समाज में जीवित रहने का मूल आधार ‘स्व’ है. ‘स्व’ नहीं तो समाज भी नहीं रह सकता. उदाहरण स्वरूप पर्शिया देश सामने है, पर्शिया में पर्शिया का कुछ नहीं, न भाषा, न पूजा, न महापुरुष, न ग्रंथ. उनका अपना कुछ नहीं है. ‘स्व’ का लोप होने से समाज मर गया. पर्शियन कुछ भारत में हैं…. ग्रीस, ग्रीक देवी-देवता, मूर्तियाँ, मंदिर, अरस्तू, सुकरात, मेगस्थनीज, आर्कमेडिस, पाइथोगोरस वाला आज नहीं. ‘स्व’ नहीं तो समाज धीरे-धीरे पीछे होकर मरता जाता है. पुरा हूण, यवन आदि के आक्रमणों से तो भारत बच गया, लेकिन इस्लाम के आक्रमणों ने हमें हिला दिया.
इस्लाम ने हमारे धर्म, दर्शन सबको नष्ट करने का प्रयास किया. फिर ब्रिटिश, फ्रेंच, पुर्तगाली, डच आदि ईसाई आए. पांडिचेरी में फ्रेंच, गोवा में पुर्तगाली शेष भारत में अंग्रेज ईसाई हमारे ‘स्व’ को समाप्त करना चाहते रहे. 900 वर्षों के लम्बे संघर्ष और पराधीनता ने हिन्दू समाज को झिंझोड़ दिया, इससे बहुत कुछ नष्ट हो गया. ऐसी स्थिति हो गई कि शरीर रहा, साँस रही, बस.
जो अच्छा है उसे स्वीकारें यानि दुराग्रही नहीं. लेकिन अपने ‘स्व’ को बचाए रखना उतना ही महत्त्व का है. बाह्य आक्रान्ताओं ने हमारे इस ‘स्व’ पर ही आक्रमण किया. यह ध्यान में रहे कि बहुत कुछ विजातीय तत्त्व हमारे भीतर घुस आया. हमारी भाषा में से कुछ अनावश्यक हटा दिए. पहला आक्रमण भाषा पर हुआ. धीरे-धीरे जीवन में अंग्रेजी के अनेक अनावश्यक शब्द भाषा में आते चले गए क्योंकि ‘स्व’ का बोध नहीं रहा.
श्री सुदर्शन जी हस्ताक्षर तो हिन्दी में करने का आग्रह सदैव करते थे. ब्लैक बोर्ड के बदले श्यामपट्ट लिखना और बोलना चाहिए. अपनी स्वदेशी भाषा का प्रयोग ध्यानपूर्वक करते हुए विदेशी भाषा के शब्द हटाने का प्रयास कर सकते हैं. यह प्रयोग कैसे ठीक हो इस पर चर्चा कर सकते हैं.
भोजन ईश्वर का प्रसाद है. इसका मानसिक महत्त्व है. यह केवल खाना नहीं है. (खाना खजाना अरबी शब्द), भोजन केवल अपने लिए बनाना इसको पाप कहते हैं. दूसरों के लिए बनाना व खिलाना पुण्य है.
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्…… श्रीमद्भगवद गीता 3.13 .. घर में भोजन करते समय भोजन मंत्र करते हैं क्या? स्वदेशी खाद्य पदार्थ कम तो नहीं हो रहे? पिजा आदि बेकरी के पदार्थ तो नहीं बढ़ रहे. भोजन प्रसाद का रूप है, शुचिता, पवित्रता के साथ भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए. बासी नहीं. अनेक प्रकार के सुपाच्य व्यंजन बनवाए जा सकते हैं.
इसी प्रकार मंगल प्रसंग पर पूजा आदि में भी अनुकूल वस्त्र, एकादशी व्रत, कार्तिक पूर्णिमा, होली, दीवाली आदि के अवसर अपनी संस्कृति के अनुसार वस्त्र पहनने चाहिए.
हिन्दू कला, हिन्दू स्थापत्य के अनुसार रामकृष्ण मिशन, भारतीय विद्या भवन, स्वामी प्रणवानन्द, रामदेव बाबा, गायत्री परिवार, राम मंदिर भारती स्थापत्य के अनुकूल निर्मित हैं या निर्माण हो रहा है. अपने घरों के नक्शे-पश्चिमी मॉडल (यथा आंगन नहीं) के अनुरूप बन रहे हैं. बिना आंगन का मकान उनकी मजबूरी है क्योंकि उत्तरी गोलार्द्ध में ठण्ड अधिक पड़ती है. परन्तु हम कर्क रेखा के निकट रहते हैं. यहाँ गर्मी अधिक पड़ती है, अतः गर्मी अधिक होने के कारण हमारे वास्तु में आंगन का महत्त्व है.
