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जब प्रभु राम अयोध्या आए होंगे तो कैसा परिवेश रहा होगा..!!

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एक बानगी देखिये –

पूजित अक्षत कलश हमारे भी नगर आया. भक्त उसके स्वागत में प्रफुल्लित खड़े थे. हर कोई बस उस कलश को स्पर्श कर लेना चाह रहा था, हर कोई चाहे वो महिला हो, बच्चा हो, युवक हो या बुजुर्ग…

एक बुजुर्ग तो उसे स्पर्श कर भावुक हो रोने लगे कि मैंने 1992 में 25 दिन जेल में बिताए हैं. मुझे कुछ देर तो ये कलश थामने दो और उसके बाद उसे सिर पर रख लिया.

ये तो मात्र निमंत्रण के अक्षत हैं, राम के प्रति अथाह प्रेम जनमानस में दिख रहा है, जब राम आये होंगे तो कितना ही उत्साह रहा होगा, उल्लास रहा होगा, प्रकाश रहा होगा…

अयोध्या.

एक प्रश्न मन को सदैव रोमांच से भर देता है कि जब प्रभु राम अयोध्या आए होंगे तो वहां का परिवेश कैसा रहा होगा.

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से लेकर तुलसीकृत मानस और महर्षि कंबन तक ने अपने ग्रंथों में उस दृश्य का बड़ा ही अद्भुत वर्णन किया है और तब लगता है कि हे नाथ! मैं उन दृश्यों का प्रत्यक्षदर्शी क्यों न बन सका…

और जबसे कुछ सोचने समझने लायक हुआ हूँ. सदैव प्रभु राम की जन्मभूमि की दुर्गति के ही समाचार पढ़ना, देखना, स्थिति को जटिल होते ही देखता रहा.

1992 का विवादित ढांचे का ध्वंसीकरण हो या फिर केंद्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकारों का बनना, कुछ अवसर ऐसे जरूर आए, जब एक राम भक्त होने के नाते आशा की किरण प्रस्फुटित होते प्रतीत हुई. पर काल की गति के समक्ष आशाएं बौनी साबित हुईं और प्रतीक्षा बढ़ती गयी.

प्रतीक्षा उस गौरव के वापस आने की, जिसे लगभग 500 वर्ष पूर्व कुछ मलेच्छ आक्रांताओं ने छीन लिया था. प्रतीक्षा उस मंदिर के पुनर्निर्माण की जो कभी भारतवर्ष और हमारी संस्कृति का प्राण था. प्रतीक्षा हमारी संस्कृति की पुनर्स्थापना की और हमारे दिव्य स्थलों पर निर्विवाद पूजन और निडर जय के उद्घोष की.

हम खुद पर निरंतर होते आक्रमणों और कुछ स्वार्थी तत्वों के कारण तेजहीन से होने लगे थे. यहां तक कि जो विवाद समाप्त हो सकता था, उसे स्वार्थ और राजनीति की बलि चढ़ा दिया गया और हमारे पूजनीय स्थलों पर अतिशय अतिक्रमणों को मूक समर्थन मिलता रहा.

अंततः हमारे सांस्कृतिक केंद्र लोकतंत्र की बलि चढ़ गये और हमारे भगवान के प्रतिनिधि बन कर उनके भक्त न्यायालयों के दर पर वर्षों चक्कर काटते रहे.

वास्तव में, अब लाखों बलिदान और राजनीतिक इच्छाशक्ति का ही संकल्प बल है कि हम अपनी संस्कृति का गौरव न सिर्फ़ भारतवर्ष अपितु पूरे विश्व में बढ़ता हुआ देख रहे हैं.

कश्मीर के शारदा पीठ से लेकर दक्षिण के महाबलीपुरम के मंदिरों तक ध्यानाकर्षण करा राष्ट्रव्यापी अखंडता का परिचय दिया है और अयोध्या को लोकतांत्रिक तरह से विजित कर तुरंत काशी और मथुरा की गति को बढ़ा कर चरैवेति सिद्धांत का परिपालन किया है.

पर, क्या ये सफलता सिर्फ 2014 के सत्ता परिवर्तन मात्र से संभव हो सकी?

नहीं,

ये संभव हुआ वर्षों के उस संघर्ष से जिसे सामाजिक संगठनों ने साधु-संतों, प्रतिष्ठितजनों और आमजनमानस के साथ मिल कर किया.

यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण संभव हुआ हमारे पूर्वजों के उस त्याग से, उनके द्वारा छोड़ी विरासत को सहेजने से और उसके लिये अधिकार पूर्वक लड़ने से.

आज श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण अपने अंतिम चरण में है और श्रीरालला की प्राण प्रतिष्ठा का मूहुर्त सार्वजनिक है. जन-जन को अयोध्या आने का निमंत्रण दिया जा रहा है.

जब निधि समर्पण अभियान चल रहा था, तब विरोधी कह रहे थे कि ये चंदा इकट्ठा करके खा जाएंगे और मंदिर बन भी गया तो बस यही मौज काटेंगे, बाकी इन 10 रूपये की रसीद कटाने वालों को कोई पूछेगा तक नहीं.

अब श्री राम जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर पूजित अक्षत निमंत्रण के रूप में हर उस व्यक्ति तक पहुंचाने का संकल्प है, जिसने किसी भी तरह मंदिर निर्माण में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. स्वयंसेवक घर-घर जाकर सभी को अक्षत सौंप कर अयोध्या आने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं. इस विश्वव्यापी अभूतपूर्व क्षण की प्रत्यक्षदर्शिता के लिये सादर आमंत्रित भी है.

लेख के प्रारंभ में मैंने कल्पना की थी कि जब राम अयोध्या वापस आए होंगे तो कैसा परिवेश रहा होगा, एक बानगी देखिये –

पूजित अक्षत कलश हमारे भी नगर आया. भक्त उसके स्वागत में प्रफुल्लित खड़े थे. हर कोई बस उस कलश को स्पर्श कर लेना चाह रहा था, हर कोई चाहे वो महिला हो, बच्चा हो, युवक हो या बुजुर्ग…

एक बुजुर्ग तो उसे स्पर्श कर भावुक हो रोने लगे कि मैंने 1992 में 25 दिन जेल में बिताए हैं. मुझे कुछ देर तो ये कलश थामने दो और उसके बाद उसे सिर पर रख लिया.

ये तो मात्र निमंत्रण के अक्षत हैं, राम के प्रति अथाह प्रेम जनमानस में दिख रहा है, जब राम आये होंगे तो कितना ही उत्साह रहा होगा, उल्लास रहा होगा, प्रकाश रहा होगा…

हम आज भी राम के अयोध्या प्रवेश की तिथि पर दीपावली मना रहे हैं. यह है राम के अयोध्या की धरती पर प्रवेश का महत्व और राम त्रेतायुग से दो युग बीतने बाद भी इस संस्कृति के लिये कितने आवश्यक हैं, यह इसी से समझ लीजिए कि आज हिन्दुत्व की विश्वव्यापी एकता का पर्याय राममंदिर आंदोलन है.

पर, यह आंदोलन तो एक प्रारंभ है. उस राम काज का जो विगत काल में हमारे पूर्वजों से अधूरा छूट गया था. बाबा तुलसी चुपके से इशारा कर गये थे कि, ‘राम काज कीजै बिना मोहि कहां विश्राम’.

विट्ठल

#रामलला #अयोध्या #राममंदिर

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