पिछले अंक में हमने वेटिकन में पहले के दो पोप को संतई की उपाधि देने की चर्चा की थी. वेटिकन के अनुसार, उस कार्यक्रम में दस लाख लोग उपस्थित थे. किसी पंथ की शीर्ष गद्दी अपने यहां किसी पहले रहे पांथिक प्रमुख को संत या जो भी उपाधि दे, यह उस पंथ और उसके अनुयायिायों का अपना अंदरूनी मामला है, पर भारत जैसै सौ से अधिक छोटे-बड़े देशों का अगर कोई पोप शत-प्रतिशत ‘ईसाईकरण’ करने का विचार रखता था, जिससे उन देशों की संप्रभुता को ही चुनौती मिलती थी, तो ऐसे में वेटिकन में सम्पन्न हुये उस कार्यक्रम की बारीक पड़ताल करनी आवश्यक है.
‘इक्कीसवीं सदी में संपूर्ण भारत का ईसाईकरण करेंगे’, यह प्रतिज्ञा करने वाले दो दिवंगत पोप को ही अभी वेटिकन ने ‘संत पदवी’ प्रदान की है और उसी धारा में तीसरे पोप को ‘संत पद’ प्रदान करने की घोषणा होगी, वह आज के पोप फ्रांसिस की उस कार्यक्रम की समाप्ति से पूर्व की एक बात साफ होती है कि भारत का ईसाईकरण फिलहाल वेटिकन के एजेंडे में मौजूद है. भारत में जिस पद्धति से हर शहर और हर जिले में यह काम होता हुआ दिखता है, उसके पीछे वेटिकन के उनके मुख्यालय का क्या चिंतन है, इसकी थाह लेनी आवश्यक है. जिन्होंने भारत के लोकजीवन में पिछले कुछ शतकों में पांथिक आक्रमण किया, उन्हीं की दखल साठ-पैंसठ वर्षो से यहां की सरकारों में रही, यह सब जानकारी होने के बावजूद भी उन आक्रामकों के बारे में कुछ बोलना जुर्म माना जा सकता है. इसलिये ‘भारत के संपूर्ण ईसाईकरण की घोषणा के कारण ही इन पोप को संत पद मिला, ऐसा कहना भर भारत में सामाजिक अपराध कहा जा जा सकता है. वास्तव में भारत के सेकुलरों को छोड़कर, दुनिया के ईसाई देश तक इस संभावना पर विश्वास करेंगे, लेकिन भारत में इस तरह की बात करना भी अपराध माना जाएगा.
पोप तेईसवें और पोप जॉन पाल द्वितीय को अभी संत पदवी दे दी गई, उसी तरह पोप षष्टम को भी संत पदवी देने का प्रस्ताव हाल ही में पारित हुआ है और उसका आयोजन आने वाली 18 अक्तूबर को किया जाना है. ये छठे पोप पाल वही हैं जो सन् 1964 में मुंबई में हुये युखारिस्टिक सम्मेलन में उपस्थित थे. ये वे ही थे जिन्होंने भारत का ईसाईकरण करने का आह्वान किया था. उनकी इस घोषणा के बाद भी उस समय के तमाम शीर्ष नेता और कई केंद्रीय मंत्री उनके स्वागत में मौजूद थे. युखारिस्टिक सम्मेलन की भारत में तैयारी करने वाले कार्डिनल ग्रेशस उसके आयोजक थे. ‘इंडिया विल बी लैंड ऑफ क्राइस्ट’, यह घोषणा करने वाले पोप को भारत में प्रवेश भी नहीं देना चाहिये, इसके लिये उस समय राष्ट्रवादी संगठनों ने आंदोलन किया था. युखारिस्टिक सम्मेलन के लिये आज से पचास वर्ष पूर्व पूरे विश्वास से भरे बीस हजार प्रतिनिधि आये थे. उस समय इस पर उतना गौर नहीं किया गया, लेकिन उसके बाद बीते पचास वर्ष में उसका कितना प्रचंड असर हुआ है, उस ओर भी आज तक किसी ने ध्यान नहीं दिया. पोप षष्टम के भारत में आने की पृष्ठभूमि यह थी कि अभी संत पदवी पाने वाले पोप तेईसवें की अगुआई में संपन्न सेकिंड वेटिकन परिषद रोम में अंतिम चरण में थी और तभी भारत में यह सम्मेलन संपन्न हो रहा था. उस सेकिंड वेटिकन का महत्व केवल भारत तक सीमित नहीं था. इसका कारण उससे पूर्व के करीब पंद्रह वर्ष के दौरान विश्व में ऐसी संभावना व्यक्त हो रही थी कि अनेक देशों में यूरोप की गुलामी समाप्त होने के कारण वहां के मिशनरियों को भी निकाल दिया गया था. ऐसे में कहीं आने वाले पचास वर्षो में पूरा ईसाई जगत न समाप्त हो जाये इसलिये चर्च के मठाधीशों ने प्रत्येक देश की संस्कृति एवं समाज के संवेदनशील मुद्दों का उपयोग कर विश्व में दुबारा छा जाने का एक महवाकांक्षी कार्यक्रम तैयार किया गया. यह सेकिंड वेटिकन परिषद शुरू हुआ तब स्वाभाविक रूप से पोप तेईसवें पद पर थे. लगभग पांच वर्ष तक चले इस खास परिषद के समापन से पूर्व पोप तेईसवें का निधन हो गया. इसलिये उनके लंबे समय तक सहयोगी रहे आर्चबिशप मोंटिनी उनके बाद पोप पाल षष्टम पद पर आये एवं उन्होंने वह काम अगले पंद्रह वर्ष में पूर्ण किया.
