नई दिल्ली. संघ के प्रचारक का अपने घर से मोह प्रायः छूट जाता है. पर, 24 दिसम्बर, 1920 को पंजाब में जन्मे श्रीकृष्ण चंद्र भारद्वाज के एक बड़े भाई नेत्रहीन थे. जब वे वृद्धावस्था में बिल्कुल अशक्त हो गये, तो श्रीकृष्ण चंद्र जी ने अंतिम समय तक एक पुत्र की तरह लगन से उनकी सेवा की. इस प्रकार उन्होंने संघ और परिवार दोनों के कर्तव्य का समुचित निर्वहन किया.
श्रीकृष्ण चंद्र जी अपनी शिक्षा पूर्ण कर वर्ष 1942 में प्रचारक बने. प्रारम्भ में उन्होंने पंजाब, दिल्ली और फिर उत्तर प्रदेश के उन्नाव में संघ कार्य किया. वर्ष 1963 में उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रचारकों की एक बैठक काशी में हुई थी. वहां से जिन प्रचारकों को बिहार भेजा गया, उनमें श्रीकृष्णचंद्र जी भी थे. बिहार में भोजपुर और फिर भागलपुर में वे जिला प्रचारक रहे. आपातकाल में भूमिगत रहकर वे जन-जागरण एवं सत्याग्रह के संचालन में लगे रहे. पुलिस और कांग्रेसी मुखबिरों के भरपूर प्रयास के बाद भी वे पकड़ में नहीं आये. वर्ष 1977 में आपातकाल समाप्त होने पर जब ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य का पूरे देश में विस्तार किया गया, तो उन्हें बिहार में इसका संगठन मंत्री बनाया गया. उनके लिए यह काम बिल्कुल अपरिचित और नया था. पर, उन्होंने इस दायित्व पर रहते हुए वर्तमान झारखंड तथा बिहार के अन्य वनवासी क्षेत्रों में सघन संपर्क कर संगठन की सुदृढ़ नींव रखी.
कुछ वर्ष बाद उन्हें बिहार क्षेत्र का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया. व्यवस्थित काम के प्रेमी होने के कारण बौद्धिक पुस्तिका तथा अन्य बौद्धिक पत्रक ठीक से छपकर निर्धारित समय से पूर्व सब शाखाओं तक पहुंच जाएं, इसकी ओर उनका विशेष ध्यान रहता था. सेवाभावी होने के कारण बीमार प्रचारक तथा अन्य कार्यकर्ताओं की देखभाल में वे बहुत रुचि लेते थे. समय से दवा देने से लेकर कपड़े और कमरे को धोने तक में वे कभी संकोच नहीं करते थे. नित्य शाखा को श्रद्धा का विषय मानकर वे इसके प्रति अत्यधिक आग्रही रहते थे. निर्णय करने के बाद उसे निभाना उनके स्वभाव में था. नब्बे के दशक में जब श्रीराम मंदिर आंदोलन ने गति पकड़ी, तो उन्हें बिहार में विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया. इस दौरान हुए सब कार्यक्रमों में बिहार की भरपूर सहभागिता में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा.
हिन्दी भाषा से उन्हें बहुत प्रेम था. यदि कोई उनसे बात करते समय अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का शब्द बोलता, तो वे उसे तुरन्त सुधार कर उसका हिन्दी अनुवाद बोल देते थे. इससे सामने वाला व्यक्ति समझ जाता था और फिर सदा हिन्दी बोलने का ही निश्चय कर लेता था. श्रीकृष्ण चंद्र जी पाइल्स के मरीज थे. अतः वे मिर्च और मसाले वाले भोजन से परहेज करते थे, पर प्रवास में सब तरह के परिवारों में भोजन के लिए जाना पड़ता है. अतः कई बार मिर्च वाला भोजन सामने आ जाता था. ऐसे में वे दूसरी बार बनवाने की बजाय उसी सब्जी को अच्छी तरह धोकर खा लेते थे. उनके कारण किसी को कष्ट हो, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था.
जालंधर में रहने वाले उनके बड़े भाई भी अविवाहित थे. एक दुर्घटना में वे काफी घायल हो गये. ऐसे में श्रीकृष्ण चंद्र जी उनकी सेवा के लिए वहीं आ गये. उनके देहांत के बाद वे कई वर्ष लुधियाना कार्यालय पर रहे. जब वृद्धावस्था के कारण उनका अपना स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे जालंधर कार्यालय पर ही रहने लगे. वहां पर ही 16 फरवरी, 2012 को उनका देहांत हुआ.