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फिल्मी दुनिया में एकाधिकार, भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और अवसाद – 3

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– प्रभाकर शुक्ला

पूर्व के दो लेख में हमने पढ़ा कि आजादी से पूर्व, आजादी के पश्चात और 80 के दशक के बाद के बीस वर्षों में फिल्म जगत का कैसे विकास हुआ, और किस प्रकार धीरे-धीरे फिल्मी दुनिया में एकाधिकार, भाई भतीजावाद, अवसरवादिता और अवसाद भी बढ़ता गया. इंडस्ट्री में माफिया सहित चंद लोगों का कब्जा होता चला गया. अब वर्ष 2000 से आगे की कहानी…..

सन् २००० के बाद
आज से चालीस-पचास साल पहले जो परिवार या लोग बाहर से इस दुनिया में नाम बनाने आए थे. अब वही लोग अपने बेटे बेटियों को लांच करने लगे. पहले कुछ फिल्मों में काम कराओ नहीं तो फिर प्रोडक्शन हाउस खोल दो. कहीं फीता काटने के लिए, किसी टीवी रियलिटी शो में जज बनने के लिए या फिर टीवी सीरियल का निर्माता बनने के लायक बैकग्राउंड तो बन ही गया है. वास्तव में यह सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वालों के लिए एकाधिकार ही तो है. किसी भी बाहरी आदमी को घुसने मत दो नहीं तो वह तुम्हारा काम छीन लेगा. अगर वह टैलेंटेड निकल गया तो तुम बेकार हो जाओगे. ऐसी बातें मन में लेकर परिवारवाद और अवसरवाद का नया गेम शुरू हो गया.

अच्छा चलिए मान लीजिये की आप बहुत टैलेंटेड हैं और आपने अपने लिए या अपने किसी के लिए कोई फिल्म खुद ही बना दी, आप रिलीज़ करने के लिए फिर इन्हीं के ग्रुप के किसी आदमी के पास जाओगे तो फिल्म को रिलीज़ नहीं होने देगा, रिलीज़ अगर हो गयी तो चलने नहीं देगा, अगर कुछ चल गयी तो किसी अवार्ड में शामिल नहीं होने देगा और न ही अवार्ड मिलेगा. फिर आप धीरे से साइड लाइन कर दिए जाओगे. फ़िल्मी दुनिया के धुरंधर धीरे से आ कर कहेंगे कि यहां इंडस्ट्री में अब या तो शाहरुख़ बिकता है या फिर सेक्स. इसीलिए महेश भट्ट ने सी ग्रेड सेक्स को ए ग्रेड में बना कर बेचना शुरू कर दिया. अब लोग सनी देओल नहीं सनी लिओनी के पीछे पड़ गए हैं.

यहीं पर अब धीरे धीरे कॉर्पोरेट स्टूडियोज की शुरुआत होती है और इनका ध्यान इसी पर था कि अपनी बॉन्ड इक्विटी कैसे बढ़ाएं. फिर क्या था, बड़े-बड़े स्टार और नामों को बड़े-बड़े दाम पर साइन कर लिया गया. जो निर्माता किसी स्टार को अगर एक करोड़ देता था, इन्होंने उसे दस करोड़ में साइन कर लिया. धीरे-धीरे जितने भी निर्माता थे, उन्हें फिल्म बनाने के लिए आर्टिस्ट या स्टार मिलने बंद हो गए और ले दे कर वही चार पांच बड़े बैनर बचे जो अपनी फिल्म बना कॉर्पोरेट्स और स्टूडियोज को बेचने लगे. इन कॉर्पोरेट्स ने सिर्फ नाम पर पैसे देकर ऐसी-ऐसी फिल्में बनवाईं, कुछ फ्लॉप हो गयीं और कुछ जो अपनी पोस्टर बैनर का भी खर्च बमुश्किल निकल पाईं जैसे बॉम्बे वेलवेट, जोकर, जानेमन, बेशरम, राम गोपाल वर्मा की आग, किडनैप और भी बहुत सारी. एकाधिकार और अवसरवाद का यह सबसे सही उदाहरण है. इन स्टूडियोज का ज्यादातर पैसा स्टार्स ने खींच लिया, पांच छह बड़े बैनर ने हजम कर लिया. इस वजह से कई सारे कॉर्पोरेट्स लम्बे घाटे में चले गए और लगभग बंद से हो गए.

