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प्राण प्रतिष्ठा – धरती पर उतरता वैकुण्ठ

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आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण

परमात्मा के स्वरूपों का प्रतिपादन करते हुए भक्तिशास्त्रों में पर, विभय, व्यूह, अर्चा और अन्तर्यामी नामक पाँच भेद निरूपित किये गये हैं. अर्चावतार भगवान् वे हैं जो भक्ताभिलाषा के अनुरूप विराजमान होकर सेवित होते हैं और अर्चक पर कृपा करते हैं. जैसे विभवावतार में भगवान् श्रीराम-श्रीकृष्ण आदि स्वरूपों में प्रकट होकर श्री अयोध्या-मथुरा आदि को धाम की महिमा प्रदान करते हैं, तथा अन्तर्यामी भाव से समस्त भूतों के अन्तःकरण में विद्यमान रहकर उनके समस्त भाव-संकल्पादि के साक्षी रहते हैं, ठीक उसी प्रकार अर्चावतार में भगवान् भक्त द्वारा स्वयं को किसी देश-काल में व्यक्त करके विलक्षण लीलायें सम्पादित करते हैं. विधि-सम्मत रीति से निगमागम के अनुशासन में संस्थापित अर्चावतार का गर्भगृह वैकुण्ठ का ही अवतरण है.

श्री अयोध्यापुरी श्रीराम की प्राकट्यभूमि है, परन्तु कालक्रम अथवा प्रभु की ही अचिन्त्य लीला के वशीभूत होकर श्रीराम की यह जन्मभूमि सुदीर्घ संघर्ष-कथा की साक्षी बनी. भगवान् श्रीराम के भक्त और सन्त अपने आराध्य को उनकी अपनी ही राजधानी में प्रतिष्ठित देखने के लिये तरसते रहे. यह तृषा त्याग, बलिदान और प्रार्थनाओं की शताब्दियों को झुलसाती रही. अन्ततः एक दुःस्वप्न से जागरण की भाँति श्रीराम अपनी जन्मभूमि पर बालरूप में पुनः आराधना के लिये विराजमान हो रहे हैं. यह लोक में घटित होती एक अलौकिक सी घटना है, जो ‘सत्यमेव जयते’ का प्रमाण बन रही है. जिन सच्चिदानन्द श्रीराम में सारे लोक प्रतिष्ठित हैं, उनकी प्रतिष्ठा उनके अपने घर में उनके भक्त करने जा रहे हैं. वेदमन्त्रों से अनुप्राणित, आगमों से अर्चित, पुराणों से प्रतिपादित, कथाओं से ख्यापित, भक्ति से विभूषित, श्रद्धा से सिञ्चित एवं आस्था से अभिषिक्त कौसल्यानन्दवर्द्धन-दशरथनन्दन श्रीराम को अपने प्राणों से प्रतिष्ठित करने का समारोह उपस्थित है. ये प्राण, इस धर्मप्राण कहे जाने वाले राष्ट्र के हैं. श्रीराम की प्रतिष्ठा धर्म के अतिरिक्त किसी तत्व से सम्भव ही नहीं है. महर्षि वाल्मीकि ने कहा है ‘रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः.’ धर्म विग्रह श्रीराम की प्रतिष्ठा हो रही है, प्राणाधान करने वाला है धर्मप्राण राष्ट्र भारत. वही भारत जो त्रेता से अब तक श्रीराम को साधुवाद की कसौटी मानकर अपने विश्वास को जीता आया है. यह प्रसंग विशिष्ट है, यह घटना विलक्षण है. यह धर्मविग्रह श्रीराम और धर्मप्राण राष्ट्र का एकीकरण है. यह प्राण और विग्रह दोनों की धर्ममयता का समारोह है. वही धर्म जिसे इस राष्ट्र ने अनादिकाल से सनातन कहा है और इस प्रकार प्रतिक्षण मिटते जाते इस भौतिक जगत् में सदा बने रहने वाले परम तत्त्व की पहचान की है. श्रीरामजन्मभूमि में श्रीरामलला की प्राणप्रतिष्ठा श्रीराम के व्याज से राष्ट्र की प्राण प्रतिष्ठा है. एक राष्ट्र जो पृथ्वी को माता स्वीकार करता है, और इस सम्बन्ध से पृथ्वी के जड़-चेतनात्मक विस्तार को अपना कुटुम्ब मानता है. जो नदियों को माता कहता है, वृक्षों को पुत्र, पर्वतों को पिता और पशु- पक्षियों को सहचर मानता है. इस राष्ट्र की पवित्रता, दृढ़प्रतिज्ञता और दयाशीलता का प्रमाण बनी अयोध्या आज परमपिता को फिर से अपने पुत्र की भाँति पाकर अपने वात्सल्य की दुग्धधारा से उसका सहस्रकलशाभिषेक करने जा रही है. प्रस्तरखण्डों ने प्रतिमाओं का रूप धारण किया है, राष्ट्रपुरुष का मन ही मन्दिर बन रहा है, शताब्दियों का विडल मंगलाशासन जैसे मन्त्र बन गया है और असंख्य हृदयों का उमड़ता हुआ प्रेम पूजा बनकर अपने श्रीराम को पूजने को आतुर है.

अयोध्या में हलचल है, दक्षिण से, पूरब से, पश्चिम से राष्ट्रपुरुष का उल्लास ज्वार बनकर उमड़ पड़ा है और उत्तर वालों का तो कहना ही क्या है, जिन्हें श्रीराम त्रेता की लीला में अपने साथ ले गए –

‘य उत्तराननयत्कोसलान्दिवम्.’

