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लोक साहित्य के अध्ययन का सम्मान

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पुणे. गणतंत्र दिवस पर पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई तो उनमें एक नाम था डॉ. प्रभाकर मांडे का. महाराष्ट्र से बाहर के लोगों के लिए यह नाम कुछ अनजाना हो सकता है, लेकिन महाराष्ट्र में, विशेषकर जनजातीय क्षेत्रों में, यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. लगभग 6 दशकों का समय डॉ. मांडे ने लोक साहित्य के अध्ययन में बिताया है. अनेक बाधाओं, अनेक झंझावातों का सामना किया है.

डॉ. मांडे जी का काम महाराष्ट्र में लोक कथाओं के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ है. अथक प्रयासों से लोक साहित्य के विषय को विश्वविद्यालय स्तर पर पहचान मिली. लेकिन विषय की स्वीकृति मात्र से काम नहीं रुका. उस विषय के अनुसार मराठी में विभिन्न संदर्भ सामग्री तैयार करना आवश्यक था. डॉ. मांडे जी ने अपने शोध और अध्ययन की मदद से समस्या का समाधान किया. लोक कथाओं के लिए एक वैचारिक रूपरेखा तैयार करने और अध्ययन के लिए एक पद्धति बनाने के उद्देश्य से कई पुस्तकों का निर्माण किया. किसी जनजाति का समग्र अध्ययन हो या मौखिक परंपराओं का संग्रह और विश्लेषण, उन्होंने हर विषय को स्पर्श किया है.

उनकी समग्र साहित्यिक परंपरा में ‘दलित साहित्य की समीक्षा’ पुस्तक विशेष रूप से उल्लेखनीय है. लोक साहित्य के दायरे में आने वाली, लेकिन साहित्य के सूत्र को मजबूती से पकड़ने वाली यह पुस्तक न केवल आलोचना की दृष्टि से, बल्कि साहित्य को समझने के लिए भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. इसके अलावा डॉ. गणेश नाथ का काव्य, वैदिक-बौद्ध संबंध आदि भी प्रमुख पुस्तकें हैं.

उनका कार्य केवल शोध तक सीमित नहीं रहा, बल्कि लोक कथाओं के विषय को एक स्वतंत्र मंच प्रदान करने वाला भी रहा है. ‘लोकसाहित्य अनुसंधान मंडल’ नामक स्वतंत्र मंच की स्थापना इस कार्य में मील का पत्थर है.

शोधकार्य को लेकर उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में यात्रा की. अथक परिश्रम, जिद और जीवटता के साथ शोधकार्य, उससे होने वाला लेखन और ग्रंथों की बड़ी संख्या उनका व्यासंग स्पष्ट करते हैं. लोक परंपरा और सामाजिक परंपरा, लोक परंपरा में चतुराई, लोक परंपरा में स्त्री की छवि, लोक गायकों की परंपरा, लोकमानस और लोकाचार, लोक मानस-रंग और ढंग, लोकरंग और अभिजात रंगभूमि, लोककला और नागर रंगभूमि (संपादित) लोकधारा आदि विषयों पर उन्होंने मौलिक पुस्तकें लिखीं. साथ ही मौखिक साहित्य की परंपरा और रामकथा में मौखिक परंपरा पुस्तकें भी काफी चर्चित रहीं.

इसके साथ ही उनकी आदिवासी मूलतः हिन्दू, आदिवासियों का धर्मांतरण एक समस्या उपेक्षित पर्व, पंडित दामोदर रचित महानुभावीय पद्मपुराण (संपादन), चतुरदास विरचित एकादश स्पंध भाषा टीका (हिंदी संपादन) आदि पुस्तकें भी महत्त्वपूर्ण हैं.

संभाजीनगर (औरंगाबाद) जिले के सावखेड़ में 1933 में जन्मे मांडे जी आज 88 वर्ष के हैं. चतुरंग प्रतिष्ठान का ‘जीवन गौरव पुरस्कार’ सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. जनमानस में उनकी एक ऋषितुल्य व्यक्तित्व की छवि है. ऐसे एक विद्वान् को पद्मश्री सम्मान मिलने के कारण महाराष्ट्र के साहित्य व विद्वत् क्षेत्र में आनंद व्यक्त किया जा रहा है.

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