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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध करने वाले कौन..?

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बलबीर पुंज

गत 31 अगस्त को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा ममता बनर्जी ने कहा, ‘‘…मुझे नहीं लगता कि संघ इतना भी बुरा है…’’ बस उसके पश्चात चर्चा व कयासों का दौर चल रहा है.

सर्वविदित है कि प. बंगाल में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने वाली ममता बनर्जी की अब प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है और इस संदर्भ में उनके वक्तव्य के कई राजनीतिक अर्थ निकाले जा सकते हैं. जैसे ही ममता की टिप्पणी आई, वैसे ही स्वयं-भू सेकुलरवादियों के साथ वामपंथियों और स्व:घोषित मुस्लिम जनप्रतिनिधियों ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और उनका दशकों से जारी दुराग्रह पुन: सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बन गया.

File Photo

वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन स्थापित संघ, अगले 3 वर्षों में अपने जीवन की एक शताब्दी पूर्ण कर लेगा. इस लंबे और महत्वपूर्ण कालखंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी कार्यशैली, अनुशासन, विचारधारा, उसके लाखों-करोड़ स्वयंसेवकों के चरित्र और आपदा के समय नि:स्वार्थ सेवा से भारतीय समाज में सहज स्वीकार्यता प्राप्त की है. देश का एक छोटा, परंतु मुखर वर्ग न केवल संघ की आलोचना करता है, अपितु यह राष्ट्रीय संगठन उनकी घृणा का भी शिकार है. आखिर ऐसा करने वाले कौन हैं?

वास्तव में, जो लोग भारत को मां के रूप में न देखकर उसे अलग-अलग भूखंडों का समूह मानते हैं, वे संघ को अपना शत्रु मानकर उनके प्रति द्वेष रखते हैं. इस सूची में वामपंथी सबसे ऊपर हैं, जिन्होंने भारत को एक देश नहीं माना और ब्रितानियों-जिहादियों के साथ मिलकर पाकिस्तान को जन्म दिया.

यही कारण है कि उनकी सहानुभूति आज भी मजहबी आतंकवादियों, अलगाववादियों और देशविरोधी शक्तियों (टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल सहित) से प्रत्यक्ष है. यह विडंबना है कि जिन्होंने मजहब के नाम एक इस्लामी मुल्क को विश्व के मानचित्र पर उकेरा, उन्हीं मानस बंधुओं का कुनबा स्वतंत्र भारत में दशकों से अन्यों को ‘सेकुलर’ प्रमाणपत्र बांट रहा है.

वर्षों से जिस प्रकार भारत की मूल सनातन संस्कृति की रक्षा, एकता, संप्रभुता, समावेशी विचारों, बहुलतावाद और राष्ट्रत्व के कारण संघ के साथ भाजपा राजनीतिक-वैचारिक-सामाजिक ‘अस्पृश्यता’ का दंश झेल रहा है, वैसा परिदृश्य स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नहीं था. संघ के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर द्वारा लिखित ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-स्वर्णिम भारत के दिशासूत्र’ पुस्तक के अनुसार, आर.एस.एस. की स्थापना करने से पहले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार न केवल कांग्रेस के सक्रिय पदाधिकारी थे, अपितु ‘असहयोग आंदोलन’ को गति देने के कारण 1921-22 में ब्रितानी हुकूमत द्वारा प्रदत्त एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा भी काट चुके थे. नागपुर में कांग्रेस के प्रादेशिक अधिवेशन (1922), जिसमें पं. मोतीलाल नेहरू, सी. राजगोपालाचारी आदि भी उपस्थित थे, वहां डॉ. हेडगेवार को कांग्रेस का संयुक्त सचिव नियुक्त किया गया.

संघ की निष्ठा और कार्यप्रणाली के गांधी जी भी प्रशंसक थे. 25 दिसंबर, 1934 को आर.एस.एस. संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवनकाल (1889-1940) में गांधी जी, वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित संघ के प्रशिक्षण शिविर में पहुंचे थे, जहां वे स्वयंसेवकों की स्वच्छता और अस्पृश्यता-मुक्त कार्यपद्धति से प्रभावित हुए. इसके अगले दिन वर्धा स्थित ‘सेवाग्राम’ आश्रम में गांधी जी से डॉ. हेडगेवार ने भेंट की. रक्तरंजित विभाजन के बाद 16 सितंबर, 1947 को भी दिल्ली स्थित शाखा का गांधी जी ने दौरा किया था.

एक-दो अपवादों को छोड़कर भारतीय विमर्श में विरोधियों को शत्रु मानने या उनसे घृणा करने की मानसिकता स्वतंत्रता के पश्चात भी गौण थी. यह सब- देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और तत्कालीन भारतीय जनसंघ नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बीच वैचारिक विरोध होने के बाद एक-दूसरे के प्रति सम्मान, वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में संघ की नि:स्वार्थ राष्ट्रसेवा देखने और पूर्वाग्रह के बादल छंटने के बाद 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में पं. नेहरू द्वारा संघ को आमंत्रित करने, वर्ष 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के निमंत्रण पर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के सामरिक बैठक में पहुंचने, वर्ष 1973 में गोलवलकर के निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा शोक प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्र-जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले विद्वान-प्रभावशाली व्यक्ति बताने और इंदिरा द्वारा ही वीर सावरकर को ‘भारत का सपूत’ बताकर उनके सम्मान में डाक-टिकट जारी करने आदि से स्पष्ट है.

भारतीय राजनीति में वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों से दुर्भावना का बीजारोपण वर्ष 1969-71 में तब हुआ, जब कांग्रेस टूटने के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी अल्पमत सरकार को बचाने हेतु वामपंथियों का सहारा लेना पड़ा और उनके सनातन भारत-हिन्दू विरोधी दर्शन को ‘आऊटसोर्स्ड’ कर लिया.

कालांतर में कांग्रेस उस रूग्ण चिंतन से ऐसी जकड़ी कि उसके नेताओं और वामपंथी विचार-समूह से अभिशप्त अन्य राजनीतिक दलों (क्षत्रप सहित) ने भी संघ-भाजपा और सावरकर आदि के खिलाफ विषवमन शुरू कर दिया, जो अब तक जारी है.

अभी ममता बनर्जी द्वारा संघ की प्रशंसा किए जाने पर आर.एस.एस. के मुखर विरोधी सितंबर 2003 की जिस घटनाक्रम का उल्लेख कर रहे हैं, उसमें मैं भी स्वयं बतौर राज्यसभा सांसद उपस्थित था. तब दिल्ली में ‘कम्युनिस्ट टेररिज्म’ नामक पुस्तक के विमोचन में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की तत्कालीन सहयोगी और वामपंथ विरोधी ममता बनर्जी को भी आमंत्रित किया गया था.

सच तो यह है कि जिस प्रकार ‘केवल मैं सच्चा, बाकी सब झूठे’ रूपी मजहबी चिंतन ने वैश्विक मानवता को गंभीर क्षति पहुंचाई है, जिससे अब भी दुनिया को चुनौती मिल रही है, ठीक उसी तरह राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों से घृणा और उनसे हिंसा – लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता रूपी जीवनमूल्यों को अस्वस्थ कर रहा है. यक्ष प्रश्न है कि जब सामाजिक अस्पृश्यता अक्षम्य पाप है, तब राजनीतिक छुआछूत स्वीकार्य क्यों है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद हैं.)

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