नई दिल्ली. संघ कार्य के लिए जीवन समर्पित करने वाले वरिष्ठ प्रचारक सोहन सिंह जी का जन्म 18 अक्तूबर, 1923 (अश्विन शुक्ल 9, वि.सं. 1980) को ग्राम हर्चना (जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) में चौधरी रामसिंह जी के घर में हुआ था. छह भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. 16 वर्ष की अवस्था में स्वयंसेवक बने. वर्ष 1942 में बीएससी करते ही उनका चयन भारतीय वायुसेना में हो गया, पर उन्होंने नौकरी की बजाय प्रचारक बन राष्ट्र कार्य को स्वीकार किया.
वर्ष 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की विफलता से युवक बहुत उद्विग्न थे. उन दिनों सरसंघचालक श्री गुरुजी युवकों को देश के लिए समय देने का आग्रह कर रहे थे. उनकी प्रेरणा से दिल्ली के 80 युवक प्रचारक बने. उनमें सोहन सिंह जी भी थे. इससे पूर्व वे दिल्ली में सायं शाखाओं के मंडल कार्यवाह थे. वर्ष 1943, 44 और 45 में उन्होंने तीनों संघ शिक्षा वर्गों में शिक्षण लिया. प्रचारक बनने के बाद क्रमशः करनाल, रोहतक, झज्जर और अम्बाला में तहसील, करनाल जिला, हरियाणा संभाग और दिल्ली महानगर का काम रहा. वर्ष 1973 में उन्हें जयपुर विभाग का काम देकर राजस्थान भेजा गया. आपातकाल में वे वहीं गिरफ्तार हुए. इसके बाद वे 10 वर्ष राजस्थान प्रांत प्रचारक, वर्ष 1987 से 96 तक दिल्ली में सहक्षेत्र और फिर क्षेत्र प्रचारक, वर्ष 2000 तक धर्म जागरण विभाग के राष्ट्रीय प्रमुख और फिर वर्ष 2004 तक उत्तर क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख रहे. इसके बाद अस्वस्थता के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली.
वर्ष 1948 के प्रतिबंध काल में भी वे जेल गये थे. उन्हें जिस कोठरी में रखा गया, सर्दी में उसमें पानी भर दिया गया. ऐसी यातनाओं के बाद भी वे अडिग रहे. वर्ष 1965 के युद्ध के समय रात में दस बजे एक सैन्य अधिकारी ने संदेश भेजा कि अतिशीघ्र सौ यूनिट रक्त चाहिए. उन दिनों फोन नहीं थे, पर सोहन सिंह जी ने सुबह से पहले ही 500 लोग सैनिक अस्पताल में भेज दिये. वर्ष 1973 से पूर्व, हरियाणा में संभाग प्रचारक रहते हुए वे अनिद्रा और स्मृतिलोप से पीडि़त हो गये. इस पर राजस्थान प्रान्त प्रचारक ब्रह्मदेव जी उन्हें जयपुर ले गये. वहां के आयुर्वेदिक इलाज से वे ठीक तो हुए, पर कमजोरी बहुत अधिक थी. आपातकाल में जब वे जेल गये, तो कार्यकर्ताओं ने उनकी खूब मालिश की. इससे वे पूर्णतः स्वस्थ हुए. जेल में उनके कारण प्रशिक्षण वर्ग जैसा माहौल बना रहता था. इससे अन्य दलों के लोग भी बहुत प्रभावित हुए.
उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि हर आयु, वर्ग और स्तर के कार्यकर्ता उनसे खुलकर अपनी बात कह सकते थे. किसी भी विषय पर निर्णय करने से पूर्व वे धैर्य से सबकी बात सुनते थे. वे कार्यकर्ताओं को भाषण की बजाय अपने व्यवहार से समयपालन और जिम्मेदारी का अहसास कराते थे. राजस्थान के एक वर्ग में घड़े भरने की जिम्मेदारी जिस कार्यकर्ता पर थी, वह थकान के कारण ऐसे ही सो गया. सोहन सिंह जी ने रात में निरीक्षण के दौरान जब यह देखा, तो उसे जगाने की बजाय, खुद बाल्टी लेकर घड़े भर दिये. वे साहसी भी इतने थे कि लाठी लेकर 10-12 लोगों से अकेले ही भिड़ जाते थे.
सोहन सिंह जी का जीवन बहुत सादा था. राजस्थान और दिल्ली में भाजपा के राज में भी उन्होंने कभी किसी नेता या शासन का वाहन प्रयोग नहीं किया. वे रेलगाड़ी में प्रायः साधारण श्रेणी में ही चलते थे. वृद्धावस्था में भी जब तक संभव हुआ, वे कमरे की सफाई तथा कपड़े स्वयं धोते थे. कपड़े प्रेस कराने में भी उनकी रुचि नहीं थी. वे सामान बहुत कम रखते थे. यदि कोई उन्हें वस्त्रादि भेंट करता, तो वे उसे दूसरों को दे देते थे. दिल्ली में उन्होंने अपने कमरे में एसी भी नहीं लगने दिया. बीमारी में भी अपने लिए कोई विशेष चीज बने, वे इसके लिए मना करते थे. चार जुलाई, 2015 की रात में दिल्ली कार्यालय पर ही उनका निधन हुआ. मृत्यु के बाद उनके नेत्रदान कर दिये गये.