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पश्चिमी दृष्टि में रची-बसी पीढ़ी के कारण स्वत्व का चलना कठिन

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भोपाल, 23 सितम्बर.

प्रख्यात लेखक और विचारक सुरेश सोनी ने कहा कि अंग्रेजों और यूरोपियंस के साथ भारत का राजनैतिक नहीं, सभ्यतागत संघर्ष हुआ. इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि भारतीयों ने अपना अध्ययन भी विदेशी निगाह से किया. पश्चिमी दृष्टि में रची-बसी पीढ़ी के कारण स्वत्व का चलना कठिन है. भारत के कथित बुद्धिजीवियों का ग्रेविटेशनल फोर्स भारत के बाहर है. यदि भारत के स्व को जानना है तो इस ग्रेविटेशनल फोर्स को भारत-केंद्रित करना होगा.

सुरेश सोनी रवींद्र भवन के अंजनी सभागार में स्वराज संस्थान संचालनालय, धर्मपाल शोधपीठ और दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘स्वत्व – पूर्ण स्वराज की दिशा’ राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह में संबोधित कर रहे थे. राष्ट्रीय चिंतक धर्मपाल एवं दत्तोपंत ठेंगड़ी के विचार-पुञ्ज पर आधारित संगोष्ठी में सुरेश सोनी ने कहा कि जी-20 के दौरान इंडिया बनाम भारत का जो द्वंद सामने आया, यह वास्तव में भारत की अवधारणा, तंत्र, जीवन मूल्यों का द्वंद है. यह देश सभी प्रकार के आक्रमणों को झेलकर आज अपने मूल स्वरूप की ओर गतिमान हो रहा है.

उन्होंने कहा कि पश्चिम में हर विचारक एक विचारधारा का प्रणेता है और उस ‘विचार का फादर’ कहलाता है. भारतीय परंपरा में यह भाव नहीं मिलते हैं. हमारे ऋषियों ने वेदों-उपनिषदों में कहा कि जैसा उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना, वैसा ही व्यक्त किया है. भारत ने हमेशा समग्रता में विचार किया. विरोधाभासी बातें भी उस समग्रता में शामिल रही हैं. भारत और पश्चिम की काल धारणा को भी समझने की आवश्यकता है. पश्चिमी जगत् में समय एकल रेखीय है. भारतीय दृष्टि में समय चक्राकार है. हमारे यहां मान्यता है कि धर्म जब चार पैरों पर खड़ा है तब सतयुग, तीन पैरों पर खड़ा है जब त्रेता युग, दो पैरों पर खड़ा है तो द्वापर और एक पैर पर खड़ा है तब कलयुग होता है.

उन्होंने कहा कि भारत के ऋषि केवल दार्शनिक नहीं थे. उन्होंने ज्ञान को शास्त्रबद्ध किया और उसे आमजन के बीच पहुंचाने के लिए व्यवस्था भी बनाई. उसके अनुसार आचरण हो, इसके लिए भी कार्य किया. सस्टेनेबल, इक्विटेबल डेवलपमेंट तभी सार्थक है, जब प्रतिवर्ष उत्पादन-आधारित जीवन बने. प्रकृति से लेने के साथ देने के चक्र का भी पालन हो. उत्पादन में प्रचुरता, वितरण में समानता और उपभोग में संयम होने पर ही यह संभव हो सकता है. उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ वन संस्कृति सर्वोच्च थी, ऋषि-मुनि भी वहां रहते थे, लेकिन पश्चिमी विचार दृष्टि ने उस वन संस्कृति को पिछड़ा बना दिया.

उद्घाटन सत्र में न्यास के अध्यक्ष अशोक कुमार पाण्डेय, सिद्ध संस्थान, मसूरी के निदेशक पवन गुप्ता विशिष्ट अतिथि थे. दत्तोपन्‍त ठेंगड़ी शोध संस्‍थान के निदेशक व कार्यक्रम संयोजक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने विषय प्रवर्तन किया. धर्मपाल शोधपीठ के निदेशक डॉ. संजय यादव ने आभार व्यक्त किया. संगोष्ठी के प्रथम तकनीकी सत्र में आशीष गुप्ता ने भारतीय जीवन शैली के महत्व को रेखांकित किया. साहित्यकार रामेश्वर मिश्र पंकज ने वर्तमान भारतीय व्यवस्था और स्वत्व पर प्रकाश डाला. ‘भारतीय चित्ति, संस्कृति और परम्परा’ विषय पर आयोजित तकनीकी सत्र में आनंद कुमार सिंह ने भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डाला. शिवदत्त ने कहा कि पश्चिमी सभ्यता ने भारतीय मानस को प्रभावित किया. प्रो. राकेश कुमार मिश्र ने भारतीय संस्कृति, वेद और भारत के स्वत्व और पश्चिमी संस्कृति के अंतर को स्पष्ट किया.

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