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इसी समय में सिंगल स्क्रीन सिनेमा की जगह धीरे-धीरे मल्टीप्लेक्स ने ले ली और स्टार्स के सेक्रेटरीज की जगह टैलेंट मैनेजमेंट एजेंसीज लेते गए. फिल्म की रिलीज़ के समय तो एजेंसी से पूछे बिना यह स्टार्स मुस्कुराते भी नहीं हैं, बस चार-पांच सवाल जवाब रट लेते हैं और वही दोहराते रहते हैं. यह टैलेंट मैनेजमेंट एजेंसी कुछ ख़ास स्टार को प्रमोट करने, उनके लिए कॉर्पोरेट की दुनिया से बड़ी-बड़ी डील तलाशने और कुछ नए उभरते हुए टैलेंट पर एकाधिकार रखने का पूरा इंतज़ाम है. पहले भी नए टैलेंट पर लोगों ने एकाधिकार रखने के बहुत सारे प्रयास किये हैं. धर्मेंद्र को फिल्म साइन करने के पहले अर्जुन हिंगोरानी ने कॉन्ट्रैक्ट साइन कराया कि मेरी फिल्मों के अलावा भविष्य में कुछ साल तक जितनी फ़िल्में करोगे, उसमें आधा पैसा मुझे मिलेगा. बाद में जब उनके दोस्तों ने उनको बहुत समझाया तो धर्मेंद्र ने कहा कि मैं तो फ़िल्में करना चाहता हूँ, फ़िल्में करता रहूँगा, यह ले जाए पैसा, मेरी किस्मत में होगा तो और आ जाएगा. ऐसा ही हेलेन के साथ हुआ था. माधुरी दीक्षित, मनीषा कोइराला, महिमा चौधरी और कई एक्टर्स के साथ ऐसा ही कॉन्ट्रैक्ट किया था कि हमारी तीन फिल्म या पांच साल तक बाहर जो भी काम करना है, उस आमदनी का एक हिस्सा हमें देना है. इस पर महिमा चौधरी ने परदेस फिल्म के बाद विद्रोह कर दिया और बड़ा हंगामा भी हुआ था.

कुछ ऐसे ही एकाधिकार वाले कॉन्ट्रैक्ट आज कल यह कास्टिंग और टैलेंट मैनेजमेंट कंपनियां भी साइन करवाती हैं, नए और उभरते कलाकारों से. यही काम सीरियल्स में भी होता है कि लीड एक्टर चैनल के कॉन्ट्रैक्ट में होता है और चैनल के द्वारा ही वह कहीं बाहर काम कर सकता है, चैनल हर आमदनी में अपना हिस्सा रखता है. ऐसा ही कुछ एकाधिकार म्यूजिक कंपनियां नए सिंगर और म्यूजिक डायरेक्टर के साथ कर रही हैं.
फ़िल्मी दुनिया, अगर देखा जाए तो एक अवसरवादी दुनिया है. यहां पर हर आदमी इस ताक में रहता है कि मैं कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा बटोर लूँ, क्या पता कल हो न हो. कुछ गिनती के लोगों को छोड़ कर बाकी सब एक दूसरे के सर पर पैर रख कर आगे जाना चाहते हैं. यही अवसरवादिता धीरे-धीरे वंशवाद, एकाधिकारवाद और जो इन सब में सफल नहीं हो पाते उनके लिए अवसाद में परिवर्तित है. यह एक गलाकाट दुनिया है, यहां वही रह सकता है जो लड़ना जानता हो, जो अंदर से मज़बूत हो, जो सफलता का आनंद तो ले लेकिन असफलता को भी गले लगाने को तैयार रहे.

