करंट टॉपिक्स

विविधता है, भेद नहीं, इसी आधार पर हम सबको साथ लाते हैं’

Spread the love

Manmohan Vaidya jiशाखा यानी टहनी, इस टहनी को संभालने वाला संघवृक्ष कैसा है ? इसके कार्य की प्रकृति और आयाम क्या हैं, यह जानने के क्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य जी से बात की, प्रस्तुत हैं वार्ता के प्रमुख अंश……..

प्रश्न – संघ के नाम पर कुछ लोग नाक – भौं  चढ़ाते हैं, कुछ इसे रचनात्मक शक्ति कहते हैं, आपने संघ के प्रचारक के रूप में जीवन दिया है, आपने संघ को कैसा पाया ?

उत्तर – रा.स्व.संघ राष्ट्र के पुनर्निर्माण में लगा है, यह रचनात्मक कार्य ही है. संघ की आलोचना पहले से होती आ रही है. डॉ. हेडगेवार जी कहते थे कि संघ की प्रशंसा हमारा उत्तरदायित्व बढ़ाने वाली है और संघ की आलोचना आलोचक की अज्ञानता का निदर्शक है, ऐसा मानकर चलना चाहिए. आज जो लोग नाक-भौं चढ़ाते हैं, उसमें तीन प्रकार के लोग हैं. एक वे जो संघ के बारे में जानते ही नहीं हैं, या गलत जानकारी रखते हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं. दूसरा वे जो किसी व्यक्तिगत स्वार्थ से ऐसा कह रहे हैं, और तीसरे वह जो प्रामाणिक नहीं हैं और संघ के बारे में जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं. उदाहरण के लिए एक माह पूर्व  तमिलनाडु में द्रविड़ कजगम के एक नेता को संघ के एक उत्सव में प्रमुख अतिथि के नाते बुलाया गया था. द्रविड़ कजगम मुख्यतः हिन्दुत्व का विरोध करने वाला संगठन है. वह नेता उत्सव में आए और उन्होंने अपने भाषण में कहा  ‘मैं कुछ माह पूर्व शाखा बंद करने के लिए यहां आया था. मेरे संगठन के लोगों ने कहा था कि यहां आरएसएस का समाज में विद्वेष खड़ा करने वाला कार्य शुरू हो रहा है, जब मैं बंद करवाने आया तो देखा कि यहां तथाकथित उच्च व निम्न वर्ग (जिनको समाज अस्पृश्य कहता है) के बालक एक साथ खेल रहे हैं, हंस रहे हैं, एक साथ कार्यक्रम कर रहे हैं. यह देखकर बड़ा आश्चर्य और साथ ही आनंद भी हुआ. मन में आया कि हमारे पेरियार (रामास्वामी नायकर जो द्रविड़ आन्दोलन के प्रवर्तक थे) का तो यही ध्येय था. वे एक जातिविरहित समाज की रचना करना चाहते थे, यह कार्य हम नहीं कर सके, लेकिन संघ कर रहा है. इसलिए मैं सब के लिए मिठाई ले कर आया हूं.’ उन सज्जन में प्रामाणिकता थी. उन्हें संघ कार्य अच्छा दिखा तो उन्होंने इसे स्वीकारने में भी संकोच नहीं किया. ऐसे बहुत से अनुभव हैं. बाकी संघ तो रचानात्मक कार्य में लगा हुआ है. व्यक्ति में राष्ट्रीय दृष्टि विकसित करते हुए एक संगठित राष्ट्रीय समाज की शक्ति निर्माण करना और उसके बलबूते पर देश हर क्षेत्र में आगे बढ़े इसी कार्य में संघ लगा हुआ है.

प्रश्न – संघ में सभी आयु, वर्ग के लोग शामिल हैं. देश के हर प्रान्त, जिले, तहसील और प्रखंड स्तर पर इसका कार्य है. पीढ़ी, भाषा, खान-पान, आचार-विचार की इतनी विविधता के बीच संघ में सामंजस्य कैसे बैठाते हैं?

उत्तर – हम सब में विविधता और बहुलता है. इसके साथ ही सभी को स्वीकार्य समान सूत्र भी काफी हैं. समानता के इन्हीं बिन्दुओं के आधार पर हम सब को साथ लाते हैं और एक लक्ष्य की ओर, एक विचार लेकर चल सकते हैं. इतनी विविधताओं के बीच हम सब के जीवन का दृष्टिकोण और उद्देश्य एक है और हमारे जीवनादर्श समान हैं. अच्छा क्या है और बुरा क्या है, इस पर हम एक मत हैं. ऋषि-मुनियों के कारण एक वैचारिक अधिष्ठान हम सबके जीवन में पीढ़ियों से आया है. संपूर्ण देश में, सभी भाषा- भाषी लोगों में, सभी जाति के लोगों में, सभी आयु वर्ग के लोगों के मन को यह बात सहजता से छूने वाली है, इस समान सूत्र को लेकर हम सबको परस्पर जोड़ते हैं. विविधता है, भेद नहीं है. इस सामान्य सूत्र को पहचानकर उस समानता के सूत्र को मजबूत करना. ऐसा करने से यह आसानी से होता है. एक भव्य उदात्त लक्ष्य सामने रखकर उसके लिए कार्य करना है, यह भाव मन में आता है. अनेक बार हम ऐसे कार्यकर्ता संघ में देखते हैं कि जो स्वयं को पीछे रखकर बाकी लोगों को आगे बढ़ाते हैं. ऐसे आदर्श को देख स्वयंसेवक उसकी बात मानता है और छोटे-मोटे भेदों को दूर रखकर वह जीवनभर इस कार्य में लगा रहता है.

