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समर्पितों के प्रति समर्पित श्रीराम

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राज चावला

श्री राम सबके हैं, समाज के हर वर्ग के हैं, हर श्रेणी के हैं, हर सम्प्रदाय के हैं, ये बात समझने के लिए श्री रामायण का पूरा सार ही संक्षिप्त में जान लेना पर्याप्त है. अयोध्या का राजकुमार, ऋषि वशिष्ठ का गुरुकुल, विवाह के पश्चात वनवास, अर्द्धांगिनी और भ्राता सहित वनगमन, जनकसुता का अपहरण और फिर लंकापति रावण से महासंग्राम, तत्पश्चात अयोध्या लौटना. इस पूरे कालखंड का ही अध्ययन हो तो सरलता से समझा जा सकता है – सब के राम.

श्री राम हर अयोध्यावासी के ही राजा नहीं थे, अयोध्या से बाहर निकले तो जहां-जहां भी पड़ाव बनता गया, राम वहां के होते गए. पंचवटी में कुटी बनाई तो संतों-सन्यासियों के रक्षक हो गए. माता सीता के अपहरण के बाद खोज में निकले तो श्रीराम परमभक्त हनुमान से लेकर अंगद और सुग्रीव के भी हो गए. वनवास में तो वे प्रकृति से भी वार्ता करते चलते, वन के हर जीव-प्राणी मात्र से भी उनका संबंध बनता गया. उदाहरण स्वरूप – गीधराज जटायू से उनका नाता कैसा था, यदि इस पर ही ध्यान देंगे तो समझ पाएंगे कि श्री राम ने लौकिक स्थिति से आगे जाकर भावनात्मक स्थिति के कारण संबंधों को सदा महत्व दिया. तब जो भी श्री राम का अनुसरण करता है, उसके लिए समाज के प्रति यही दृष्टि रहनी चाहिए.

जटायू को श्रीराम ने तात (पिता तुल्य) के स्थान पर रखा, माता सीता की खोज में मदद कर जटायू सहयोगी की भूमिका में भी थे और अंत में माता सीता की रक्षा में प्राण देने वाले जटायू रामायण के प्रथम बलिदानी बनकर सदा सदा के लिए अमर हो गए. इतना ही नहीं, जटायू ने अंतिम श्वास प्रभु की गोद में ही ली, तात जटायु का अंतिम संस्कार स्वयं प्रभु श्री राम ने अपने हाथों से किया. तब श्रीराम के लिए जटायू का क्या स्थान है, या उनके समान समाज में स्थिति रखने वालों को प्रभु श्री राम किस रूप में देखते हैं, इसे भी समझा जा सकता है.

श्री राम और जटायू के बीच संवाद पर भी ध्यान देंगे तो भी उसमें संबंधों की गरिमा व प्रेम भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है. पंचवटी में माता सीता के अपहरण के बाद जब श्रीराम माता सीता की खोज में दक्षिण के उस हिस्से में पहुंचते हैं, जहां के आकाश में जटायू और रावण के बीच संग्राम हुआ, तो वहां धरती पर घायल स्थिति में कराहते जटायू दिखते हैं. उस स्थिति में भी वो राम का स्मरण करते हैं. श्री रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में कहा गया है –

“कर सरोज सिर परसेउ, कृपासिंधु रघुबीर.

निरखि राम छबि धाम मुख, बिगत भई सब पीर॥”

कृपासागर श्री रघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया तो श्री राम जी का मुख देखकर जटायू की पीड़ा जाती रही.

“तब कह गीध बचन धरि धीरा, सुनहु राम भंजन भव भीरा.

नाथ दसानन यह गति कीन्ही, तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही.”

तब धीरज धरकर गीध ने कहा – हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री राम जी! सुनिए हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है. उसी दुष्ट ने जानकी जी को हर लिया है.

जटायू आगे कहते हैं –

“लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं, बिलपति अति कुररी की नाईं.

दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना, चलन चहत अब कृपानिधाना.”

हे गोसाईं! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है. सीता जी कुररी की तरह अत्यंत विलाप कर रही थीं. हे प्रभो! आपके दर्शनों के लिए ही प्राण रोक रखे थे. हे कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते हैं.

