राष्ट्र सेविका समिति ने प्रतिनिधि सभा – 2016 में पारित किया प्रस्ताव
नागपुर. विश्व के सभी सुसंस्कृत देशों में वहां के प्रत्येक नागरिक के लिए एक जैसे कानून लागू होते हैं. पंथ, जाति, रंग, क्षेत्र या लैंगिक आधार पर किसी भी नागरिक में कोई अन्तर नहीं किया जाता. स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर भारत में भी होना तो यही चाहिए था, परन्तु दुर्भाग्य से तुष्टिकरण की नीति के कारण तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व ने देश हित का विचार न करते हुए भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने दी. अपनी इस कमजोरी के बावजूद भविष्य में समान नागरिक संहिता के निर्माण की सम्भावना को बनाए रखने के लिए डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 44 का प्रावधान बना दिया. समान नागरिक संहिता का संबंध विवाह, तलाक, जमीन-जायदाद व उत्तराधिकार संबंधी प्रावधानों से है. राष्ट्र सेविका समिति का यह स्पष्ट अभिमत है कि पृथक-पृथक नागरिक संहिताएं होने के कारण न केवल वर्ग विशेष में कट्टरता और अलगाव बढ़ा है, अपितु वह वर्ग मध्ययुगीन परम्पराओं को मानने के लिए अभिशप्त हो गया है. इन्हीं परम्पराओं के कारण उस वर्ग में महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए उन्हें पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है. भारत के स्वतन्त्र होते ही यहां का प्रबुद्ध वर्ग समान नागरिक संहिता की मांग करता रहा है.
1947 में राष्ट्र सेविका समिति ने भारत की एकात्मता को चुनौती देने वाले इस निर्णय पर अपना असहमति पत्र तत्कालीन सरकार को सोंपा था व समान नागरिक संहिता का विषय सदैव उसके चिन्तन में रहा है. शाहबानो मामले के बाद इस बहस ने जोर पकड़ लिया कि कब तक भारत की मुस्लिम महिलाओं को तीन बार तलाक कह कर घर से निकाल देना, उनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी लिये बिना उन्हें असहाय छोड़ देना, जीवनभर तीन अन्य पत्नियों की सौतन होने का अपमान सहना तथा अन्य बर्बर परम्पराओं का दर्द सहना पड़ेगा. शाहबानो मामले के अतिरिक्त तीन अन्य मामलों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को समान नागरिक संहिता बनाने की सलाह दी है. महिलाओं ने भी अपने स्वाभिमानपूर्ण जीवन के अधिकार के लिए इस मांग के समर्थन में बार-बार पुरजोर आवाज उठाई, लेकिन दुर्भाग्य से कट्टरपंथियों के दुराग्रह के कारण और मुस्लिम वोट बैंक की मृगमरीचिका के कारण ये सभी सरकारें संविधान, न्यायपालिका तथा मानवता की अवहेलना करती आई है. वर्तमान संदर्भ में शायराबानो मामले के कारण यह विषय गम्भीर चर्चा के रूप में परिवर्तित हो गया है.
उत्तराखण्ड की इस मुस्लिम महिला ने तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा को चुनौती दी है. सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने समान नागरिक संहिता के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार व महिला बाल विकास मंत्रालय से जवाब मांगा है और अटार्नी जनरल से भी राय मांगी है. राष्ट्र सेविका समिति अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा केन्द्र सरकार से आग्रहपूर्ण आह्वान करती है कि वे मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे इन अत्याचारों को समाप्त करने के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में मजबूती से कदम उठाकर मुस्लिम महिलाओं को भी सम्मान प्रदान करे. समाज की हर महिला को न्यायिक सम्मान मिलना ही चाहिए. यह सरकार का मानवीय, राजनैतिक व संवैधानिक दायित्व भी है. समान नागरिक संहिता बनाकर वे देश की एकता को भी मजबूत करेंगे और मुस्लिम समाज को शरीयत परम्परा से बाहर निकालकर उनके विकास का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे.
राष्ट्र सेविका समिति का मुस्लिम समाज से भी आह्वान है कि वह कालबाह्य हो चुकी मध्ययुगीन परम्पराओं की हठधर्मिता को छोड़कर सामंजस्य एवं एकता को अपनाकर प्रगति के मार्ग पर चले. शरीयत की जिस आचार संहिता की वे बात करते हैं, वह तुर्की, इरान, इराक, मलेशिया जैसे दसियों मुस्लिम देशों में बदली जा चुकी है. यदि वे शरीयत के नाम पर अपनी महिलाओं को होने वाले दर्द और बेबसी के दायरे से बाहर निकालकर प्रतिष्ठा प्रदान कर विकास की ओर बढ़ने का मौका देंगे तो इससे न केवल इन महिलाओं का अपितु उनके समाज का भी भरपूर विकास होगा. विश्व के जिन देशों में समान नागरिक संहिता है, वे वहां अपने धर्म का पालन भलीभांति कर पा रहे हैं. भारत के गोवा में भी समान नागरिक संहिता लागू है और वहां उन्हें कोई कठिनाई नहीं है. समान नागरिक संहिता के लिए सभी पंथों के प्रतिनिधि व संविधान विशेषज्ञ ही इस विषय को आगे बढ़ा सकते हैं.
राष्ट्र सेविका समिति की यह प्रतिनिधि सभा सर्वसामान्य समाज से भी आह्वान करती है कि वह समान नागरिक संहिता के लिए जागरुक होकर सरकार को इसे पारित करने के लिए प्रेरित करे व हर भारतीय महिला के सम्मान की रक्षा का दायित्व पूर्ण करे. समान नागरिक संहिता इस दिशा में पहला परन्तु मजबूत कदम सिद्ध होगा.