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आक्रमणकारियों की बर्बरता का जीवंत प्रमाण ‘खंडित मंदिर’

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कहते हैं कि जिस वृक्ष पर मीठे फल होते हैं, उन पर ही अधिक पत्थर पड़ते हैं. भारत पर हुए लगातार विदेशी आक्रमण के मामले में यह बात बहुत सटीक बैठती है. भारत, जिसकी भूमि को विभाजित करने के बहुत प्रयत्न हुए, जिसकी संस्कृति को समाप्त करने के असफल प्रयत्न हुए, दुर्भाग्यवश उनमें से कुछ सफल भी हुए, किंतु अधिकांश प्रयत्नों को असफलता ही हाथ लगी. जिसका कारण सनातन संस्कृति के उपासक एवं प्रचारक असंख्य राष्ट्रभक्त रहे.

इसी सनातन संस्कृति में मंदिर की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है. एक ओर जहां वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में मंदिरों को मात्र मूर्ति पूजा तक सीमित कर दिया, वहीं दूसरी ओर बॉलीवुड फिल्म जगत ने मंदिर को अंधविश्वासियों का केंद्र दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. किसी भी पाठ्यापुस्तक ने यह बताने की हिम्मत नहीं दिखाई कि यह विराट मंदिर कैसे पुनः – पुनः विदेशी आक्रांताओं के प्रहार व असहिष्णुता का शिकार बने, इन बातों का जिक्र करना तो दूर, इन मंदिरों की उपयोगिता का भी जिक्र करने से कतराते रहे.

मंदिर ने एक सामाजिक – आर्थिक संस्था के रूप में लोककल्याण के लिए कार्य किया है. इसके प्रमाण हमें कईं जगह प्राप्त होते हैं. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ बिजनेस एंड मैनेजमेंट इन्वेंशन के वॉल्यूम 6 का इश्यू 7, जुलाई 2017 पेज 18-23 के इस शोध पत्र में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि “चोल साम्राज्य के शासन के दौरान तंजावुर बृहदेश्वर जैसे बड़े मंदिरों का निर्माण होता था. मंदिरों के निर्माण एवं और इसके रखरखाव हेतु बहुत से शिल्पकारों, वास्तुकारों को रोजगार प्रदान किया जाता था.

इसी के साथ मंदिर की नित्य प्रतिदिन की गतिविधियां पुजारियों, गायकों, गीतकारों, रसोइयों को लगातार रोज़गार प्रदान करती थीं. इसी के साथ मंदिर सामाजिक कल्याण के कार्यों में भी सक्रिय थे. साउथ आरकोट जिला, जांबाई गांव 1068 ईस्वी से प्राप्त एक शिलालेख (वीरराजेंद्र के शासन काल में लिखा गया) के अनुसार 500 कुली (‘कुली’ यह जमीन को मापने की एक इकाई के रूप में भारत के दक्षिण भाग में प्रचलित था.) जमीन मंदिर द्वारा ‘देवदान’ के रूप में गुजरात के ‘तगड़ी’ गांव में प्रदान की गई. साथ ही मंदिर की व्यवस्थाओं का ध्यान रखने वाले व्यक्ति को भी 40 कुली जमीन प्रदान की गई थी.”

गवर्नेंस एंड मैनेजमेंट ऑफ टेम्पल्स : ए फ्रेमवर्क, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट बंगलौर द्वारा प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार “मंदिर मात्र आध्यात्मिक और धार्मिक उपदेशों का केंद्र न होकर विज्ञान, व्याकरण, औषधीय विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान और भी बहुत से भिन्न – भिन्न शिक्षाओं का केंद्र था एवं यहां इन क्षेत्रों की प्रायोगिक तौर पर शिक्षाएं दी जाती थीं.”

