पराली की खाद के उपयोग से फसल की पैदावार में चार से नौ फीसदी की बढ़ोत्तरी
शिमला (विसंकें). उत्तर भारत बढ़ते प्रदूषण की चपेट में हैं. विशेषकर राजधानी क्षेत्र दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते प्रदूषण के कारण समस्या गंभीर बनी हुई है. इसका मुख्य कारण पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा में किसानों द्वारा फसल कटाई के बाद व्यर्थ बची पराली को जलाया जाना बताया जा रहा है, हालांकि बढ़ते प्रदूषण के अन्य कारण भी हैं.
बीते कुछ वर्षों से पराली जलाने में बढ़ोतरी हुई है, जिस कारण लगातार दिल्ली एनसीआर प्रदूषण की चपेट में आ रहा है. इसे लेकर प्रशासन, सरकार, न्यायालय तक गंभीर हैं. पर, समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा.
समस्या के समाधान को लेकर हिमाचल प्रदेश का पराली मॉडल कारगर हो सकता है. किसानों ने पारंपरिक खेती और हिमाचल स्थित पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय ने पराली के बेहतरीन उपयोग की दिशा सुनिश्चित कर समाधान की राह दिखाई है.
भले ही हिमाचल प्रदेश में धान की खेती ज्यादा नहीं होती है. लेकिन बावजूद इसके धान की फसल के बाद बचने वाली पराली का सदुपयोग करना इनसे बेहतर कोई नहीं जानता है. स्थानीय किसान धान की कटाई के बाद बचने वाली पराली को आग की भेंट नहीं चढ़ाते हैं, बल्कि वह इसका उपयोग पशुचारे, मशरूम उत्पादन, कंपोस्ट खाद और पैकिंग जैसे कामों में करते हैं. इसके अलावा हिमाचल में पराली से अब बायोडीजल बनाने का प्रयोग भी किया जा रहा है.
कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर में पराली को लेकर हुए शोध में कई बातें सामने आई हैं. कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार पराली और फलों के मिश्रण से गाय और भैंस के लिए पौष्टिक आहार तैयार किया जा सकता है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एच.के. चौधरी ने बताया कि सेब, स्ट्रॉबेरी या फिर सिट्रक (विटामिन सी युक्त) फलों के व्यर्थ पदार्थ को पराली में मिला कर पशुओं के लिए पौष्टिक आहार तैयार किया जा सकता है. यही नहीं पराली से खाद भी बनाई जा सकती है. इससे फसलों का उत्पादन भी बढ़ता है.
प्रो. चौधरी ने कहा कि धान की पराली से खाद तैयार करने में करीब 45 दिन लगते हैं. यह खाद फसल के उत्पादन को 4 से 9 प्रतिशत तक बढ़ा देती है. इसका उपयोग केंचुआ खाद तैयार करने के लिए भी किया जा सकता है. कृषि विश्वविद्यालय ने पंजाब, हरियाणा और अन्य राज्यों के किसानों को हिमाचल के किसानों द्वारा अपनाये स्ट्रॉ मैनेजमेंट (पराली प्रबंधन) के मॉडल को अपने की सलाह दी है ताकि वे कुशलता से पराली का सदुपयोग कर सकें और पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने में मदद कर सकें. इसके अलावा जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर पराली से बायोडीजल तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. फिलहाल यह तकनीक महंगी बताई जा रही है, वैज्ञानिक इसकी लागत कम करने में लगे हैं. वैज्ञानिकों को इसमें सफलता मिलती है तो निश्चित रूप से यह वायु प्रदूषण को कम करने में ज्यादा मददगार होगा.