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स्‍मृतियों के मोती – यथावत है आपातकाल का दर्द; आज की पीढ़ी भी समझे!

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

सुबह का समय था, समूचे देश ने रेडियो पर तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना, ‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है.’ लेकिन लोग सुबह जब तक सोकर उठते और अपनी प्रधानमंत्री को रेडियो पर सुनते, इससे पहले आधी रात से ही देश भर से विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं थीं.  25 जून, 1975 की अंधेरी रात से जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे दिग्‍गज नेताओं को ही नहीं, हर उस नेता को जेल में डाला जा रहा था, जिनसे जरा भी लगता कि यह कांग्रेस की केंद्रीय सत्‍ता और इंदिरा गांधी को चुनौती दे सकते हैं. इसके परिणाम स्‍वरूप एक समय ऐसा भी आया कि जेलों की काल कोठरियों में दो गज जमीन भी कम पड़ गई थी.

आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे. अभिव्यक्ति का कोई अधिकार शेष नहीं रह गया था, जिसने भी थोड़ी ऊंची आवाज की या जिस पर भी इस प्रकार का शक आया, उसे सीधा जेल में ही जाना था, न वकील, न दलील और न कोई सुनवाई. कह सकते हैं कि लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था. 25 जून की रात से ही प्रेस की सेंसरशिप लागू थी. इस दौर की अनेक कहानियां हैं, जिन्‍हें सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते है, बदन में से पसीना स्‍वत: बहने लगता है और आँखें न चाहते हुए भी लाल और गीली हो जाती हैं.

आपातकाल के दौर का यह अनुभव है मध्‍यप्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री सुन्‍दल लाल पटवा जी का. आज फिर भले ही देह रूप में हमारे सामने न हों, किंतु जब-जब भी आपातकाल का जिक्र आएगा, उनके विचारों से हम उन्‍हें अपने सामने पाएंगे.

वस्‍तुत: आपातकाल का कालखण्‍ड भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्‍याय है, जिसमें जब भी मध्‍य प्रदेश का कोई संदर्भ आएगा तब-तब पटवा जी याद आएंगे. आपातकालीन संघर्ष को लेकर जब मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा से बात की गई थी, तब वे अंतस में कहीं गहरे उतर जाते हैं…थोड़ी देर मौन रहते हैं. फिर बहुत धीमी आवाज में अपनी स्‍मृतियों में गोते लगाते हुए आपातकालीन संघर्ष को बताना शुरू करते हैं. वे बताते हैं कि आपातकाल के पहले दिन ही रात्रि को मंदसौर में उन्हें पकड़ लिया गया था. मंदसौर जेल में चार दिन रखने के बाद उन्हें इंदौर भेज दिया गया. जेल के अंदर मुझे कई प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव हुए. बड़े-बड़े नेताओं की सही पहचान उन 19 महीनों में हो गई जो स्वयं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते थे.

यह देखकर आश्चर्य होता था कि कई लोग भयभीत होकर राजनीति छोड़ने की बात करते थे. उन्हें यह विश्वास ही नहीं था कि जेल से बाहर जाने का अवसर कभी मिलेगा. ऐसे लोग मुझसे कहा करते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी के पास लिखकर आवेदन भिजवा देते हैं कि वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे. उन्हें छोड़ दिया जाए. उन्हें भय था कि जेल में पुलिस उन्हें मार डालेगी और उनकी हड्डियां ही बाहर निकलेंगी.

संघ के तरुण स्‍वयंसेवकों का उत्‍साह और बालपन हम जैसे सभी कार्यकताओं को त्याग और समर्पण की प्रेरणा देता