प्रश्न – क्या व्यक्ति या घटनाओं के कुछ ऐसे उदाहरण हमारे पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे, जहां संघ कार्य का अनूठापन आपने अनुभव किया?

उत्तर – ऐसे असंख्य अनुभव हैं. तेलंगाना के प्रवास में प्रदीप नाम के एक कार्यकर्ता जो प्रवासी कार्यकर्ता के नाते मेरी बैठक में आए थे. उन्हें देखकर ध्यान में आया कि वह दृष्टि बाधित हैं. समय मिलने पर मैंने उनसे पूछताछ की तो बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह जन्म से अंधे हैं. वे  शिशु अवस्था से संघ के स्वयंसेवक रहे हैं और तीन वर्ष तक शाखा में मुख्य शिक्षक के नाते कार्य किया है. उन्होंने सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर करने के पश्चात संघ के प्रचारक के नाते सेवा विभाग में कार्य किया. आज वे  सरकार की एक संस्था में पीआरओ के नाते कार्य कर रहे हैं और संघ के लिए दायित्व लेकर प्रवास भी कर रहे हैं. यह केवल एक उदाहरण है. ऐसे असंख्य कार्यकर्ता हैं. ऐसे स्वयंसेवक हर जगह, हर पीढ़ी में देखने को मिलते हैं.

प्रश्न – संघ की प्राथमिकता क्या है, सेवा, व्यक्ति निर्माण , वैचारिक बदलाव अथवा और भी कुछ?

उत्तर – वैचारिक बदलाव व सेवा यह सब व्यक्ति निर्माण का ही हिस्सा हैं. उसके सोचने और सक्रियता में यह परिवर्तन दिखता है. समाज के लिए अपनेपन के भाव से निस्वार्थ बुद्धि से कार्य करना, यही तो संघ निर्माण करना चाहता है. संघ ने यही प्राथमिकता से चुना है. बाकी सारे आवश्यक कार्य ऐसे व्यक्तियों के द्वारा समाज का साथ लेकर अपने आप होते जायेंगे.

प्रश्न – 1925 से आज तक संघ के कार्य का देश और समाज पर क्या असर पड़ा है?

उत्तर – संघ की कार्य करने की एक शैली है. संघ केवल व्यक्ति को तैयार करेगा और उनकी एक राष्ट्रीय संगठित शक्ति खड़ी करेगा. इस शक्ति के प्रभाव से अनेक आवश्यक कार्य समाज करेगा. सो, ऐसे अनेक सकारात्मक कार्य है, जो संघ ने नहीं किये. किन्तु संघ नहीं होता तो ये कार्य नहीं होते. जैसे – आज कन्याकुमारी में  विवेकानंद शिला स्मारक खड़ा है. अगर संघ न होता तो वहां पर विवेकानंद स्मारक नहीं होता, यह पक्का है. हिन्दू समाज से अनेक बंधु अपनी किसी विवशता के कारण अन्य मतों में मतान्तरित हुए हैं. उनमें से अनेक की इच्छा वापस हिन्दू बनने की थी, परन्तु कई धर्माचार्य इसके पक्ष में नहीं थे. 1966 के हिन्दू सम्मेलन में धर्माचार्यों द्वारा प्रस्ताव पारित हुआ. वापस आने के उत्सुक सभी लोगों की घर वापसी पर धर्माचार्यों की सहमति हुई. यह करने वाले साधु सन्त, धर्माचार्य थे, लेकिन संघ नहीं होता तो यह संभव नहीं था.

1969 में उडुपी में सभी धर्माचार्यों ने मिलकर एक प्रस्ताव पारित किया कि हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता का कोई स्थान नहीं है. सभी हिन्दू सहोदर हैं, भाई-भाई हैं. ऐसा क्रान्तिकारी प्रस्ताव पारित हुआ. यह सब संघ के कारण ही संभव हुआ. जैसे अमरनाथ की जमीन फिर से प्राप्त करने के लिए एक बहुत बड़ा और अभूतपूर्व सफल आन्दोलन हुआ. आन्दोलन करने वाले संपूर्ण समाज के, सभी वर्गों के लोग थे. किन्तु संघ नहीं होता तो इस आन्दोलन को सफलता नहीं मिलती. तिरुपतितिरुमला देवस्थान संरक्षण या रामसेतु के संरक्षण के आन्दोलन समाज ने ही किये, सफलता भी मिली. परन्तु संघ ना होता तो यह नहीं होते. यह उन लोगों का अनुभव है, जो इन आंदोलनों में लगे थे. ऐसे असंख्य उदाहरण हम दे सकते हैं. यह संघ ने नहीं, बल्कि समाज ने किया है, लेकिन इसके समर्थन में समाज की शक्ति लगी, वह शक्ति निर्माण करने का कार्य संघ ने किया.

