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हमारी परंपरा में मातृशक्ति के महत्व को स्मरण रखना चाहिए – डॉ. मोहन भागवत जी

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नागपुर. संघमित्रा सेवा प्रतिष्ठान सेविका प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “अखिल भारतीय महिला चरित्र कोश प्रथम खंड – प्राचीन भारत” का लोकार्पण नागपुर में राष्ट्र सेविका समिति की तृतीय प्रमुख संचालिका ऊषा ताई चाटी की पुण्यतिथि के दिन हुआ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी तथा राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख संचालिका शांताक्का जी ने चरित्र कोश का लोकार्पण किया.

पुस्तक लोकार्पण समारोह में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि दिन रात परिश्रम करके यह पहला खंड प्रकाशित किया गया है. आगे और खंड प्रकाशित होने वाले हैं. ऐसा काम हाथ में लेना भी एक अभिनंदन की बात है और इसलिए मैं इस ग्रंथ के निर्माण में सहयोगी भगिनियों का हृदय से अभिनंदन करता हूं.

उन्होंने कहा कि भारत को विश्व गुरु बनाना चाहते हैं तो भारत केवल पुरूषों का नहीं है, 50 प्रतिशत महिलाएं भी हैं. ये तो होता नहीं कि किसी जीवंत शरीर को स्वस्थ बनाना है तो उसका आधा अंग स्वस्थ हो जाए और आधा अंग वैसा ही रहे, ये संभव नहीं. ये छोटे बच्चे को भी समझ में आने वाली बात है. लेकिन बड़े लोगों के आचरण में न आने वाली बात है. सभी कहते हैं कि यह होना चाहिए, लेकिन कैसे होगा… व्यस्थागत कुछ परिवर्तन होने चाहिए, वो समय के अनुसार हो रहे हैं. उसकी गति बढ़ाने की आवश्यकता है. लेकिन मात्र व्यवस्था परिवर्तन से ये नहीं होता.

उन्होंने कहा कि अपने देश के विरुद्ध जो प्रचार करते हैं, वो आज के उदाहरण भूतकाल से जोड़ते हैं. अन्य सभी विषयों की तरह ही इस विषय में भी प्रचलित संवाद, डिस्कोर्स वो अधूरी दृष्टि पर चलता है, उसमें विवाद है – पुरूष श्रेष्ठ है या नारी, क्योंकि ये दोनों अलग-अलग हैं. दोनों अलग-अलग होने के कारण दोनों श्रेष्ठ नहीं हो सकते, दोनों कनिष्ठ नहीं हो सकते. जबकि, हमारे यहां सब को जोड़ने वाला तत्व हमने पाया है. इसलिए हमारे यहां संवाद में पूर्णता है. हमारे यहां पहले से ही ये श्रेष्ठता का विवाद नहीं है. इन दोनों को साथ ही रहना है. रथ का एक पहिया आगे, एक पहिया पीछे नहीं चल सकता. दोनों पहियों को एक साथ रहना पड़ता है, एक अंतर रखकर चलना पड़ता है. साथ में घूमना पड़ता है क्योंकि पुरुष तत्व और महिला तत्व, इनके बिना सृष्टि होती नहीं दोनों चाहिए. जहां एक ब्रह्म है केवल, वहां ये भेद ही नहीं है. वहां भेद ना होने के कारण श्रेष्ठता का प्रश्न ही नहीं है. भगवान महिला है कि पुरुष है, इस पर भी उधर (पश्चिम में) विवाद होता है. हमारे यहां देवी भी है और देव भी और दोनों ब्रह्म रूप हैं.

कई बार हम लोग भी उधर के संवाद में फंस जाते हैं. और फिर सारा कुछ जो गड़बड़ है वो सब अपने पूर्वजों पर थोपते हैं, और जो कुछ अच्छा वह बाहर से आएगा, ऐसी अपेक्षा करते हैं. लेकिन बाहर ये स्थिति है कि उनको भान हो रहा है कि अपना संवाद गलत था. और ये लोग आज भारत की कुटुंब व्यवस्था का अध्ययन कर रहे हैं.

महिला का प्राकृतिक गुण, उसके व्यक्तित्व का मूल है वात्सल्य, उसकी पूर्ति हुए बिना उसके जीवन में चैन नहीं आता. पुरुषों को महिलाओं के उद्धार की बात करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि महिलाओं का उद्धार पुरुषों की क्षमता के बाहर की बात है. विदेश प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद जी को पत्रकार ने पूछा, आपका भारतीय महिलाओं के लिए क्या संदेश है. तो विवेकानंद जी ने तपाक से कहा – संदेश, मेरा कोई संदेश नहीं है. उनको संदेश देने की मेरी हैसियत नहीं है. उनको संदेश देने की आवश्यकता नहीं है. वो चित्ररूपा है, जगत जननी है वह अपना रास्ता जानती है, उसको करने दो. इतने समय से घर की चारदिवारी में हैं, इसलिए कुछ बातें जानकारी में नहीं है. उन्हें प्रबुद्ध बनाओ, सशक्त बनाओ. हमको ये बात में ध्यान में रखकर अपने घर से प्रारंभ करते हुए समाज में महिलाओं के साथ व्यवहार करना होगा. वह जन्म की प्रवृत्ति से अध्यात्म पर चलने वाली है. प्रकृति से सबको वात्सल्यता की दृष्टि से देखने वाली है. ये सब प्रकृति ने उस पर रखा है. उसको खिलने का रास्ता दो.

स्वाभाविक रूप से प्रकृति ने जो भेद रखा है, उसको छोड़कर हमको महिलाओं और पुरुषों को एक दृष्टि से देखना है. अपनी मर्यादा को कैसे संभालना, सार्वजनिक जीवन में कुछ करते समय परिवार की चिंता कैसे करना. ये उनको सिखाने की आवश्यकता नहीं है. ये उनकी सहज प्रवृत्ति है, वो सब कर लेती है.

हमारे यहां पर दो हजार वर्षों से मातृशक्ति का अपनी परंपरा में क्या स्थान है, इसको हम भूल गए. हमको भी वो ज्ञान हो और हमारा व्यवहार उसके अनुरूप हो. इसलिए इस ग्रंथ को खरीद कर घर में रखना व पढ़ना चाहिए.

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