी विवेकानंद लिखते हैं – “हम सभी भारत के पतन के बारे में काफी कुछ सुनते हैं. कभी मैं भी इस पर विश्वास करता था. मगर आज अनुभव की दृढ़ भूमि पर खड़े होकर दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त करके और सर्वोपरि अन्य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्यक्ष रूप से उचित प्रकाश तथा छायाओं में देखकर, मैं विनम्रता के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं गलत था. हे आर्यों के पावन देश! तू कभी पतित नहीं हुआ. राजदंड टूटते रहे और फेंके जाते रहे, शक्ति की गेंद एक हाथ से दूसरे में उछलती रही, पर भारत में दरबारों तथा राजाओं का प्रभाव सदा अल्प लोगों को ही छू सका – उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुसरण करने के लिए मुक्त रही है और राष्ट्रीय जीवनधारा कभी मंद तथा अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल तथा प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है”.
स्वामी विवेकानंद की यह स्वीकारोक्ति उन बुद्धिजीवियों के लिए आईना बन सकती है जो भारत के सन्दर्भ में अपने पूर्वाग्रहों को पकड़ कर बैठे हुए हैं. भारत में कई विद्वान तो ऐसे हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात तो करते हैं, लेकिन स्वयं विज्ञान को स्वीकार नहीं करते. यदि उनके मतानुसार विज्ञान की खोज का परिणाम नहीं आया तो उस परिणाम को ही नहीं मानते. उनकी ऐसी मति इसलिए भी है क्योंकि भारत के प्रति उनके मन में श्रद्धा नहीं है. उन्होंने न तो मन से भारत को माना है और न ही वे स्वाभाव से भारतीय हैं. अन्यथा क्या कारण हैं कि राखीगढ़ी और सिनौली की वैज्ञानिक खोजों के बाद भी उनका घोड़ा उसी झूठ पर अड़ा है कि भारत में आर्य बाहर से आये. ऐसा क्यों न माना जाए कि वे इस झूठ पर अभी भी इसलिए टिके हैं क्योंकि वे भारत को तोड़ने के लिए इस झूठ को लेकर आये थे. स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि मैं गलत था, हे आर्यों के देश तू कभी पतित नहीं हुआ. जबकि हमारे आज के विद्वान मानते हैं कि भारत तो अंधकार में था, उसको तो अन्य सभ्यताओं ने उजाला दिखाया है. भारत के स्वर्णकाल पर उनको भरोसा ही नहीं. भारत के लिए उपयोग किए जाने वाले विशेषण ‘विश्वगुरु’ को हेय दृष्टि से देखते हैं. इस विशेषण को वे उपहास में उड़ाना पसंद करते हैं क्योंकि भारत के प्रति उनका मन भक्ति से भरा हुआ नहीं है. भारत के प्रति मन में भक्ति होती है, तब स्वामी विवेकानंद भी अपने पूर्व मत में सुधार करने के लिए उत्साहित होते हैं.
आज जब हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद ने भारत माता के अनेक सपूतों के मन में संघर्ष करने की प्रेरणा पैदा की. क्रांतिपथ पर स्वयं को समर्पित करने की प्रेरणा जगाई. उनके मन इस प्रकार तैयार किये कि देवताओं की उपासना छोड़कर भारत माता की भक्ति में लीन हो जाएँ. उन्होंने दृढ़ होकर कहा – “आगामी 50 वर्षों के लिए हमारा केवल एक ही विचार केंद्र होगा, और वह है हमारी महान मातृभूमि भारत. दूसरे से व्यर्थ के देवताओं को उस समय तक के लिए हमारे मन से लुप्त हो जाने दो. हमारा भारत, हमारा राष्ट्र- केवल यही एक देवता है, जो जाग रहा है, जिसके हर जगह हाथ हैं, हर जगह पैर हैं, हर जगह कान हैं – जो सब वस्तुओं में व्याप्त है. दूसरे सब देवता सो रहे हैं. हम क्यों इन व्यर्थ के देवताओं के पीछे दौड़ें, और उस देवता की- उस विराट की – पूजा क्यों न करें, जिसे हम अपने चारों ओर देख रहे हैं. जब हम उसकी पूजा कर लेंगे तभी हम सभी देवताओं की पूजा करने योग्य बनेंगे”.
नि:संदेह, इस आह्वान के पीछे स्वामी विवेकानंद का उद्देश्य यही था कि भारतीय मन, बाहरी तंत्र के साथ चल रहे भारत के संघर्ष और उससे उपजी उसकी वेदना के साथ एकात्म हों. भारत की स्थिति को समझें. जाग्रत देवता भारत की पूजा से उनका अभिप्राय भारत की स्वतंत्रता के लिए स्वयं को होम कर देने से रहा होगा. भारत स्वतंत्र होगा, तब ही अपनी संस्कृति और उपासना पद्धति का पालन कर पाएगा. अन्यथा तो विधर्मी ताकतें जोर-जबरदस्ती और छल-कपट से अपना धर्म एवं उपासना पद्धति भारत की संतति पर थोप ही ही रही है. भारत स्वतंत्र न हुआ, तब कहाँ हम अपने देवताओं की पूजा करने के योग्य रह जाएंगे.
स्मरण रहे कि अनेक प्रकार के आक्रमण झेलने के बाद भी भारत आज भी अपनी जड़ों के साथ खड़ा है तो उसका कारण स्वामी विवेकानंद जैसी महान आत्माएं हैं, जिन्होंने भारत को भारत के दृष्टिकोण से देखा और भारतीय मनों में भारत के प्रति भक्ति पैदा की.
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं.)