नई दिल्ली. पूर्वोत्तर भारत के सेवा कार्यों में अपना जीवन लगाने वाले डॉ. रामगोपाल गुप्ता जी का जन्म कस्बा शाहबाद (जिला रामपुर, उत्तर प्रदेश) में 10 मई, 1954 को हुआ था. उनके पिता महेश चंद्र जी की वहां कपड़े की दुकान थी. रामगोपाल जी आठ भाई-बहन थे. उनका नंबर भाइयों में दूसरा था. मेधावी छात्र होने के कारण कक्षा बारह तक की शिक्षा शाहबाद में प्राप्त करने के बाद उन्हें बरेली (उ.प्र.) के ‘राजकीय आयुर्वेद कॉलेज’ में प्रवेश मिल गया. वहां से वर्ष 1979 में बीएएमएस की डिग्री पाकर वे प्रशिक्षित चिकित्सक हो गये.
बरेली में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महानगर प्रचारक राधेश्याम जी और प्रांत प्रचारक ओमप्रकाश जी के सम्पर्क में आये. यहां पढ़ते हुए ही उन्होंने प्रथम वर्ष ‘संघ शिक्षा वर्ग’ भी किया. उन दिनों वनवासी क्षेत्र में संघ के काम का विस्तार हो रहा था. वहां शाखा से अधिक सेवा कार्यों की आवश्यकता थी. देश भर से सेवाभावी चिकित्सक वहां भेजे जा रहे थे. रामगोपाल जी ने भी इस चुनौती को स्वीकार कर वहां जाने का निश्चय किया.
इससे उनके घर वालों को बड़ा धक्का लगा. वे सोचते थे कि उनका बेटा कहीं नौकरी या निजी प्रैक्टिस करेगा. वे उसके विवाह के लिए सोच रहे थे, पर इस सूचना से वे हतप्रभ रह गये. उन्हें सर्वप्रथम तलासरी (जिला ठाणे, महाराष्ट्र) तथा फिर वर्ष 1982 में कोरापुट (उड़ीसा) भेजा गया. उनके परिजन सोचते थे कि वे एक-दो साल में वापस आ जाएंगे, पर महाराष्ट्र के बाद उड़ीसा जाने से वे नाराज हो गये. उनके पिताजी उन्हें वापस ले जाने के लिए वहां गये भी, पर रामगोपाल जी अपने संकल्प पर डटे रहे. उड़ीसा में तत्कालीन सहप्रांत प्रचारक श्याम जी गुप्त से उनकी बहुत निकटता थी.
कोरापुट में जेके मिल वालों का एक भवन था. विहिप के अशोक सिंहल जी के प्रयास से वह ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ को मिल गया. रामगोपाल जी वहां बैठकर दवा बांटने लगे. वहां शराब और गोमांस का सेवन आम बात थी. रामगोपाल जी दवा देते समय इन दोनों को रोग का कारण बताते थे. वहां तुलसी को मां मानते हैं. अतः उन्होंने और स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने गांवों में ‘तुलसी चौरे’ बनवाये. उसकी सेवा की जिम्मेदारी क्रमशः एक-एक परिवार को दी गयी. जिस दिन जिसकी बारी होती, वह उस दिन शराब नहीं पीता था. इससे शराब और गोमांस का प्रयोग कम होने लगा. अतः वनवासियों की आर्थिक दशा सुधरी और रामगोपाल जी के प्रति विश्वास बहुत बढ़ गया.
अब उन्हें कोरापुट के साथ मलकानगिरी का काम भी दिया गया. यह पूरा क्षेत्र बहुत गरीब है. उन्होंने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर कई चिकित्सा केन्द्र खोले. इससे उड़ीसा में धर्मान्तरण घटा और ‘घर वापसी’ होने लगी. अतः मिशनरी कई तरह के षड्यन्त्र करने लगे, पर कार्यकर्ता साहसपूर्वक डटे रहे. 14 वर्ष उड़ीसा में काम करने के बाद रामगोपाल जी को असम में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का संगठन मंत्री बनाया गया. वर्ष 1998 से 2006 तक वे अरुणाचल में रहे. तब उन पर पूर्वोत्तर क्षेत्र के सह संगठन मंत्री की जिम्मेदारी थी. वर्ष 2008 में पूरे पूर्वोत्तर भारत का काम देकर उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया.
रामगोपाल जी बहुत परिश्रमी और विनम्र व्यक्ति थे. वे प्रायः संकटग्रस्त क्षेत्रों में ही रहे, जहां काम का कोई पुराना आधार नहीं था. वहां मांसाहार और शराब का आम प्रचलन है, पर वे इनसे दूर ही रहे. काम करते हुए उन्हें कई बार अपमान भी सहना पड़ा, पर वे धैर्यपूर्वक समस्या को समझकर उसका समाधान निकालते थे. बाहरी के साथ ही संगठन की आन्तरिक जटिलताओं से भी उन्हें जूझना पड़ा, पर चुनौतीपूर्ण काम करने में उन्हें आनंद आता था. इन विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए वे कैंसर रोग से घिर गये, जिसके चलते 22 जनवरी, 2015 को कोलकाता में ही उनका निधन हुआ.