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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – 100 वर्ष

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अनिरुद्ध देशपांडे

सन् 1925 में विजयादशमी के मंगल दिन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई. संघ के संस्थापक पू. डॉ. हेडगेवार जी ने अपने सभी साथियों के साथ “आज हम संघ की स्थापना कर रहे हैं”,  यह कह कर सामूहिक भाव से संघ की स्थापना की घोषणा की. संघ अपने 100 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है. आज हम विश्व भर में देखें तो इस प्रकार से स्वयंसेवी पद्धति के साथ सातत्यपूर्ण वृद्धिंगत हो रहा और समाजकार्य को प्रतिबद्ध रहकर लंबे समय तक चलने वाला संगठन मिलना मुश्किल है. यहां पर अन्य किसी के साथ तुलना करके संघ को श्रेष्ठ सिद्ध करना यह अपेक्षित नहीं है. संघ अपनी 100वीं वर्षगांठ मनाने के करीब है, किंतु संघ की मूल धारणा शुरू से यही रही है कि संघ और समाज में कोई अंतर नहीं है. संघ यह समाज के किसी एक गुट का संगठन नहीं, अपितु संपूर्ण समाज का संगठन है. अतः जिस प्रकार समाज का उत्सव अलग नहीं होता, उसी प्रकार संघ का भी उत्सव अलग नहीं होता. इस प्रकार की कोई रचना संघ में नहीं है. किंतु इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर सिंहावलोकन कर देखा जाए तो उस विचार के प्रकाश में वर्तमान के कार्य और भविष्य के ध्येय के बारे में सोचना गलत नहीं होगा. इस दीर्घ यात्रा का मर्यादित शब्दों में वर्णन करना लगभग असंभव है, किंतु शब्द मर्यादा के कारण यह करना उचित होगा.

संपूर्ण बीसवीं सदी विश्व तथा अपने देश के दृष्टि से ऐतिहासिक है ही, किंतु अनेक कारणों से यह अविस्मरणीय भी है. महायुद्ध, भारत का स्वतंत्रता संग्राम, संविधान की निर्मिती, समाज परिवर्तन, वैज्ञानिक क्षेत्र की प्रगति, संस्थाओं के जीवन में हुआ बहुत बड़ा विस्तार, सामाजिक सुधारणा की गतिविधियां, आर्थिक क्षेत्र की अलग-अलग विपत्तियां तथा अवसर, इन सभी घटनाओं से समाज जीवन व्याप्त हुआ है और उसी के कारण समृद्ध भी हुआ है. इन सभी घटनाओं से तथा गतिविधियों से अलिप्त रहना असंभव था. इनमें से अनेकों घटनाओं के संदर्भ में निश्चित भूमिका ले संघ ने उन गतिविधियों में सक्रिय रुप से भाग लिया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रामाणिक तथा निःस्वार्थ भावना से हिन्दू समाज के रक्षण तथा सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रयासरत रहकर तथा मातृभूमि की सेवा में सक्रिय रहकर समाज के साथ एकरूप होते हुए अपनी कार्य पद्धति का परिचय एक अलग पद्धति से करवाया. संघ के बारे में देखा जाए तो संघ संगठन रूप में देश के सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचा है, सामाजिक रुप से समाज के सभी वर्गों तक पहुंचा है तथा सेवा कार्यों के रूप में समाज के लिए आश्वासक सिद्ध हुआ है.

नित्य शाखा की पद्धति से होने वाला व्यक्ति निर्माण यह संघ कार्यपद्धति की आत्मा है. संघ की यात्रा का यह मर्म स्थान है. नित्य देशभक्ति का संस्कार यह इस कार्यपद्धति की विशेषता है. संघ के विकास क्रम में अनेक घटनाओं का समावेश होता है. संघ को अनेकों प्रतिकूलताओं के साथ संघर्ष करना पड़ा है, किंतु सत्य निष्कलंक होता है. इसी भाव से संघ सर्वेषाम् अविरोधेन” इस विचार को मन में रखते हुए बढ़ता गया. आज की घड़ी में इस विकास तथा विस्तार का परिचय संघ ने अपने विविध क्षेत्रों में कार्यरत अन्यान्य संगठनों के रूप से अधिक विस्तृत रूप से करवाया है. आज संघ समाजव्यापी बन कर समाज के मन में अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए एक आश्वासक शक्ति के रूप में खड़ा है.

संघ के शतकोत्तर कार्य की दिशा वर्तमान कार्यपद्धति तथा ध्येय से ज्यादा अलग नहीं होगी. किंतु संघ तथा समाज एकरूप होने के बारे में सोचा जाए तो उस संदर्भ में अनेकों घटनाएं, समस्याएं तथा चुनौतियों का संदर्भ संघ के कार्य में भी प्रतिबिंबित होगा, इसमें संदेह नहीं. अतः आने वाले कार्य की दिशा दो स्तरों पर होगी, ऐसे मुझे लगता है. संघ का संगठन कार्य अपूर्व है. संगठन का विस्तृत जाल, जगह जगह पर समर्पित कार्यकर्ता तथा संगठन की कार्यपद्धति इन्हीं विशेषताओं के आधार पर संघ का विस्तार हुआ है. ‘स्वयंसेवक’ ही संघ की वास्तविक शक्ति है. अनुशासन, सामूहिकता का निःस्वार्थ भाव के अनेक गुणों से संगठन समृद्ध होता रहा है. हिंदुत्व के विचार पर अविचल निष्ठा यह उसका आधार है. अपने जीवनमूल्यों तथा तत्वों के समुच्चय रूप से पहचाना जाने वाला हिंदुत्व यह संघ के तत्वज्ञान का मूल आशय है. इसी भूमिका पर आधारित संगठन तथा उसका निर्वहन करने वाले स्वयंसेवक यह संघ का बल है. इस प्रकार के संगठन कार्य का विस्तार तथा उसके लिए आवश्यक संपर्क यह इस यात्रा का एक अंग है. स्वयंसेवकों के रूप में एक विशाल शक्ति भी है. उनसे संपर्क कर उन्हें पुनः सहयोग का आवाहन करने की योजना है.