श्री रामचरितमानस के अनुसार अब प्रभु श्री राम पहली बार संबोधन में उन्हें तात कहते हैं. चौपाई में लिखा है –

“राम कहा तनु राखहु ताता, मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता.

जाकर नाम मरत मुख आवा, अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा.”

“सो मम लोचन गोचर आगें, राखौं देह नाथ केहि खाँगें.

जल भरि नयन कहहिं रघुराई, तात कर्म निज तें गति पाई.”

श्रीराम ने कहा – “हे तात! शरीर को बनाए रखिए.”

तब जटायू मुस्कुराते हुए कहते हैं – “मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं. वही मेरे नेत्रों के सामने खड़े हैं. हे नाथ! अब मैं किस कमी के लिए देह को रखूँ?”

नेत्रों में जल भरकर श्री रघुनाथ जी कहने लगे – “हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से (दुर्लभ) गति पाई है.”

अरण्यकाण्ड में आगे श्रीराम कहते हैं –

“परहित बस जिन्ह के मन माहीं, तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं.

तनु तिज तात जाहु मम धामा, देउँ काह तुम्ह पूरनकामा.”

“जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत्‌ में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है. हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम में जाइए. मैं आपको क्या दूँ? आप तो सब कुछ पा चुके हैं.”

अंत में जटायू गीध की देह त्यागते हैं और दिव्य रुप में आते हैं. पीताम्बर पहने, श्याम शरीर और विशाल चार भुजाएं हैं. नेत्रों में प्रेम तथा आनंद के आंसुओं के साथ वो श्रीराम की स्तुति कर रहे हैं. इधर, भगवान श्री राम जटायू के शरीर को गोद में रखते हैं, उनके शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ करते हैं और पक्षीराज की अंत्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न करते हैं.

इस पूरे संवाद में श्री राम ने जटायू को तात कहकर संबोधित किया. इसके पीछे कारण था कि जटायू का परिचय राजा दशरथ से पहले से ही था. पंचवटी में जब श्रीराम ने कुटिया सजाई तो वहां भी जटायू से एक बार मिलना हुआ. इसीलिए जटायू भले प्रतीक रुप में वन्य प्राणी समाज से थे, पर राम से उनका संबंध भक्त का था, उनके उद्देश्यों के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले बलिदानी का भी था, सहयोगी या मार्गदर्शक का था, और उससे भी बढ़कर तात का भी था. अंतिम क्रियाएं करने वाला तो पुत्र तुल्य ही हो सकता है तो प्रभु श्री राम ने पुत्र होने का भी कर्त्तव्य निभाया.

इस श्रृंखला के पहले लेखों में हमने निषाद राज, केवट व शबरी से भी श्रीराम के संबंधों की चर्चा की थी, तो यहां मनुष्य व वन्य प्राणी का अंतर होने के बाद भी श्री राम के भावों में इनमें से किसी के प्रति कोई अंतर नहीं आय़ा. श्रीराम जितने निषाद के थे, उतने केवट और शबरी के थे, तो उतने ही वे अरुण पुत्र जटायू के भी हैं.

अरुण सूर्य के सारथी हुए, उनके दो पुत्र थे, सम्पाति व जटायू. सूर्य की ओर उड़ान भरने के प्रयास में सम्पाति अपने पंख जला बैठे थे, मगर जानकी माता की खोज में निकले हनुमान, अंगद व जामवंत से भेंट होने के बाद उनकी शक्ति लौटी और उन्होंने दिव्य दृष्टि से माता सीता के अशोक वाटिका में सुरक्षित होने की सूचना दी. सम्पाति की भेंट भले श्री राम से नहीं हुई, मगर राम की सेवा में उनका भी अनुपम योगदान है. सम्पाति ने ही वानरों को लंकापुरी जाने के लिए प्रोत्साहित किया, इस प्रकार रामकथा में सम्पाति ने भी अपनी भूमिका निभाई और जटायू की तरह अमर हो गए.

यानी श्रीराम जितने लौकिक मनुष्यों के हैं, उतने ही इस लोक के वन्य प्राणियों के भी हैं. जटायू और सम्पाति का सेवा भाव, व परमभक्त हनुमान का समर्पण ऐसे कितने ही उदाहरण हो सकते हैं – जिनका अध्ययन गहराई से करेंगे तो पाएंगे – राम सबके हैं.

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