नागपुर. संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर संस्कृत को आधिकारिक भाषा बनाने के पक्ष में थे और उन्होंने संविधान सभा में प्रस्ताव रखा था. लेकिन उनके प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाई.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एसएस बोबड़े ने बुधवार को एक कार्यक्रम में कहा कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संस्कृत को आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था. आंबेडकर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को अच्छी तरह समझते थे और यह भी जानते थे कि लोग क्या चाहते हैं. मुख्य न्यायाधीश बुधवार को महाराष्ट्र राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (एमएनएलयू) के शैक्षणिक भवन के उद्घाटन के दौरान संबोधित कर रहे थे.
संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘आज सुबह मैं थोड़ा उलझन में था कि किस भाषा में मुझे भाषण देना चाहिए. आज डॉ. आंबेडकर की जयंती है जो मुझे याद दिलाती है कि बोलने के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली भाषा और काम के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के बीच का संघर्ष बहुत पुराना है.’ ‘सर्वोच्च न्यायालय को कई आवेदन मिल चुके हैं कि अधीनस्थ अदालतों में कौन सी भाषा इस्तेमाल होनी चाहिए, पर मुझे लगता है कि इस विषय पर गौर नहीं किया गया है.’
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘लेकिन डॉ. आंबेडकर को इस पहलू का अंदाजा हो गया था और उन्होंने यह कहते हुए एक प्रस्ताव रखा कि भारत संघ की आधिकारिक भाषा संस्कृत होनी चाहिए. आंबेडकर की राय थी कि चूंकि उत्तर भारत में तमिल स्वीकार्य नहीं होगी और इसका विरोध हो सकता है जैसे दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध होता है. लेकिन उत्तर भारत या दक्षिण भारत में संस्कृत का विरोध होने की कम आशंका थी और यही कारण है कि उन्होंने ऐसा प्रस्ताव दिया, किंतु इसमें सफलता नहीं मिली.’
डॉ. आंबेडकर को ना केवल कानून की गहरी जानकारी थी, बल्कि वह सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से भी अच्छी तरह अवगत थे. ‘वह जानते थे कि लोग क्या चाहते हैं, देश का गरीब क्या चाहता है. उन्हें इन सभी पहलुओं की अच्छी जानकारी थी और मुझे लगता है कि इसी वजह से उन्होंने यह प्रस्ताव दिया होगा.’
एसए बोबड़े ने कहा कि प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘न्यायशास्त्र’ अरस्तू और पारसी तर्क विद्या से जरा भी कम नहीं है और कोई कारण नहीं है कि हमें इसकी अनदेखी करनी चाहिए और अपने पूर्वजों की प्रतिभाओं का लाभ ना उठाया जाए.
12-14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हुई थी चर्चा
संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान संविधान सभा में ‘भाषा’ के विषय पर 12-14 सिंतबर, 1949 को चर्चा हुई थी. इस प्रस्ताव पर सभा में दो पक्ष थे – एक पक्ष स्पष्ट रूप से संस्कृत को राज-भाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करता था, दूसरा पक्ष भी एकदम खिलाफ नहीं था. लेकिन उसके कुछ प्रश्न थे जैसे – संस्कृत को कैसे आम जनजीवन का हिस्सा बनाया जा सकता है?
12 सितंबर को चर्चा के दौरान संविधान सभा सदस्य नजरुद्दीन अहमद ने संस्कृत की जमकर प्रशंसा की थी. उन्होंने डब्लू.सी. टेलर, मैक्सम्युलर, विलियम जॉन, विलियम हंटर, प्रोफ़ेसर बिटेन, प्रोफ़ेसर बोप, प्रोफ़ेसर विल्सन, प्रोफ़ेसर थोमसन और प्रोफ़ेसर शहिदुल्ला जैसे विद्वानों के वक्तव्यों का उदाहरण देते हुए संस्कृत के महत्व पर प्रकाश डाला, और स्वयं भी स्वीकार किया कि, “वह एक बहुत उच्च कोटि की भाषा है.”