बलबीर पुंज
विपक्षी गठबंधन (आई.एन.डी.आई. एलायंस) ने विभिन्न न्यूज चैनलों के 14 टीवी एंकरों का बहिष्कार करने की घोषणा की. इस गठजोड़ की मीडिया समिति ने टीवी पत्रकारों के नामों की एक सूची जारी करते हुए उनके कार्यक्रमों में अपना प्रतिनिधि नहीं भेजने का निर्णय किया. क्या विपक्ष का यह आचरण केवल एंकरों के बहिष्कार तक सीमित रहेगा? न्यूज चैनलों के राजस्व का एक हिस्सा उन विज्ञापनों से भी आता है, जो उन्हें विभिन्न सरकारों से मिलते हैं. इस पृष्ठभूमि में देश के 11 राज्यों में आई.एन.डी.आई. एलायंस के घटकों की सरकार है. क्या इनकी सरकारें उन चैनलों के विज्ञापनों को रोकेंगी, उसमें कटौती करेंगे या फिर प्रबंधकों पर कार्रवाई (नौकरी से निकालने सहित) करने का दबाव बनाएंगे, जिनसे ये 14 एंकर जुड़े हैं?
मेरा मत है कि देश को तीन किस्तों में स्वतंत्रता मिली है. 15 अगस्त, 1947 को खंडित भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई. चूंकि स्वाधीन भारत के अधिकांश प्रारंभिक नेता तत्कालीन विदेशी व्यवस्था में पके-पगे थे, इसलिए उनकी नीतियों पर ब्रितानी छाया स्पष्ट रूप दिखी. नेहरू ने देश की आर्थिकी को बाह्य वामपंथ प्रेरित समाजवाद से जोड़ा. इसकी कीमत देश ने खाद्य-वस्तुओं के भीषण अकाल, कालाबाजारी, भुखमरी और गरीबी के रूप में चुकाई.
जिन पाठकों की आयु 50 वर्ष से अधिक है, वे संभवत: 1970-80 के दौर की भयावहता को जानते होंगे. समाजवादी नीतियों और चिंतन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी घुट चुकी थी कि कार खरीदने के लिए सात वर्ष, तो स्कूटर के लिए नौ साल की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी. चीनी, दूध जैसी दैनिक खाद्य-वस्तुओं के साथ-साथ सीमेंट, टेलीफोन आदि के लिए पंक्तियों में लगना पड़ता था. वर्तमान करदाता जानते भी नहीं होंगे कि उस कालखंड में उच्चतम आयकर 97.7 प्रतिशत था. मार्क्सवादियों ने समाजवाद की भयंकर असफलता का ठीकरा सनातन संस्कृति पर फोड़ दिया. वर्ष 1978 में वामपंथी अर्थशास्त्री प्रोफेसर राजकृष्ण ने देश के निम्न विकास के लिए ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ को जिम्मेदार ठहरा दिया. हमारी स्थिति ऐसी बिगड़ी कि अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए हमें अपना स्वर्ण भंडार तक विदेशी बैंकों में गिरवी रखना पड़ा. सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व ने छलावे से भरे समाजवाद का तिलिस्म टूटते देखा.
जब 1991 में पीवी नरसिम्हा राव देश के 9वें प्रधानमंत्री बने, तब उनके नेतृत्व में सड़े-गले समाजवादी आर्थिक ढांचे का विखंडन प्रारंभ हुआ. इससे कालांतर में नीतिगत जंजीरों से बंधी प्रतिभा स्वतंत्र हुई. यह भारत की दूसरी स्वतंत्रता थी. इससे देश की आर्थिक तस्वीर बदली, देश खाद्य-वस्तुओं और सेवा आदि क्षेत्रों में वैश्विक प्रतिस्पर्धा देने लगा और हम दुनिया की उभरती हुई आर्थिक शक्ति बन गए.
मई 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत पूर्ण बहुमत की सरकार है. इस दौरान भ्रष्टाचार मुक्त जनकल्याण योजनाओं के क्रियान्वयन और गरीबी घटने की तीव्र गति के बीच भारतीय आर्थिकी को पर लगे हुए हैं. हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. इस मामले में नौ वर्ष पूर्व हम 10वें पायदान पर थे और 1947-2014 के बीच अपनी आर्थिकी को दो ट्रिलियन डॉलर का ही बना पाए थे. देश को तीसरा ट्रिलियन जोड़ने में पांच वर्ष (2014-19) का समय लगा. कोरोनाकाल के बाद फरवरी 2022 से जारी यूक्रेन-रूस युद्ध के प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के बाद हम चार ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने, जर्मनी को पछाड़ने और अपनी आर्थिकी में प्रत्येक दो-दो वर्षों में एक-एक ट्रिलियन जोड़ने की चौखट पर खड़े हैं. यही नहीं, राष्ट्रहित प्रेरित विदेश नीति के कारण विश्व में भारत की तूती बोल रही है.
