स्वतंत्रता सेनानी पं. बालमुकुन्द त्रिपाठी का नाम आते ही एक विस्मृत योद्धा का स्मरण हो आता है. पं. बालमुकुंद त्रिपाठी को सविनय अवज्ञा आंदोलन में समूचे महाकौशल प्रांत में सर्वाधिक लंबी सजा सुनाई गयी थी तथा कारावास से छूटने के पूर्व ही उन्हें भोजन में कांच मिलाकर दिया गया, जिससे उनकी आंतों को क्षति पहुंची, इस कारण 02 सितम्बर, 1932 को उनका निधन हो गया.
देश, काल और परिस्थितियाँ ही हमारे जातीय जीवन का निर्माण करती हैं तथा उसका निमित्त होते हैं वे लोग जो काल विशेष की गति का दिशा संधान करते हैं. अपनी जीवनधारा को युगानुरूप आदर्शों के साँचे में ढालकर, व्यक्ति विशेष के अपने संयम और समर्पण की यही नियोजित भावना उसके जीवन और व्यक्तित्व का आधार बनती है. जिसके द्वारा उसका मूल्यांकन हो सकता है.
महान व्यक्तित्वों की पंक्ति में विगत युग के गौरव का स्मरण कराने वाला एक नाम है – पं. बालमुकुंद त्रिपाठी. उनका जन्म 4 अप्रैल, 1895 को हुआ था. अध्ययन के उपरांत से ही बालमुकुंद त्रिपाठी जी का झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ और आपको इस क्षेत्र में श्लाघनीय कार्य करने के लिए तत्कालीन द्वारका पीठाधीश्वपर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी माधवतीर्थ द्वारा सुनीति भास्कर से विभूषित किया गया. परंतु जबलपुर में लोकमान्य तिलक के आगमन के उपरांत जीवन स्वाधीनता संग्राम के लिए समर्पित हो गया.
सूरत कांग्रेस अधिवेशन के पश्चात् लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक देश के युवकों के हृदय सम्राट बन गए और उनकी ओजमयी वाणी ने देश के युवकों में गरमदलीय विचार प्रवाह को पुरस्सर किया था.
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने हेतु जाते समय लोकमान्य 7 अक्तूबर, 1917 को जबलपुर पधारे. उनके प्रवास का लाभ लेते हुए नगर के स्वातंत्र्य प्रेमी नागरिकों ने उनके भाषण की आयोजन किया. इस आयोजन के सूत्राधारों में त्रिपाठी जी के साथ सर्वश्री सुरेशचन्द्र मुखर्जी, गणेश वासुदेव साने, नाथूराम मोदी, मनोहर कृष्ण गोलवलकर, डॉ. हर्षे, सूरज प्रसाद शुक्ल आदि थे. इसी सभा में पं. बालमुकुन्द त्रिपाठी की हस्तलिपि में लिखित एक मानपत्र लोकमान्य को दिया गया. उस समय ब्रिटिश साम्राज्यशाही का आतंक अपनी चरम सीमा पर था. कहते हैं कि उस सभा में भय-भावना से ग्रस्त नागरिक काफी कम संख्या में उपस्थिति हुए थे. उत्साही राष्ट्रधर्मियों ने साम्राज्यशाही के भय और आतंक से विचलित हुए बिना नगर में लोकमान्य के भाषण का आयोजन किया और उन्हें जातीय जीवन के आराध्य स्वरूप मानपत्र देकर सम्मानित भी किया.
गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के उपरांत झंडा सत्याग्रह एक प्रमुख आंदोलन के रुप में उभरा, जिसके निर्देशक मंडल में आपने प्रमुख भूमिका निभाई. आपके साथ तपस्वी सुंदरलाल, माखन लाल चतुर्वेदी, नाथूराम मोदी एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के निर्देशन में उस्ताद प्रेमचंद, सीताराम जाधव, परमानंद जैन और खुशालचंद जैन ने 18 मार्च, 1923 को जबलपुर में सर्वप्रथम एक शासकीय इमारत विक्टोरिया टाउन हॉल में ब्रिटिश सरकार के यूनियन जैक की जगह भारतीय ध्वज फहराकर झंडा सत्यााग्रह का सूत्रपात किया.
परिणामस्वरूप डिप्टी कमिश्नर हेमिल्टन और कप्तान बम्बावाले ने तत्कालीन राष्ट्रीय झंडे का अपमान किया. इसलिए झंडा सत्याग्रह को बड़े स्तर पर चलाने के लिए नागपुर में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में व्यापक संगठनात्मक तैयारियाँ भी की गईं और झंडा सत्याग्रह ने वृहद् रूप ले लिया. झंडा सत्याग्रह कई मायनों में सफल रहा. स्थानीय निकायों में झंडा फहराने की अनुमति प्राप्त हुई.
सन् 1930 में देश व्यापी सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंभ होने पर इस आन्दोलन का संचालन भी त्रिपाठी जी ने अपने सक्रिय सहयोगियों के माध्यम से सफलतापूर्वक किया और क्रमबद्ध रूप में सेनानियों द्वारा सत्याग्रह होता रहा. उनके नेतृत्व में स्वाधीनता सेनानियों द्वारा सेना के प्रतिबन्धित क्षेत्र में पर्चे वितरित करने की योजना कार्यान्वित की गई और अन्ततोगत्वा ब्रिटिश साम्राज्यशाही के अधिकारियों की चिर प्रतीक्षित आकांक्षा की पूर्ति उनकी गिरफ्तारी के साथ हो सकी. इस प्रकरण के सन्दर्भ में त्रिपाठी जी को 14 जुलाई, 1930 को बन्दी बनाया गया और प्रथम श्रेणी दण्डाधिकारी योगलेकर द्वारा उन्हें दंडविधान की धारा 131 के अन्तर्गत राजद्रोह के अपराध में 3 वर्ष का सश्रम कारावास और 150 रुपये का अर्थदण्ड न देने पर चार माह की कैद की सजा दी गई. आन्दोलन में कुल 2225 गिरफ्तारियाँ हुई थीं. इनमें इतनी लम्बी अवधि की सजा पाने वाले वे पहले राजबन्दी थे. गाँधी जी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच समझौते के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त हुआ. सभी राजबन्दी रिहा हुए, किन्तु फिर भी त्रिपाठी जी को मुक्त न किए जाने पर गांधी जी को लॉर्ड इरविन को तार भेजना पड़ा. तब शासन के आदेश पर उनकी रिहाई सिवनी जेल से 8 अगस्त, 1931 को हुई. जेल प्रवास की अवधि का अधिकतर उपयोग उन्होंने स्वाध्याय और चिंतन में व्यतीत किया. जेल प्रवास की दैनन्दिनियां और उनके पत्रों से उनके शान्त चित्त और दृढ़ निश्चयी प्रकृति का परिचय मिलता है.
जेल प्रवास में भी उन्होंने अपने दैनिक आचार और संयम को बनाए रखा. अपनी गिरफ्तारी के बाद उन्होंने खादी के वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र धारण न करने तथा जेल का भोजन करने से अस्वीकार कर दिया और जेल में तीन दिनों तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया. फलतः उन्हें “बी” श्रेणी में भेजा गया और वांछित सुविधा प्रदान की गई.
पंडित बालमुकुंद त्रिपाठी जी की सक्रियता अंग्रेजों के लिए समस्याओं का पर्याय बन गई थी, इसलिए रिहाई के पूर्व ही भोजन में कांच मिलाकर दिया गया. जिससे उनकी आंतों को क्षति पहुंची. फलस्वरूप त्रिपाठी जी अस्वस्थ रहने लगे, कोई उपचार काम न आया और अंतत: 02 सितम्बर, 1932 को उन्होंने अंतिम सांस ली.
लेख़क – डॉ. आनंद सिंह राणा