नई दिल्ली. डॉ. अन्ना साहब देशपांडे संघ के प्रारम्भिक कार्यकर्ताओं में से एक थे. उनका जन्म सात दिसम्बर, 1890 को वर्धा जिले के आष्टी गांव में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा नागपुर में होने के चलते उनकी मित्रता डॉ. हेडगेवार जी से हो गयी थी. उनकी भव्य कद-काठी और बोलने की शैली भी डॉ. जी से काफी मिलती थी. नागपुर के बाद वे अमरावती चले गये. वहां से इंटर साइंस करने के बाद उन्होंने मुंबई से एमबीबीएस की उपाधि ली. इस प्रकार प्रशिक्षित चिकित्सक बनकर उन्होंने अमरावती जिले के परतवाड़ा में अपना चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया. चार वर्ष बाद उन्होंने आर्वी को अपना निवास बनाया. जब डॉ. जी ने संघ की स्थापना की, तो अन्ना साहब पूर्ण निष्ठा से उनके साथ जुड़ गये.
अन्ना साहब ने चिकित्सा कार्य करते हुए भरपूर यश अर्जित किया. चिकित्सा करते समय वे गरीबों के साथ विशेष सहानुभूति का व्यवहार करते थे. उन्हें प्रायः दूर-दूर के गांवों में मरीज देखने जाना पड़ता था, पर उन्होंने कभी इसके लिए अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया. संघ के सक्रिय कार्यकर्ता होने के बाद भी स्थानीय मुसलमानों का सर्वाधिक विश्वास उन्हीं पर था. अन्ना साहब संघ के साथ ही कांग्रेस तथा अन्य सामाजिक कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे. आर्वी में उन्होंने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की. वर्ष 1928 से 30 तक वे स्थानीय बोर्ड के अध्यक्ष रहे. गांधी जी के आह्वान पर जंगल सत्याग्रह और फिर नमक सत्याग्रह में भाग लेकर वे जेल गये. वर्ष 1948 में जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तब भी उन्होंने जेल यात्रा की.
शाखा वृद्धि के लिए अन्ना साहब का प्रवास पर बहुत जोर रहता था. वृद्ध होने पर जब कोई उन्हें अब प्रवास न करने को कहता, तो वे जवाब देते थे कि मुझे यह सब करने दीजिये. इससे मैं कुछ और समय तक जीवित रह सकूंगा. प्रवास में वे अपना सामान किसी दूसरे को नहीं उठाने देते थे. उन पर विभाग संघचालक की जिम्मेदारी थी. किसी शिविर या बैठक आदि में उनके बुजुर्ग तथा संघचालक होने के नाते ठहरने की व्यवस्था यदि अलग की जाती थी, तो वे कहते थे कि आप मुझे सब लोगों से दूर क्यों रखना चाहते हैं ? मैं सबके साथ ही ठीक हूं. अन्ना साहब का मनोबल बहुत ऊंचा था. उनका मत था कि हमें हर परिस्थिति में संघ कार्य करते रहना चाहिए.
वर्ष 1960 में आर्वी में लगे संघ शिक्षा वर्ग में वे सर्वाधिकारी थे. इस बीच चोरों ने उनके घर में सेंध लगाकर 35,000 रु. चुरा लिये. इसका मूल्य आजकल संभवतः 35 लाख रुपये के बराबर होगा. यह उनकी न जाने कितने वर्ष की बचत थी, पर स्थितप्रज्ञ अन्ना साहब यह कहकर फिर काम में लग गये कि अच्छा हुआ, भगवान ने दीवाला निकालकर सब झंझटों से मुक्त कर दिया. एक बार संपूर्ण विदर्भ प्रांत का बड़ा सम्मेलन हो रहा था. 10,000 स्वयंसेवक आये थे. संघचालकों के आवास के पास आधा खुदा हुआ एक कुआं था. वे उसमें गिर गये. कुएं में पानी बहुत कम था. लोगों ने उन्हें बाहर निकाला, तो उनकी पीठ पर काफी चोट लगी थी. उन्होंने वहां दवा लगाई और गणवेश पहन कर संघस्थान पर चले गये. यह समाचार मिलते ही गुरुजी उन्हें देखने आये, तो पता लगा कि अन्ना साहब तो शाखा पर गये हैं. एक बार जिस बैलगाड़ी पर वे यात्रा कर रहे थे, वह उलट गयी. उसके बाद चोट ठीक होते ही वे फिर प्रवास करने लगे. अंतिम सांस तक सक्रिय रहते हुए अन्ना साहब ने 25 नवम्बर, 1974 को अंतिम सांस ली.