भारतीय काल गणना नई पीढ़ी को अपने 12 महीनों के नाम नहीं पता, दिशा का ज्ञान नहीं. बालकों की जन्म तिथि भारतीय तिथि से मनानी चाहिए. परिचय-पत्र पर दोनों तिथि और दिनांक रखने का आग्रह हमें करना चाहिए.
ग्रंथालय, पूजा घर, जूते उतारने का स्थान, चित्र-सज्जा आदि अपने परम्परा के अनुरूप हो, प्रवेश करते ही द्वार पर रंगोली, दीपक, तुलसी दिखाई दे.
‘स्व’ आचरण से आकाश, धरती, सूर्य, चन्द्रमा, जानवर सबके प्रति हमारा भाव प्रकट हो, हमारी पुरानी कथा-कहानी में लौकिक जगत् के प्रति व्यवहार के मर्म का वर्णन किया है. प्रकृति से हिन्दू का ‘स्व’ मिला हुआ है. इसलिए ही जल को जल देवता, वायु को वायु देवता आदि कहते हैं. जो देता है वह देवता, सूर्य ने प्रकाश, धरती ने फसल आदि दी है. परमात्मा और हमारे बीच में ये देवता हैं. मनुष्य का प्रकृति के साथ एकात्म भाव का सम्बन्ध यही हिन्दुत्व है.
सत्य के प्रति हमारा आग्रह निरंतर बना रहा है. विदेशी यात्रियों ने लिखा है, भारतीय झूठ नहीं बोलते हैं. सत्य के प्रति निष्ठा भारत की विशेषता कही गई. अहिंसा-किसी प्रकार की हिंसा नहीं यानि वाणी, मन की हिंसा नहीं हो, यह हमारा आग्रह रहा है.
मितव्ययी जीवन हमारा ‘स्व’ है. इस मितव्ययिता का संस्कार बच्चों को देते हैं. अपरिग्रह वाली स्थिति को बच्चों को कैसे समझाएँ. अधिक संचय, संग्रह, उपभोग अच्छा नहीं. यह भ्रष्टाचार का मूल है. संचय, संग्रह की प्रवृत्ति कम हो, यह भ्रष्टाचार की जननी है. विलम्ब से सोना दिनचर्या का अंग नहीं रहा. कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः . उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् .. ऐतरेय ब्राह्मण 3.3 .. प्रातःकाल आक्सीजन का प्रवाह मस्तिष्क में अधिक होता है. प्रातः उठना, पूजा-पाठ करना, भगवान् का स्मरण करना आदि हमारे दिनक्रम का प्रारम्भिक भाग रहा है.
अपने पास जो कुछ है, उसमें से दूसरे की सेवा के लिए कुछ निकालना ‘स्व’ है. जो कमाया है, उसमें से दो, यह भारतीय संस्कृति है. खेत में गेहूँ कटने पर वहीं से समाज के वर्गों को हिस्सा को देना. बाद में अपने घर लाना. हल चलाते बीज डालती महिलाएँ गीत गाती हैं – अच्छी फसल दो हे प्रभु! धान रोपते हुए गाती हैं – साधु, सन्यासी, अतिथि, सबको दूँगी, तब मैं रखूँगी.
आध्यात्मिक भाव – बच्चों को समझाना कि हम सब एक ही हैं, दो नहीं. चिड़िया, पक्षी, गाय, भैंस, घोड़ा, सब एक ही हैं. द्वैत दिखाई देता है, अंदर अद्वैत ही है. एकत्व का बोध विकसित हो, यह मूल है. बाहर एकत्व का विस्तार पर्वत, नदियाँ, शहर, महापुरुष, गीतकार, कलाकार, वैज्ञानिक सब हमारे ही हैं.
कोई इस विराट ‘स्व’ का अनुभव तब करता है, जब यह एकात्म बोध गहरा बैठता है. इस ‘स्व’ के आधार देश का भाव जगत् खड़ा हो जाए. एकत्व-अद्वैत भारतीय दर्शन की भाषा बने.