कईं स्रोतो से ज्ञात होता है कि मंदिरों में प्रतिमा – विज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी, मंदिरों द्वारा समाज में चिकित्सालय और वर्तमान की बैंकिंग प्रणाली सफल रूप से व्याप्त थी. मंदिर, मूर्ति रखने का स्थान मात्र न होकर समाज कल्याण का केंद्र भी था. किंतु विदेशी आक्रमणकारियों ने सनातन आस्था को भयंकर व वीभत्स रूप में चोट पहुंचाई. असंख्य मंदिरों की दुर्दशा इन मूर्तिभंजकों ने इस प्रकार की कि उनकी व्याख्या निःसंदेह लोचन भिगो देंगी. ऐसे मंदिरों का वर्णन (जिन्हें तोड़कर मस्जिद बनाई गई) प्रफुल गोराड़िया जी द्वारा (प्रसिद्ध लेखक व राजनीतिज्ञ) अंग्रेज़ी भाषा में लिखित पुस्तक “हिन्दू मस्ज़िदस” में तथ्यों सहित किया गया है. ऐसे ही कुछ मंदिर का उल्लेख करते हैं 

कुव्वतुल मस्जिद – महरौली में हुए इस विनाश का प्रथम कारण मुहम्मद गौरी था. यह कुतुब मीनार के पास ही स्थित है. मस्जिद का नाम इसके निर्माता के नाम पर रखा गया है, कुतुबुद्दीन ऐबक, कुव्वतुल इस्लाम. इसी मस्जिद के बारे में ‘ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इस्लाम’ में लिखा है कि “दिल्ली में विशाल सामूहिक मस्जिद जिसे कुव्वत अल-इस्लाम के रूप में जाना जाता है, भारत में निर्मित पहली मस्जिद में से एक थी. 1191 में प्रारंभ हुई यह मस्जिद, एक पूर्व – इस्लामिक मंदिर की जगह पर खड़ी थी, जिसके खंडहर संरचना में शामिल किए गए थे. प्रांगण में एक लोहे का लंबा स्तंभ था, जो मूल रूप से भारतीय भगवान विष्णु को लगभग 400 ईस्वी पूर्व के आसपास समर्पित था, इसे हिन्दू धर्म पर इस्लाम की विजय के प्रतीक के रूप में फिर से खड़ा कर दिया गया था.”

कुव्वतुल मस्जिद 27 हिन्दू एवं जैन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई. यह हिन्दुओं के अपमान का एक स्मारक है. अलीगढ़ के सर सैय्यद अहमद खान, 27 मंदिरों के विध्वंस के बारे में अपनी ऊर्दू पुस्तक ‘आसार उस सनादीद’ गर्व से लिखते हैं – “राज पिठोरा का मूर्ति गृह कुव्वतुल इस्लाम को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया. मूर्ति को मंदिर से बाहर ले जाया गया. दीवारों, दरवाजों एवं खंभे पर गढ़ी गई कुछ छवियों को पूरी तरह से मिटा दिया गया, कुछ को विरूपित कर दिया गया……सत्ताईस मंदिरों की सामग्री, जिसकी कीमत पांच करोड़ चालीस लाख दिलवाल थी, का उपयोग मस्जिद निर्माण में किया गया.” वे आगे लिखते हैं – “जब सुलतान शमसुद्दीन (मुहम्मद गौरी) द्वारा विजय प्राप्त की गई, तब महाकाल की मूर्ति घर को ध्वस्त किया गया व उनकी मूर्ति को दिल्ली लाया गया, और उन्हें मस्जिद के दरवाज़े पर बिखेर दिया गया.”

ज्ञानवापी – श्री काशी विश्वनाथ मंदिर की वजह से बनारस दो हजार साल पहले से ख्याति प्राप्त है. इस मंदिर को 1194 से 1664 के बीच कईं बार तोड़ा गया. इसका उल्लेख पटना विश्वविद्यालय एवं हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे इतिहासकार डॉ. अनंत सदाशिव अल्टेकर की वर्ष 1936 में प्रकाशित पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बनारस’ में प्रमुखता से किया जा चुका है. विश्वेशर मंदिर 17वीं शताब्दी में औरंगजेब द्वारा भी तोड़ा गया था व उसी स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया और कईं वर्षों पश्चात रानी अहिल्याबाई होलकर जी ने मस्जिद के पास ही एक मंदिर का निर्माण कराया. मंदिर के उत्तरी भाग जहां महादेव का दरबार है, वहां के चबूतरे से बहुत से मूर्तियों का बड़ा संग्रह मलबे से मिला है.