सेकिंड वेटिकन परिषद चार वर्षो तक चली़, पर उसकी तैयारी का वक्त भी जोड़ लें तो उसकी अवधि आमतौर पर पांच वर्ष की मानी जाती है. किसी परिषद का पांच वर्षो तक जारी रहना वैश्विक स्तर पर चमत्कार हो सकता है, लेकिन विश्व के अनेक देशों में यूरोपीय देशों का वर्चस्व खत्म होने के सदमे से पोप पद के डगमगाते भरोसे को उबारने की प्रक्रिया निश्चित करने के लिये यह अवधि काफी ज्यादा थी. उस परिषद के समापन के बाद उसे वास्तविकता में बदलने के लिये पहले चरण में एक सदी एवं उसके बाद एक सहस्राब्दि के चरण भी निश्चित किये गये. कोई परिषद एक सदी और एक सहस्राब्दि का कार्यक्रम निश्चित कर सकती है, यह विश्वास करना भी कठिन है, लेकिन वेटिकन की मशीनरी, जो ‘पेपासी’ के नाम से जानी जाती है, ने कुछ सदियों तक के अनेक कार्यक्रम तय कर रखे हैं. पोप जॉन पाल द्वितीय ने भारत में अपने पहले भाषण में घोषित किया था, ‘पहली सहस्राब्दि में हमने यूरोप का ईसाईकरण किया, दूसरी सहस्राब्दि में अमरीका, अधिकांश अफ्रीका एवं आस्ट्रेलिया को ईसाई बनाया और अब तीसरी सहस्राब्दि में हम एशिया एवं खासकर भारत को ईसाई बनाने का बीड़ा उठाते हैं’. यह घोषणा ही बताती है कि ‘पेपासी’ के अनेक कार्यक्रम सदियों एवं सहस्राब्दि के होते हैं. इस विवेचन का उद्देश्य यही बताना है कि कोई प्रणाली कुछ हजार वर्षो का एजेंडा सामने रखकर किस तरह काम करती है. जब पोप जॉन पाल द्वितीय ने ‘अब भारत का ईसाईकरण करेंगे’ यह घोषणा की थी तब कुछ ही घंटों के भीतर राष्ट्रवादी संगठनों ने प्रत्युत्तर दिया कि ‘हम यह चुनौती स्वीकार करते हैं’. एक तरफ ‘पेपासी’ का प्रचार बढ़ रहा है लेकिन दूसरी तरफ उनकी करनी का उचित प्रतिकार करने वालों की भी कमी नहीं है. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ हजार वर्ष पूर्व विस्तारवाद, नरसंहार और भयंकर लूट का इतिहास रहीं मशीनरियां अगर हमसे आज भी वैसा ही बर्ताव करने वाली हैं तो उससे सावधान तो रहना ही होगा. किसी व्यक्ति को संत बताने से क्या फर्क पड़ता है, इसका उत्तर हमें तुरंत नहीं मिलेगा. पांच सौ वर्ष तक भारत में नरसंहार एवं अपूर्व यातनाओं द्वारा अपने पंथ का प्रसार करने वाले जेवियर को बाद में सेंट जेवियर बनाया गया. आज उनके नाम पर संस्थाओं एवं कांवेंटों की संख्या पांच हजार से अधिक है. भारत में ईसाई मिशनरियों की प्रेरणा वहीं से शुरू होती है. विश्व में यूरोपीय देशों की गुलामी समाप्त होने के बाद पूरे ‘पेपासी’ की पुनर्रचना करने वाले तीनों पोप को ‘संत’ पदवी क्यों दी गई, इसका अर्थ अब सामने आयेगा.
अपना पंथ का प्रसार करना यानी पूरे विश्व का ईसाईकरण करना ही एकमात्र उद्देश्य रखने वाली वेटिकन की मशीनरी के पीछे यूरोप एवं अमरीका जैसे देश अपनी अपनी पूरी शक्ति से खड़े हैं और उनका भी आगे की कई सदियों का एजेंडा है. यही आज तक का इसका इतिहास है. ‘ब्रेकिंग इंडिया’ द्वारा दी गई सावधान रहने की चेतावनी के अनुसार अनेक सदियों तक दुनिया को लूटने का स्वाद चख चुके ये देश उस लूट का पूरा अवसर पुन: मिलने तक कोई कसर बाकी नहीं छोडे़ंगे. इन देशों ने अनेक देशों में विश्वविद्यालयों, बैंकों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक शोध संस्थाओं और मीडिया के माध्यम से यह घुसपैठ जारी रखी हुई है. वास्तव में भारत की युवा पीढ़ी को इस विषय की गहराई में जाने की आवश्यकता है, क्योंकि इस आक्रमण का जितना खतरा भारत पर है वैसा ही खतरा दूसरे कई देशों पर भी है. हर देश की स्थिति अलग होने पर भी उन परिस्थितियों को आजमाते हुये खोया हुआ साम्राज्य पुन: प्राप्त करने का युद्ध जारी है. भारत के नेता इस विषय पर गंभीरता से सोचते हुये नहीं दिखते. उसी तरह मीडिया भी इसे अनदेखा कर रहा है. इस खतरे का पूरी ताकत से सामना करने की आवश्यकता है. प्रत्येक देशभक्त को इसके लिये आगे आना होगा.
सौजन्य:panchjanya.com