दूसरी तरफ एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के नाते हिंदू समाज के सामने स्थित चुनौतियों का विचार करते हुए समाज जीवन निर्दोष तथा एकात्म बने, इस हेतु संघ प्रयासरत है. सामाजिक विषमता की समस्या से समाज दीर्घ काल से ग्रस्त रहा है. समाज जीवन जातिगत भेदों से अस्वस्थ है. संघ इन समस्याओं के प्रति संवेदनशील है. समतायुक्त तथा शोषणमुक्त समाजजीवन की निर्मिति यह स्वस्थ समाज का मर्म है, यह संघ मानता है. इसीलिए अपने कार्य में सामाजिक समरसता के कार्य को संघ ने प्राथमिकता दी है. सामाजिक विषमता का निराकरण करना यह एक दीर्घ प्रक्रिया है. सहमति, समन्वय तथा सह अस्तित्व, इन तीन दृष्टियों से इस समस्या का निराकरण संभव है. तत्वों के स्तर पर मान्यता की समस्या अब कम हो गई है, किंतु व्यवहार के स्तर पर उसकी अनुभूति मर्यादित रूप से ही दिख रही है. एकात्म हिंदू समाज यह समरस समाज का ही चित्र है, इसी हेतु संघ के विचार प्रणाली में समरसता की गतिविधि का स्थान भविष्य में महत्वपूर्ण रहने वाला है, इसमें संदेह नहीं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज के सम्मुख खड़ी चुनौतियों का तथा समस्याओं का विचार करते हुए, सामाजिक सहयोग के माध्यम से ही उन पर विजय प्राप्त हो सकती है, इसमें विश्वास रखता है. नैसर्गिक आपत्तियों के समय किए जाने वाले आपदा प्रबंधन कार्य से लेकर सेवा कार्य तक संघ की यही दृष्टि प्रतीत होती है. आज संघ विचारों की प्रेरणा से शुरू अनेकों सेवा कार्य चल रहे हैं. यह सेवा कार्य अपने समाज के आधार केंद्र बने हैं. संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो डेढ़ लाख से ज्यादा छोटे बड़े सेवा कार्य चल रहे हैं. वे अधिक विकसित और विस्तृत बनें यह प्रयत्न है. ग्राम विकास का कार्य यह उसी प्रयास का एक उदाहरण है.

गत कुछ वर्षों से पर्यावरण के असंतुलन के बारे में चर्चा वैश्विक स्तर पर गंभीरता से होती दिखाई दे रही है. यह प्रश्न अब महत्वपूर्ण बन चुका है. ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या से लेकर नैसर्गिक संपत्ति के अमर्यादित शोषण तक समस्या ने गंभीर स्वरूप प्राप्त किया है. संघ ने इस क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाओं के साथ संपर्क स्थापित कर संवेदना जागृत की है. इसी के साथ जल, प्लास्टिक तथा वृक्षों के संदर्भ में निर्मित प्रश्नों का अध्ययन कर पर्यावरण संरक्षण तथा संतुलन के कार्य को प्राथमिकता दी है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रमुख कार्य व्यक्ति निर्माण का है. समाज और संघ, इनकी एकरूपता यह संघ के विचारों का आधार है. समर्पित कार्यकर्ता, यह संघ का बल स्थान है. नित्य रूप से चलने वाली संघ शाखा, यह इस बल का मूल आधार है. अलग-अलग आयु के स्वयंसेवक अपनी सृजनशील कल्पनाओं के अनुसार शाखाओं के कार्यक्रमों की रचना करते हैं. संघ के कार्य हेतु संपूर्ण समय देने वाले प्रचारक की संकल्पना संघ में चलती आ रही है. अपने व्यक्तिगत गृह जीवन में भी संघ के कार्य को प्राथमिकता देकर अपने जीवन क्रम की रचना उसी के अनुसार करने वाले हजारों स्वयंसेवक अनेकों गांव में कार्यरत हैं. सुदूर पहाड़ी तथा वनवासी क्षेत्रों में संघ का हुआ विस्तार, समर्पित कार्यकर्ताओं के प्रयास का फल है. शतकपूर्ति के करीब जाते हुए संघ के इन अलग-अलग अंगों का सिंहावलोकन प्रेरणादाई है. संपूर्ण समाज यही अपना कार्यक्षेत्र है, इस धारणा के कारण संकुचित तथा मर्यादित विचार कार्यकर्ता के मन में नहीं रहता. सामूहिकता को प्राथमिकता देने का विचार यह कार्य पद्धति का प्रमुख अंग है. इसी कारण अहंकार, ईर्ष्या, दुराग्रह इन सभी दोषों का निवारण होता है. समृद्ध तथा परमवैभव से संपन्न समग्र समाज जीवन, इस ध्येय के प्रति आज तक की गई यात्रा भविष्य में मार्गदर्शक रहेगी, इसमें संदेह नहीं.

अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

 

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