बीजामंडल मस्जिद – प्रफुल जी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि “1991 की तेज बरसात में एक रात औरंगजेब द्वारा स्थापित 1882 की बीजामंडल मस्जिद की बाहरी दीवार गिर गई. यह मस्जिद विदिशा में स्थित है. इस टूटी हुई दीवार ने बहुत से हिन्दू मूर्तियों को उजागर किया, फलस्वरूप पुरातत्व विभाग को उत्खनन करना ही पड़ा. मस्जिद के उत्तरी भाग में जहां ईद के दिन इबादत की जाती थी, तीन शताब्दियों तक मूर्तियां उस चबूतरे के नीचे दबी रहीं. हालांकि पुरातत्व विभाग वालों का कार्य अधिक नहीं चल पाया क्योंकि अफ़सर का तबादला कर दिया गया. इस मंदिर को चार मुस्लिम शासकों के विध्वंस का सामना करना पड़ा, पहले 1234 इल्तुतमिश का, 1293 अलाउद्दीन खिलजी का, 1526 से 1537 के बीच सुल्तान बहादुर शाह का और अंततः 1658 में औरंगजेब का सामना करना पड़ा.

सुल्तान गढ़ी – यह मकबरा दिल्ली में स्थित है. यह मकबरा शहजादे नसीरुद्दीन महमूद, ममलूक वंश के सुल्तान इल्तुतमिश, के बेटे का है. भारतीय पुरातत्व विभाग के अफसर नकवी, जनवरी 1947 में लिखते हैं कि – “एक भवन जो मंदिर था, उसे मकबरे में तब्दील कर दिया गया. इस मकबरे के खंभों पर हिन्दू मोटिफ्स अर्थात चित्र दिखते हैं.” वे आगे कहते हैं कि – “गुम्बद, जिसमें आंतरिक रूप से हिन्दू रूपांकन उकेरे हुए हैं, का निश्चित रूप से पुनः उपयोग किया गया है.” भारतीय पुरातत्व विभाग के एक और अफ़सर, शर्मा जी 1964 के अपने शोध पत्र में लिखते हैं – “8वीं शताब्दी में या उससे थोड़ा पहले, सुल्तान गढ़ी के स्थान पर एक भव्य मंदिर हुआ करता था.”

जामा मस्जिद – कन्नौज की जामा मस्जिद के बारे में भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम अध्यक्ष, अलेक्जेंडर कनिंघम अपनी रिपोर्ट के वॉल्यूम 1 में लिखते हैं कि “कन्नौज की जामा या दीना मस्जिद को मोहम्मदीन इबादत के उद्देश्य के अनुरूप पुनर्व्यवस्थित किया गया, और इस राय में मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि यह मूल रूप से काफी महत्व के किसी हिन्दू भवन का स्थल रहा होगा.” इसी तरह इटावा की जामी मस्जिद में कई खंभों को एल्यूमीनियम के पेंट से धोया गया है. इसके बारे में मणिपुर जिले के जज, सी. होम लिखते हैं कि – “जामी मस्जिद मूल रूप से हिन्दू स्थान था.”

इस प्रकार संस्कृति के प्रतीक, समाज कल्याण के केंद्र, अर्चना एवं आस्था के केंद्र हमारे मंदिरों का बाहर से आए विदेशी आक्रांताओं (म्लेच्छों) द्वारा पुनः – पुनः अपमान किया गया. किंतु वर्षों के संघर्ष के पश्चात जिस प्रकार अयोध्या के राम मंदिर का पुनः भव्य निर्माण 5 अगस्त, 2020 से प्रारंभ हुआ है. इसी प्रकार एक- एक कर सभी मंदिरों का पुनः निर्माण होगा. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मंदिर के मामले में मुस्लिम पक्ष की याचिका को खारिज कर दिया है. यह प्रसन्नता के क्षण हैं. आवश्यकता है कि प्रत्येक सनातनी ‘धर्म निरपेक्षता’ के अपने भ्रम को तोड़कर अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीकों को पुनः निर्माण करने में अपना योगदान दें एवं भारत में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का दायित्व अपने कंधों पर लें.

लेख- जान्हवी नाईक

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