इस कालखंड में दूसरा बड़ा परिवर्तन वैचारिक परिप्रेक्ष्य में हुआ है. सांस्कृतिक चिंतन और मुद्दों पर भारत ने नई दृष्टि से देखना प्रारंभ किया है. मैं इसे भारत की तीसरी स्वतंत्रता मानता हूं. 800 वर्ष पुरानी गुलाम मानसिकता की बेड़ियों को निर्णायक रूप से तोड़ने की परंपरा, जो 1947 में शुरू होनी चाहिए थी, वह वास्तव में 2014 से प्रारंभ हुई है. स्वाभाविक है कि देश का बहुत बड़ा वर्ग इन आशातीत बदलावों पर गर्व अनुभव कर रहा है. वे आर्थिक तरक्की के साथ अयोध्या में 500 वर्ष पश्चात राम मंदिर के भव्य पुनर्निर्माण, काशी विश्वनाथ मंदिर के भव्य कायाकल्प, उज्जैन स्थित बाबा महाकाल लोक के विकास, चंद्रयान-3 की सफलता, जहां मूनलैंडर उतरा उसे ‘शिव-शक्ति प्वाइंट’ का नाम देने, कश्मीर को जिहादी चंगुल से बाहर निकालने के सार्थक प्रयासों, साम्राज्यवादी चीन के साथ पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने, 2014 से पहले देश के बड़े नगरों (दिल्ली, मुंबई, जयपुर सहित) में आतंकवादी हमले करने वालों के हौंसले पस्त होने इत्यादि पर स्वाभिमान से भरा है.
भारतीय पत्रकारों में एक वर्ग ऐसा है, जो विदेशी पैसे और विचार से प्रभावित होकर सत्य और असत्य को मिलाकर मनगढ़ंत और झूठा नैरेटिव तैयार करने में लगा है, जिससे देश की बदनामी हो. अखलाक, रोहित वेमुला, जुनैद आदि प्रकरण के बाद नूपुर शर्मा मामले में भी ठीक ऐसा ही हुआ. तब कई मिनटों की वीडियो में आगे-पीछे का संदर्भ काट-छांटकर नूपुर के वक्तव्य में से कुछ सेकंड का अंश निकाला गया, फिर उसे सोशल मीडिया पर वायरल करके मजहबी उन्माद को भड़का दिया गया. इससे न केवल देश की प्रतिष्ठा कलंकित हुई, अपितु नूपुर का समर्थन करने पर उमेश (महाराष्ट्र) और कन्हैया (राजस्थान) को जिहादियों ने निर्ममता से मौत के घाट भी उतार दिया. नूपुर के प्राणों पर संकट जस का तस है.
निःसंदेह, भारत तेजी से बदल रहा है. स्वाभाविक है कि इन परिवर्तनों से यथास्थितिवादियों को गहरा झटका लगा है. मीडिया का काम है – प्रश्न पूछना. परंतु वह प्रश्न किससे पूछे और कौन-सा पूछे, इसका निर्णय पत्रकार अपने विवेक से करता है. मीडिया का एक बहुत प्रभावी वर्ग नेहरू की विचारधारा से प्रभावित और उनके द्वारा स्थापित व्यवस्था से लाभान्वित है. एक लंबे काल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी (पहले भारतीय जनसंघ) को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है. तब केवल उन्हीं से प्रश्न पूछे जाते थे. वर्तमान मीडिया में एक ऐसा वर्ग खड़ा हुआ है, जो नेहरूवादी छत्रछाया और कांग्रेस के प्रभाव से मुक्त है. वह उस विचारधारा से प्रश्न पूछ रहा है, जो दशकों तक सत्ता में रही और अपनी नीतियों से देश को कई संकटों में भी पहुंचा दिया. इन 14 न्यूज एंकरों का दोष केवल इतना है कि उन्होंने उन नीतियों पर प्रश्न करने का ‘दुस्साहस’ किया है, जो उनकी दृष्टि में देश को फिर से उसी अंधेरे कुंए में धकेलना चाहती है, जहां से भारत सतत संघर्ष के बाद निकला है. वास्तव में, आई.एन.डी.आई. एलायंस की हालिया घोषणा, देश में हो रहे दीर्घकालीन परिवर्तनों के विरुद्ध उनका आक्रोश और बौखलाहट है. यह 14 न्यूज एंकर तो मात्र संदेशवाहक है.
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद हैं.)