सरयु आह्लादित हैं कि एक बार फिर से उनका पावन पाथ श्रीरामलला को उनके गर्भगृह में स्नान कराएगा. अयोध्या मुदित है कि एक बार फिर से उसके आकाश में श्रीरघुनन्दन के सुप्रभात के स्वर गूँजेंगे. मन्दिर दिनानुदिन अपनी भव्यता को आत्मसात् कर रहा है, उसे वैकुण्ठ की गरिमा जो धारण करनी है. तपःस्वाध्याय-निरत स्नातक अनुशासनरायण होकर अपने मन्त्राभ्यास को दृढ़ कर रहे हैं. उन्हें इन मन्त्रों से वेदवेद्य प्रभु की अभ्यर्थना जो करनी है. ये वेद ही तो प्रभु के श्वास हैं, प्राण इन्हीं में अधिष्ठित हैं. स्वरों का सन्धान हो रहा है, अर्चा का विधान हो रहा है. पूजा-पद्धति का परिष्कार हो रहा है, राजोपचार से राजकुँअर की आराधना की जानी है.

वस्तुतः ये अवतार है – अर्चावतार, अर्चनीय प्रभु के अनुरूप अर्चक, उन्हीं के अनुरुप पार्षद और उनके परिकर. यहाँ निगम है, आगम हैं, स्मृतियाँ हैं, पुराण हैं, संहिताएं हैं और मधुर गाथाएं हैं. ये सब मिलकर उस प्रभु का मुखोल्लास करने वाले हैं, जिसका मन्दस्मित ही जगत् का परम कारण है. यह कलियुग में त्रेता की लीला है जो कर्तुमकर्तुमन्यधाकर्तुम्समर्थ प्रभु का पीढ़ियों की प्रार्थना और प्रतीक्षा को दिया जाने वाला प्रसाद है. यह उस पावन प्रयत्न का दिव्य फल है जो प्रयत्न प्रभु के ही श्रीचरणों में अर्पित हो गए थे. श्रीमद् रामायण, श्रीरामचरितमानस और माहात्म्य प्रन्थों की अयोध्या को अपना सौभाग्य पाते देखना अवर्णनीय है. माँगकर खाने और मसीत में सोने की दारुण व्यथा को स्वर देने वाले गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की शुभाशंसा पर भगवान् शिव की मुहर लग गयी है – ‘गयी बहोर गरीबनवाजू’ श्रीराम अपने जन का खोया हुआ वापस ला देते हैं. मानव जाति की पहली पुरी अयोध्या, जिसने मानव जाति के लिये जगत्पिता को पुत्र बनाकर धरती पर उतार लिया, एक बार फिर से विश्व को वैदिक सन्देश दे रही है –

‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः.

अर्थात् मेरा कर्तव्य मेरे दाहिने हाथ में है तो मेरा परिणाम मेरे बायें हाथ में.’ श्रीराम की यह प्राणप्रतिष्ठा मात्र प्रतिमा की नहीं, अपितु प्रतिमान की प्राणप्रतिष्ठा है. वह प्रतिमान जो पुरुष को पुरुषोत्तम बनाता है, जो स्त्री नारीणामुत्तमा बनाता है. जो एक निषाद को ब्रह्मर्षि के गले लगाता है, जो वानर को दूत और रीछ को मन्त्री बनाता है. यही वह प्रतिमान है जिसने नाम- रूपों में बिखरे राष्ट्रपुरुष को एक मनःप्राण में सहेज कर विश्वगुरु बना दिया. इसी प्रतिमान ने मनुष्यता को देवोपम उन्नति देकर मर्त्यलोक को अमरों के लिये भी स्पृहणीय बना दिया. वे गाते हैं –

अहो अमीषां किमकारि शोभनं

प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः.

यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे

मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः..

अहो ! इन मनुष्यों ने ऐसा क्या उत्कृष्ट किया है. श्रीहरि इन पर इतने अधिक प्रसन्न हैं कि हम देवता भी जिनके लिये लालायित रहते हैं, उन भगवान् के चरणकमलों की सेवा का सौभाग्य भारतवर्ष के प्राङ्गण में जन्म लेकर इन्होंने पा लिया है.

श्रीरामलला की उनके जन्मस्थान पर प्राणप्रतिष्ठा हो रही है. इस जन्मस्थान के बारे में स्कन्दपुराण कहता है कि इसका दर्शन मात्र कर लेने से मनुष्य अन्य कोई साधन किये बिना ही मुक्त हो जाता है –

यद्दृष्ट्वा च मनुष्यस्य गर्भवासजयो भवेत्.

विना दानेन तपसा विना तीथैर्विना मखैः ..

श्रीराम अपनी जन्मभूमि पर विराजमान हो रहे हैं. यह जन्मभूमि दर्शनमात्र से हजारों कपिला गायों के दान, कठोर तपस्याओं के फल और राजसूय आदि महान् यज्ञों के फल से भी अनन्तगुणित फल देने वाली है –

कपिलागोसहस्राणि यो ददाति दिने-दिने.

तत्फलं समवाप्नोति जन्मभूमेः प्रदर्शनात् ..

आश्रमे वसतं पुंसां तापसानाञ्च यत्फलम्.

राजसूयसहस्राणि प्रतिवर्षाग्निहोत्रकतः ..

मातापित्रो गुरूणाञ्च भक्तिमुद्धहतां सताम्.

तत्फलं समवाप्नोति जन्मभूमेः प्रदर्शनात् ..

तप-त्याग, जप-दान, व्रत-यज्ञ, मातृ, पितृ, गुरु, सुश्रूषा आदि समस्त धर्मकृत्य इस जन्मभूमि के दर्शन से सहज सिद्ध हो जाते हैं. यहाँ श्रीराम की प्रतिष्ठा वस्तुतः धर्म की प्रतिष्ठा है और धर्म में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है.

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