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क्या पहचान व पराक्रम से रहित मर्यादा संभव है?

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पिछले कुछ वर्षों में मर्यादा के अहिंसात्मक संस्करण को समाज में रोपने का सतत प्रयास हुआ है, और इसके कारण यह मान लिया गया कि मर्यादा का अर्थ अपनी पहचान के आग्रह को छोड़ना है. और मर्यादित व्यक्तित्व से पराक्रम और प्रतिरोध की तो कल्पना भी नहीं की जाती. क्या मर्यादा और पहचान, पराक्रम तथा प्रतिरोध एक दूसरे के विरुद्ध हैं? इसका उत्तर भगवान श्रीराम के जीवन से ही मिलता है क्योंकि वह मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं.

वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता स्वयंवर के बाद अगले दिन जब अयोध्या के लिए प्रस्थान किया तो शुभ और अशुभ दोनों शकुन होने लगे. इसी दौरान भृगुकुलनन्दन जमदग्नि कुमार परशुराम आते हैं. वह सीधे भगवान राम को सम्बोधित करते हुए वैष्णव धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए ललकारते हैं और यह भी कहते हैं कि यदि वह धनुष पर बाण चढ़ा लेते हैं तो उन्हें द्वंद्व युद्ध का अवसर दिया जाएगा. (द्वंद्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमहं तव)

मर्यादा पुरुषोत्तम अपने पिता की उपस्थिति के कारण तुरंत कुछ नहीं बोलते. फिर महाराज दशरथ परशुराम से अनुनय-विनय करते हैं. लेकिन परशुराम भंग धनुष का पूरा इतिहास बताकर, फिर से श्रीराम को ललकारते हैं. इस कारण पिता के मान को ध्यान रखकर मौन धारण किए हुए राम भी मौन नहीं रह सके. उन्होंने कहा –

वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेण भार्गव.

अवजानासि में तेजः पश्य मेद्य पराक्रमम्.

भावार्थ यह कि मर्यादा के कारण मैं संयत हूं, इसलिए आप मुझे पराक्रमहीन और असमर्थ समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं. इसलिए अब मेरा तेज और पराक्रम देखिये. अंततः उन्होंने तपस्या द्वारा अर्जित उनके पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया.

मर्यादा पुरुषोत्तम यहां स्पष्ट संदेश देते हैं, जब पहचान को आहत करने का प्रयास किया जाए और संयत स्वभाव के कारण स्थिति तिरस्कार तक पहुंच जाए तो तेज और पराक्रम दिखाना ही पड़ता है. मर्यादा की आड़ लेकर कुछ भी बोलने और थोपने वालों को मर्यादा पुरुषोत्तम का आचरण सदैव याद रखना चाहिए.

डॉ. जय प्रकाश सिंह

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