श्री राम गुरुकुल में पढ़ते थे. उनके साथ श्रृंगेरपुर के रहने वाले श्री गुह निषाद भी गुरुकुल में पढ़े. अध्ययन के पश्चात राम अयोध्या वापस जाने वाले थे, तो उनके परम मित्र गुह जो सदैव राम के साथ ही रहते थे, खाते पीते, खेलते-पढ़ते थे. राम से दूर होने की बात पर गुह निषाद को बड़ा कष्ट होने लगा. वह दुःखी होकर सोचने लगे कि हम गुरुकुल में साथ रहते थे, पर जब राम अयोध्या चले जाएंगे, युवराज बन जाएंगे, तब मैं उनके पास भी नहीं जा सकूंगा, वो युवराज हो जाएंगे तो उनको छू भी नहीं सकूंगा. गुरुकुल में तो मैं उनको आलिंगन में भर लेता था, पर अब ऐसा नहीं होगा.
कल्पना कीजिए, वह गुरुकुल जहां छोटे से छोटे समाज का व्यक्ति पढ़ता था और राजा का पुत्र भी साथ में पढ़ता था. जहां कोई स्थिति, कोई वैभव, प्रेम के मध्य दीवार नहीं थी. सबको समानता थी. सब समान थे. गुरु की शरण में सब मिलकर श्रम करते थे और गुरुदेव से विद्या अर्जित करते थे.
ऐसे गुरुकुल से निषाद गुह और राम पढ़े. गुरुकुल से अयोध्या वापस जाने पर गुह ने कहा “श्री राम अब आप अयोध्या जाएंगे, वहां के राजा बन जाओगे, मैं आपसे वंचित हो जाऊंगा, दूर-दूर से ही आपको निहारूंगा”. यह सब सुन कर प्रभु श्री राम ने उसी समय चित्त में संकल्प किया.
श्री राम अयोध्या लौटे पर उनका चेहरा, घर सबसे मिलने की ख़ुशी से खिला हुआ नहीं था. पिता ने पूछा “राम आप अनमने क्यों हैं? आपके श्री मुख से श्री कहां गई?” तो श्री राम ने कहा “पिताश्री मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं, मुझे आप युवराज पद पर अभिषिक्त करें, उससे पहले मैं अपने मित्र गुह को श्रृंगेरपुर का राजा बना देखना चाहता हूं. क्या आप मेरी यह इच्छा पूरी करेंगे”? पिता ने हर्ष से भर कर कहा “मेरा राम जो चाहेगा वही होगा’. यह है मेरे प्रभु श्री राम की सौमनस्यता. स्वयं किसी पद को प्राप्त करने से पहले वह अपने मित्र को सम्मान देना चाहते हैं. जो पिछड़े हैं, वंचित हैं, उनको भी अपने जैसा बनाना जानते हैं. पहले निषाद गुह को श्रृंगेरपुर का राज्याभिषेक करवा कर निषादराज गुह नाम से अलंकृत किया, पश्चात राम अयोध्या के युवराज बने.
“ऐसे हैं मेरे राम” …