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महिला सशक्तिकरण के लिए घूंघट की बात करते हैं तो बुर्का की क्यों नहीं…?

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क्या ऐसा हो सकता है कि एक विषय को दो अलग-अलग नजरों से देखा जाए? हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है, ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि हमें तुष्टीकरण-वोट बैंक की राजनीति करनी है. महिलाओं के स्वास्थ्य और सशक्तिकरण के लिए हम घूंघट को तो हटाना चाहते हैं, लेकिन बुर्के को नहीं. घूंघट हटाने को लेकर हम सार्वजनिक बयान दे सकते हैं, लेकिन बुर्के को हटाने के लिए इसी तरह का सार्वजनिक बयान देने की हमारी हिम्मत नहीं पड़ती है. सबसे बड़ा सवाल यह कि हम सिर्फ हिन्दू महिलाओं के सशक्तिकरण की क्यों सोचते हैं, क्या मुस्लिम महिलाएं इस देश या प्रदेश की नागरिक नहीं हैं? घूंघट हटने से हिन्दू महिलाओं का सशक्तिकरण हो सकता है तो बुर्का हटने से मुस्लिम महिलाओं का सशक्तिकरण भी तो हो सकता है. आखिर यह एकतरफा विचार क्यों….??

ऐसे मामलों में कांग्रेस और तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी, प्रगतिशील लोगों की यही स्थिति है. हाल ही में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि महिलाओं के स्वास्थ्य और सशक्तिकरण के लिए पांच प्वाइंट जरूरी हैं और इसमें सबसे पहला प्वाइंट था घूंघट प्रथा दूर हो. इसके बाद उन्होंने छूआछूत खत्म करने, सैनेटरी नैपकिन्स के उपयोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने, महिला शिक्षा को बढ़ावा देने और मातृ व शिशु मृत्यु दर में कमी लाने को जरूरी बताया.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने महिलाओं के स्वास्थ्य और सशक्तिकरण के लिए जो पांच प्वाइंट बताए हैं, ये निश्चित रूप से बेहद जरूरी हैं और इसमें कोई शक नहीं है कि ये काम हो जाएं तो मातृशक्ति सुरक्षित और स्वस्थ रह सकती है. इस विषय में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मंशा पर भी कोई सवाल नहीं है, लेकिन सवाल बस इतना ही है कि जब वे घूंघट की बात करते हैं तो बुर्के को शामिल करने में क्यों हिचकते हैं? उनके इस ट्वीट में घूंघट के साथ बुर्का शब्द भी शामिल हो जाता तो यह महिलाओं के हित में उनका सम्पूर्ण बयान होता, क्योंकि तब उनकी चिंता सिर्फ एक समुदाय विशेष महिलाओं के लिए ही प्रकट नहीं होती, बल्कि सभी समुदायों की महिलाओं के लिए प्रकट होती.

तर्क देने वाले यह कह सकते है कि घूंघट में बुर्का अपने आप शामिल है, उनकी भावना वही है, लेकिन सवाल यह है कि जब भावना है तो उसे प्रकट करने में हर्ज क्या है? वैसे भी तकनीकी तौर पर देखा जाए तो घूंघट और बुर्का दो अलग-अलग चीजें हैं. काम भले ही दोनों का लगभग एक जैसा हो, लेकिन पहनने का तरीका अलग-अलग है और महिलाओं के लिए इन्हें लागू करने के पीछे की सोच भी अलग-अलग है. और वैसे भी जब सामुदायिक प्रतीकों की बात आती है तो अलग-अलग उल्लेख करना ही उचित रहता है.

वैसे भी हिन्दू समाज में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार बढ़ रहा है, घूंघट अपने-आप हटता जा रहा है. आज गांवों में भी लम्बा घूंघट निकाले हुए महिलाएं काफी कम देखने को मिलती हैं. होता भी है तो ज्यादा से ज्यादा उनका सिर ढंका होता है जो बहुत हद तक हिन्दू समाज में आदर-सम्मान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. वहीं मुस्लिम समुदाय में बुर्के का प्रचलन ज्यों का त्यों नजर आ रहा है, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि मुस्लिम समुदाय में महिलाओं की शिक्षा पर अभी भी बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया जाता है. मुस्लिम बच्चियां आज भी पढ़ने के लिए मदरसों में ही जाती हैं और मदरसों से आगे की पढ़ाई बहुत कम को नसीब हो पाती है. ऐसे में वे जो पढ़ती हैं, वह भी उन्हें कट्टर सोच से बाहर नहीं निकलने देता.

तो….शायद ज्यादा जरूरत इस बात की है कि कम से कम ऐसे मामलों में तुष्टीकरण वाली सोच से बाहर निकला जाए. महिलाएं सब एक हैं और जब उनके कल्याण या सशक्तिकरण की बात हो, तो उसमें धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए. महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर मुख्यमंत्री की मंशा पर सवाल नहीं है, बस सवाल यही है कि सशक्तिकरण की यह मंशा सभी महिलाओं के लिए क्यों नहीं हैं…?

हिन्दू जागरण मंच की बेटी बचाओ अभियान की प्रांत सह प्रमुख सरिता सैनी कहती हैं – “मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को हिन्दू समाज में ही सामाजिक बुराइयां क्यों दिखती हैं? मुस्लिमों में बुर्का और हिजाब की अनिवार्यता है. 15 वर्षों की बालिकाएं निकाह के लिए परिपक्व मानने जैसी अनेकों कुरीतियां हैं. लेकिन तुष्टिकरण और वोट बैंक के लालच में मुख्यमंत्री को मुस्लिम समाज की कुरीतियां नहीं दिखतीं. ना ही उनमें मुस्लिमों के खिलाफ बोलने का साहस है. भारतवर्ष में घूंघट/पर्दा प्रथा और बाल विवाह मुगलों के आने के बाद प्रारंभ हुई, क्योंकि आक्रांताओं की घृणित दृष्टि हिन्दू बहन- बेटियों पर रहती थी. जेहादियों से रक्षा के लिए कालांतर में हिन्दू समाज ने घूंघट प्रथा और बालविवाह जैसी अनेक कुरीतियां अपनाई, लेकिन अब यह समाप्त हो रही है.”

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