यहां हर हफ्ते किसी की किस्मत चमकती है, अब वह चमक आप कब तक बरकरार रख पाते हैं वह आपके ऊपर है. यहां आदमी अपने टैलेंट की वजह से शायद दो चार साल चल सकता है, लेकिन अपने व्यहार और संबंधों के दम पर चालीस साल निकाल सकता है. भले ही उसका टैलेंट ज्यादा हो या बहुत कम हो. जितेन्द्र और राजेंद्र कुमार ऐसे ही उदाहरण हैं, उन्होंने अपने व्यवहार और मेहनत से उसे अर्जित किया और लम्बे समय तक सफल रहे. इसके साथ ही बहुत से ऐसे कलाकार मिलेंगे जो धूमकेतु की तरह आए, लेकिन नाम और सफलता को संभाल नहीं सके और समय की रेत में मिट गए. एक और ख़ास बात जिसने समय को महत्व दिया उसकी इज्जत की, समय ने भी उसका साथ दिया, अमिताभ बच्चन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. जिसने समय की परवाह नहीं की तो समय भी उसे भूल गया.

अभी कुछ दिनों पहले युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने कथित तौर पर अवसाद की वजह से आत्महत्या कर ली. वैसे तो इसके पीछे बहुत से कारण बताए जाते हैं, जिसमे उनका बड़े बैनर द्वारा बायकॉट, उनकी फिल्में छीन लेना या फिर प्रेम प्रसंग. अब सच्चाई तो जांच के बाद ही पता चलेगी. लेकिन इतना अवश्य है कि व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता से इंकार नहीं किया जा सकता. अवसाद और निराशा की वजह से बहुत से लोगों ने आत्महत्या की है. सिल्क स्मिता (जिनकी जीवनी पर द डर्टी पिक्चर बनी थी), मनमोहन देसाई, कुलराज रंधावा, कुशल पंजाबी, प्रत्युषा बनर्जी, नफीसा जोसफ, जिआ खान, विवेका बाबाजी, कुणाल सिंह आदि बहुत से नाम हैं. इनमें सफल भी हैं और असफल भी. कुछ ऐसे भी स्टार है, जिनकी मृत्यु भी आत्महत्या वाली मानी गई जैसे दिव्या भारती, परवीन बॉबी.

इस दुनिया में सारे खानदानी या भाई-भतीजावाद से आये सितारे सफल ही हो गए, ऐसी भी बात नहीं है. बहुत से ऐसे भी कलाकार हैं जो बहुत प्रयास करने के बाद भी अपनी बड़ी पहचान या बड़ा नाम नहीं बना पाए जैसे पुरु राजकुमार (राजकुमार का पुत्र), उदय चोपड़ा (यश चोपड़ा के पुत्र), हरमन बवेजा (हैरी बवेजा का पुत्र), फरदीन खान (फ़िरोज़ खान का पुत्र), ज़ायेद खान (संजय खान का पुत्र), शमिता शेट्टी (शिल्पा शेट्टी की बहन), प्रतीक बब्बर (राज बब्बर- स्मिता पाटिल का पुत्र), व अन्य.

मायानगरी में सफलता का कोई फिक्स फार्मूला नहीं है, लेकिन समय की पाबंदी, सही व्यवहार और अपने गुणों को और अर्जित करते जाना सफलता के मंत्र ज़रूर हैं. इतना ही ज़रूरी है सफलता को सर पर न लेना और असफलता को दिल पर ना लेना. आप सेंचुरी तभी बना सकते हैं, जब तक आप क्रीज़ पर टिके हैं. इसलिए जीवन की पिच पर टिके रहिये. अगर कभी असफलता का बाउंसर आए तो झुक कर झेल लीजिये. क्या पता अगली गेंद आपकी मनपसंद हो और आप उसे बॉउंड्री के बाहर भेज दें. अपने नैसर्गिक गुणों के साथ-साथ अर्जित गुण भी सहेजें और अपनी पात्रता बढ़ाएं ताकि जब आपको भगवान छप्पर फाड़ के दे तो आप उसे संभालने के क़ाबिल हों.

(लेखक निर्देशक व सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)

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