प्रश्न – संघ की नौ दशक लंबी यात्रा में बदलते समय के साथ काम करने के वातावरण और चुनौतियों में क्या अन्तर आया है?

उत्तर – समय की अनुकूलता अवश्य बढ़ी है. पहले यह अनुकूलता नहीं थी. पहले संघ के बारे में बड़ा ही गलत प्रचार किया गया था. जब पहला प्रतिबंध लगा तो सरकार, मीडिया और अधिकतर जनता भी संघ के खिलाफ थी. जनता को संघ के खिलाफ भड़काया गया था. 1975 में जब फिर से प्रतिबंध लगा तो सरकार तो खिलाफ थी, मीडिया मौन था, लेकिन जनता साथ में थी. 1992 में जब प्रतिबंध लगा तो जनता और मीडिया दोनों संघ के साथ में थे. धीरे-धीरे समाज में संघ का स्वागत हो रहा है. विश्वास बढ़ रहा है और अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं. यह परिस्थिति में फेरबदल है. अब बड़ी संख्या में नए लोग आ रहे हैं. मुख्य चुनौती यह है कि नई पीढ़ी को संघ के बारे में उसकी समझ में आये, ऐसी शब्दावली व परिभाषा में संघ समझाना. और दूसरा उनके पास समय कम है. आधुनिक तकनीक का उपयोग कर कम समय में कैसे समझाया जाए. वे यदि दैनिक शाखा में समयाभाव के कारण नहीं आ सकते हैं तो साप्ताहिक शाखा के माध्यम से वही कैसे दिया जाए, इसके प्रयोग करने पड़ेंगे. वह दैनिक शाखा में आ नहीं पाते. उनको शाखा में लाने का प्रयास करना पड़ेगा. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में आधुनिक उपकरण का उपयोग करने में  हिचक न पहले कभी थी और न आज है.

प्रश्न – संघ जिन्हें समविचारी संगठन कहता है उनकी क्या भूमिका है. संघ और इन समविचारी संगठनों के बीच कैसा संबंध है?

उत्तर – संघ चाहता है कि सम्पूर्ण समाज राष्ट्रीय दृष्टि से संगठित हो कर एक दिशा में चले. इस के लिए समाज के विविध क्षेत्रों को भी संगठित स्वरूप देना होगा. ये सब संगठन राज्याधारित न बन कर स्वतंत्र एवं स्वावलंबी बनें. इसलिए कुछ संगठन तो संघ के स्वयंसेवकों ने आरम्भ किए हैं, लेकिन धीरे-धीरे संपूर्ण समाजव्यापी संघ का विचार बने, सारा समाज इस दिशा में चले ऐसा मानना है. इन संगठनों से जो लोग जुड़ते हैं, इनमें सभी स्वयंसेवक हों ऐसा आवश्यक नहीं है, जैसे किसान संघ में किसान आना अपेक्षित है, यह जरूरी नहीं वह स्वयंसेवक हों. मजदूर संघ में मजदूर आएंगे, यह आवश्यक नहीं कि वह संघ के स्वयंसेवक हों. ऐसे ही सभी क्षेत्र में कई लोग आएंगे, जो संघ के स्वयंसेवक नहीं होंगे. यह संगठन स्वतंत्र संगठन हैं. उनके निर्णय, उनके कार्यक्रम वह स्वयं तय करते हैं. समानता यह है कि हमारा सभी का लक्ष्य एक है. हमारा वैचारिक आधार एक है. और जहां स्वयंसेवक हैं, वहां स्वयंसेवकों का और विचारधारा का संबंध है. एक दिशा में सब चल रहे हैं, एक साथ सब कार्य कर रहे हैं, एक ही समाज में कार्य कर रहे हैं. इसलिए आपस में कम से कम टकराव हो और सामंजस्य बना रहे, इसलिए बीच-बीच में आपस में मिलना चाहिए, एक दूसरे से मिलकर कार्यक्रमों की जानकारी लेना और अपने कार्यक्रमों की रचना करना. कभी कभी सब मिलकर कोई कार्यक्रम तय करते हैं, जैसे अभी स्वामी विवेकानंद सार्धशती के कार्यक्रम सभी ने साथ मिलकर किये. बाकी प्रत्येक संगठन के अपने-अपने कार्यक्रम स्वतंत्र होते रहते हैं.

साभार – पाञ्चजन्य

http://www.panchjanya.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *