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सर्वसमावेशी है भारतीय दर्शन – डॉ. कृष्णगोपाल जी

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‘ज्ञान संगम’ में ‘भारतीय जीवन दृष्टि – वर्तमान संदर्भ में व्याख्या’ पर चिंतन-मंथन

भोपाल (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह एवं विचारक डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि भारत की दृष्टि विशाल, विराट एवं सम्यक है. भारत में कभी भी खण्ड-खण्ड में चिंतन नहीं किया गया, बल्कि सभी शास्त्रों को समान दृष्टि से देखा गया है. भारत की समावेशी दृष्टि में सभी प्रकार की पूजा पद्धति एवं विचारों का स्वागत किया गया है और समय के अनुसार स्वयं में भी बदलाव किए हैं. सबके मंगल की कामना ही भारत के दर्शन का आधार रहा है. बड़ा मन, बड़ी दृष्टि और सर्वकल्याण के भाव ने ही भारतीय दृष्टि को दुनिया में श्रेष्ठ बनाया है. सह सरकार्यवाह जी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित ज्ञान संगम के समापन सत्र में संबोधित कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि भारतीय दृष्टि सबकी विविधता का सम्मान करती है और विविधताओं को स्वीकार कर उन्हें साथ लेकर चलती है. सबमें एक ही तत्व है और सबके मंगल की कामना करना, यह भारतीय दृष्टि का मौलिक दर्शन है. भारत की ज्ञान दृष्टि सभी क्षेत्रों में विश्व का मार्गदर्शन करने वाली रही है. भारतीय दर्शन एवं भारतीयता को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है. दैनिक जीवन में भी लोग अपने कार्य क्षेत्रों में सभी चीजों में परमात्मा की अनुभूति करते हैं. शत्रु में भी ईश्वर देखना, भारत की परंपरा रही है. यह दृष्टि हमारे ऋषि-मुनियों से समाज को मिली और भारतीय जनमानस ने उसे अपने जीवन में उतार लिया. उन्होंने कहा कि दृष्टि का अर्थ है उसके पीछे का तत्व. जब हम भारतीय दृष्टि की बात करते हैं तो उसका अर्थ है हिन्दू या कहें कि भारतीय तत्व. भारत में मनुष्य इस मंगल कामना के साथ समाज में रहता है कि भारतभूमि पर मनुष्य जन्म कई जन्मों के पुण्य कर्मों का फल है.

सह सरकार्यवाह जी ने कहा कि हमारे वेदों का आधे से अधिक भाग संवाद की शैली है. प्रश्नोत्तर के रूप में जिज्ञासा उत्पन्न करना और फिर समाधान देने की परंपरा है. कठोपनिषद का पहला अध्याय, नचिकेता का पिता से संवाद और नचिकेता का यम से वार्तालाप, संवाद शैली में आता है. संवाद जब होता है तो दोनों पक्षों के बीच प्रेम होता है, विश्वास होता है. यदि विश्वास नहीं होगा तो संवाद गलत दिशा में चला जाएगा. हमारे देश में वाणी की शुचिता का वातावरण रहा है. सेमेटिक रिलीजन के आने से पहले तक दुनिया में भी संवाद की शुचिता का वातावरण रहा है.

समापन सत्र में विशिष्ट अतिथि मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क एवं जल संसाधन मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा जी उपस्थित थे. सत्र की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला जी ने की. विश्वविद्यालय की संचार की भारतीय परंपराओं के अंतर्गत सम्पन्न शोध कार्य पर साकेत दुबे द्वारा लिखित पुस्तक ‘रामचरित मानस में संचार की पद्धति एवं परंपरा : रामुसूत्रधरअंतरजामी’ का विमोचन भी किया गया.

इससे पूर्व ‘सामाजिक संवाद की भारतीय दृष्टि (संवाद का स्वराज) ‘ विषय पर कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला जी ने कहा कि कम्युनिकेशन के मॉडल्स को पश्चिम के दृष्टिकोण से पढ़ते हैं तो संवाद की प्रक्रिया अधूरी लगती है. जबकि विश्वविद्यालय की योजना से विकसित हुए ‘हिन्दू मॉडल ऑफ कम्युनिकेशन’ पर विदेशों में भी चर्चा हो रही है. जनसंचार की प्रक्रिया को समझने के लिए ‘हिन्दू मॉडल ऑफ कम्युनिकेशन’ पर्याप्त माना जा रहा है. हालाँकि अभी इसमें काम करने की और अधिक गुंजाइश है. संवाद प्रक्रिया में ‘साधारणीकरण’ की अवधारणा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में है. इस दुनिया में प्रत्येक चीज, प्रत्येक दूसरी चीज से जुड़ी हुई है. हर चीज एक-दूसरे से न केवल जुड़ी हुई है, बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर भी है.

वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय जी ने कहा कि डिजिटल दुनिया में संवाद का तरीका बदल रहा है. भारत में इस समय 24 करोड़ 10 लाख फेसबुक उपयोगकर्ता हैं. फेसबुक उपयोगकर्ता के मामले में भारत दुनिया में प्रथम स्थान पर है. आज भारत में प्रतिमाह 135 करोड़ जीबी डेटा इस्तेमाल किया जा रहा है. अगले पाँच वर्ष में यह आँकड़ा 350 करोड़ जीबी डेटा तक पहुँच सकता है. डिजिटल मीडिया में जो कंटेट आ रहा है, क्या वह समाजोन्मुखी है? इस संबंध में विचार करने की आवश्यकता है. उमेश जी ने कहा कि 1991 के बाद हमारे संवाद पर नियंत्रण करने के प्रयास लगातार हुए हैं. किंतु परिवार की ताकत के कारण भारतीय जीवन मूल्य बचे रहे हैं. परिवार में संवाद की प्रक्रिया लोकतांत्रिक थी. हम यह सोचते हैं कि पत्रकार के पास अभिव्यक्ति का अधिकार है, किंतु समाचार कक्ष में उसके पास यह अधिकार नहीं है, यह अधिकार बाजार के पास है. सोशल मीडिया में उपयोग हो रही शब्दावली पर शोध होना चाहिए. मशीनी इंटेलिजेंस और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस आने वाले समय में प्रभावी रहने वाले हैं. उन्होंने कहा कि पूरा विश्व संचारोन्मुखी हो रहा है, इस स्थिति में भारत बहुत कुछ दे सकता है.

‘प्रकृति में सामंजस्य एवं समन्वय की भारतीय दृष्टि’ विषय पर पैसिफिक विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा जी ने कहा कि अपनी आने वाली पीढ़ीयों को प्राकृतिक संसाधन देना हमारा कर्तव्य है. प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपने द्वारा उपयोग किए हुए संसाधनों एवं ऊर्जा का हिसाब रखे, तब ही हमें पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचाया है. प्रकृति के अवदानों की प्रतिपूर्ति संभव नहीं है. उन्होंने कहा कि भारतीय दृष्टि ने सभी उपयोगी वनस्पतियों के संरक्षण की पूर्ण व्यवस्था की है तथा धार्मिक दृष्टि दी है. इसी सत्र में मुकुल कानिटकर जी ने कहा कि प्रकृति भोग के लिए नहीं, बल्कि सामंजस्य एवं संतुलन बनाकर साथ चलने के लिए है और यही भारतीय दृष्टि है. प्रकृति के साथ यदि हमारा समन्वय हो जाएगा तो सामंजस्य की आवश्यकता नहीं होगी. एकात्म जीवन दृष्टि से व्यक्ति को संस्कारित एवं शिक्षित करने की आवश्यकता है. यह जिम्मेदारी शिक्षा जगत की है.

ज्ञान संगम में विभिन्न व्यवसायों में भारतीयता के अंतर्गत ‘स्वस्थ जीवन’ विषय पर अरुल मोली जी ने कहा कि हमें प्रकृति ने सुंदर जीवन दिया है. संतुलित खान-पान से हम उसे स्वस्थ एवं समृद्ध रख सकते हैं. संतुलित जीवन के लिए प्रकृति का साथ जरूरी है. इसी सत्र में ‘धन-संपदा के संग्रहण की भारतीय दृष्टि’ पर बलतेज सिंह जी मान ने कहा कि भारतीय संस्कृति में संतुलन करना सिखाया गया है. धन-संपदा का संग्रहण आवश्यकता से अधिक नहीं होना चाहिए. ह्यूमन कैपिटल अच्छा होगा तो वेल्थ मैनेजमेंट अपने आप हो जाएगा. ‘राज व्यवस्था’ पर सुभाष चंद्र जी ने कहा कि राजा का काम प्रजा के हितों का ध्यान रखना है. आधुनिक राज व्यवस्था मौर्य साम्राज्य की देन है, जिसने हमारी संस्कृति को एक किया. चाणक्य की पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ आधुनिक राज्य व्यवस्था के लिए बाइबिल कही जा सकती है. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय साहित्य परिषद के संगठन मंत्री श्रीधर पराड़कर जी ने कहा कि हमें जो कुछ भी प्रकृति से प्राप्त हुआ है, उसका त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए. प्रत्येक क्षेत्र में आज जो समस्याएं दिख रही हैं, उसका कारण है कि हमने भारतीय जीवन के आधार छोड़ दिए हैं.

‘कला एवं मनोरंजन की भारतीय दृष्टि’ पर प्रो. दीनबंधु पाण्डेय जी ने कहा कि कला का मूल उद्देश्य परमार्थ है, यह भारतीय जीवन दृष्टि का प्रमुख सूत्र है. कला में यदि परमार्थ का भाव नहीं होगा, तो वह मर जाएगी. धर्म के लिए कला का निर्माण करेंगे, तो वह अमर हो जाएगी. भारतीय ग्रंथों में दो प्रकार की कला का जिक्र आता है, देव शिल्पकला एवं मानुषी शिल्पकला. देव शिल्पकला ईश्वर प्रदत्त है. सृष्टि का निर्माण प्रकृति ने किया, वह देव शिल्पकला है. देव शिल्पकला को देखकर अनुग्रहित की गई कला मानुषी शिल्पकला है. भारतीय ग्रंथों में वर्णित 64 कलाओं का अगर वाचन करें तो कोई भी कला छूटती नहीं है.

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