स्‍व. पटवा जी ने आपातकाल पर दिए अपने साक्षात्‍कार में लेखक को तत्‍कालीन समय में बताया कि  ‘ऐसे विपरीत कालखंड में संघ के तरुण स्वयंसेवकों का उत्साह देखते ही बनता था. वे बेफ्रिक होकर जेल में ही शाखा लगाते और कबड्डी, बैडमिंटन, बालीबॉल जैसे खेल खेलते थे. उनका बालपन हम जैसे सभी कार्यकताओं को त्याग और समर्पण की प्रेरणा देने वाला रहा. जब जेल में संघ प्रार्थना ”महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते” का सामूहिक स्‍वर गूंजता तो सारे दुख-दर्द दूर हो जाते थे. यही लगता कि ये कंटक दिन जरूर दूर होंगे. हमारा ये जीवन तो मातृभूमि की सेवा के लिए है, हमने तो स्‍वयं से ही अपने लिए ये जीवन चुना है, इसलिए डटे रहना है. अन्‍याय के विरुद्ध अड़े रहना है. जब तक इंदिरा जी अपना ये देश पर थोपा हुआ आपातकाल वापिस नहीं ले लेती, हमें जेल में रहते हुए जागरण की अलख जगाते रहना है.

मुझे जेल जाने का कभी दुख नहीं रहा. क्योंकि अंदर से कहीं न कहीं पूर्वाभास हुआ करता था कि लोकतंत्र की हत्या कर थोपा गया यह आपातकाल तीन साल से ज्यादा नहीं रह सकेगा. मुझे तो यह लगता है कि वास्तव में यह समय इंदिरा गांधी के लिए ही आपातकाल रहा होगा. जब इस आपातकाल के बाद के समय को देखकर सोचते हैं तो ध्‍यान में आता है कि देश के भविष्य के लिए यह मानो स्वर्णकाल के रूप में सामने आया था. इस संदर्भ में पटवा जी यह मानते थे कि ऐसा हुआ भी. क्‍योंकि आपातकाल के समय सबसे ज्यादा कष्ट हम जैसे राजनीतिक और सामाजिक कार्यकताओं की पत्नियों ने झेले. मेरी पत्नी भारती के साहस की मैं आज भी दाद दूंगा. वह जब भी जेल में मिलने आतीं तो कहतीं कि आपसे मिलने के लिए पांव उछल कर चलते हैं और जब जाने की बारी आती है तो यही पैर सवा मन के हो जाते हैं. उस समय लोग मीसा बंदियों के घर आने से डरते थे. उन्हें भय था कि कहीं पुलिस उनसे संबंधों के आधार पर हमें भी पकड़कर जेल में न डाल दे. मीसा बंदियों के घर वालों को अनेक कष्ट दिये जाते थे. जिलाधीश मीसा बंदियों की पत्नियों को मिलने का समय नहीं देते थे, परिवारजनों को भी आसानी से समय नहीं मिल पाता था.

काश… आज की पीढ़ी यह बात समझे…स्‍वाधीनता कभी यूं ही नहीं मिल जाती

वर्तमान समय के हालातों के संदर्भ में स्‍व. पटवा जी, अपने दर्द को कुछ यूं बयां करके गए हैं, ‘काश… आज की पीढ़ी यह बात समझे. वह पहले की अपेक्षा अधिक पढ़ी-लिखी है, लेकिन उतनी ही जल्दबाज भी. आपातकाल के अनुभव बताते हैं कि स्‍वाधीनता कभी यूं ही नहीं मिल जाती. उसके लिए धैर्यपूर्वक जनान्‍दोलन चलाते हुए संघर्ष और बलिदान करना ही पड़ता है. आज की युवा पीढ़ी जिस स्वतंत्रता का आनन्‍द उठा रही है, उसे जो यह स्‍वतंत्रता मिली है उसमें हजारों-लाखों लोगों का बलिदान निहित है. भविष्य में इसे सहेज कर रखना अब उनका ही उत्तरदायित्व है.

अंत में यही कि भले ही सुन्‍दरलाल पटवा जी अब हमारे बीच नहीं, किंतु उनकी ये बातें आज भी आपातकाल के संघर्ष की याद दिलाने के साथ उस युवा मन के सच को बता देती हैं, जो आधुनकिता में इस तरह डूबता जा रहा है कि उसके लिए सिर्फ वो, वो और वो ही प्रथम और अंतिम हो रहा है. काश, हम सभी ये समझ पाएं कि देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें….

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