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‘संत’ के बाने का सच

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विश्व के प्रसार माध्यमों तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में ईसाइयत के प्रमुख पोप भाईचारे से रहने की बात भले करते हों किंतु पहले के उन दो पोप को व्यावहारिकता में चर्च द्वारा उनकी शह पर विश्व के पचास देशों को पांच सदी तक लूटते रहने तथा अपने फैलाव के लिये नरसंहार तक की सीमा तक जाने के लिये ज्यादा जाना जाता है जिन्हें अप्रैल के अंतिम सप्ताह में वेटिकन में संतई की उपाधि दी गई. वैसे दुनिया में पोप की छवि शांतिदूत जैसी बनाने की लाख कोशिशें की जाती हैं. लेकिन अगर उन दो पोप के कार्यकाल का लेखा-जोखा लिया जाये तो पिछली पांच सदियों में विश्व में चर्च की शह पर लूटमार की गई तथा नरसंहार हुआ. आज ये बात स्पष्ट रूप से सामने आ रही है. उन्हें संतई की उपाधि देने के उस कार्यक्रम में दस लाख लोगों का मौजूद होना भी कम आश्चर्य की बात नहीं है. संतई के हकदार बताये गये इन दो पूर्व पोप के दौर में क्या-क्या हुआ था, उस पर एक नजर डालना अच्छा रहेगा. ईसाई मिशनरियों की मदद से विश्व में जहां-जहां यूरोप एवं अमरीका का साम्राज्य चलता है वहां लूट में से ‘बड़ा हिस्सा’ चर्च अर्थात् मिशनरियों को भी मिलता है. वास्तव में भारत के लिहाज से इस विषय पर गंभीर नजर डालना जरूरी होगा.

इस संतई उपाधि देने के घटनाक्रम का असर भारत पर दिखेगा ही. अर्थात् इसकी ओर देखने का ईसाई विश्व का दृष्टिकोण अलग होगा एवं भारत का दृष्टिकोण अलग. ईसाइयत में संतई की उपाधि के पीछे आम कल्पना यह है कि ईसाई मत के इतिहास में जिन्होंने ईसाई विचारों का विस्तार, लोकसेवा, सामंजस्य जैसे क्षेत्रों में विशेष काम किया हो, उन्हें ही वेटिकन का कार्यकारी मंडल संतई की उपाधि देता है. इस पूरी प्रक्रिया पर नजर डालें तो किसी को संतई की उपाधि देने के लिये जिस तरह कुछ मुद्दे रखे जाते हैं, उसी तरह उसको लेकर जो भी तर्क हों, तो उन पर भी गौर किया जाता है. संत बनाये गये पोप तेईसवें को वेटिकन साम्राज्य में अत्यंत सम्मान से देखा जाता है. इसका कारण यह है कि जब कैथोलिक साम्राज्य विश्व से समाप्त होने की कगार पर था, तब इन्हीं पोप ने उसमें नये प्राण फूंके थे. उनके कार्यकाल में अत्यंत महवपूर्ण ‘सेकिंड वेटिकन’ परिषद संपन्न हुई, जो पांच वर्ष तक चली. इस परिषद का समारोह एवं उसका परिणाम देखने से पूर्व ही उनका निधन हो गया. फिर भी इस परिषद के बीज भाषण से ही उन्होंने आने वाला समय केवल कैथलिकों का है, यह दुर्दम्य आशा जगाई थी. पोप तेईसवें ने पोप का पद संभाला सन् 1958 में जब कैथोलिक विश्व की स्थिति अत्यंत दयनीय थी, क्योंकि उससे पूर्व जिन सौ देशों पर कैथोलिकों ने वहां की परिस्थिति अनुसार दो सौ, तीन सौ अथवा चार सौ वर्ष तक राज किया था, वहां से कैथोलिक वर्चस्व समाप्त हो चुका था. जैसा कि हम सब को विदित है, भारत को जिस तरह सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी, उससे पूर्व के दो वर्ष एवं बाद के आठ-दस वर्षो के दौरान विश्व के अनेक देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी. उन देशों में स्थित ईसाई मिशनरियों का वर्चस्व भी समाप्त होता गया. यूरोपीय वर्चस्व ईसाई मिशनरियों द्वारा मतांतरण के कारण स्थिर हो चुका था़, जो छल एवं बलपूर्वक, अत्याचार द्वारा और अधिकांश स्थानों पर अत्यधिक नरसंहार के बाद किया गया था. यूरोपीय देशों द्वारा विश्व के अनेक देशों को गुलाम बनाये जाने के परिणामस्वरूप दो सौ, तीन सौ, चार सौ वर्षो तक लूट होती रही. तब गुलाम बनने की सख्ती, करों को लेकर कठोर कानून, औद्योगिकीकरण, व्यापार में एकाधिकार, कृषि उत्पादों को कौडि़यों के दाम खरीदना, सोना, चांदी, जेवरात एवं अन्य अनमोल वस्तुओं की लूट आम बात थी. 1950 के वर्ष को मध्यवर्ती मानकर, उससे पूर्व पांच वर्ष एवं बाद के पांच वर्ष विश्व के अनेक देशों से यूरोपीय सत्ताएं लौट गईं. उनके साथ ईसाई मिशनरियों का वर्चस्व भी खत्म हुआ. इन सब समस्याओं के कारण ईसाई पंथ एवं उपपंथ भी बदनाम हुए थे. उस समय यानी 6 दशक पूर्व चर्चा कुछ ऐसी थी कि उस सदी के अंत तक इस पंथ के लिए केवल स्मारकों में स्थान बचेगा. ऐसे में पोप तेईसवें मुख्य पद पर बैठे. वह समय पहली वेटिकन परिषद के संपन्न होने के सौ वर्ष पूरे होने का था. पोप तेईसवें ने कैथोलिक विश्व को एक छतरी तले लाने के लिये जो तरीके अपनाये उनसे उन्हें मंजिल पाने में सहूलियत जरूर मिली. इनमें ‘सेकिंड वेटिकन’ के अठारह प्रपत्र आज तक मशहूर हैं. उन प्रपत्रों का वेटिकन की दृष्टि से चाहे जो अर्थ हो, विश्व के लिये उनका इतना ही अर्थ है कि पहले जो कैथोलिकपंथी स्थानीय संस्कृति से दूरी बनाये रखते थे, ‘सिेकंड वेटिकन’ के बाद उन्होंने स्थानीय संस्कृति के साथ घुलने-मिलने का निर्णय किया. ‘सेकिंड वेटिकन’ से पूर्व कान्वेंट की कोई लड़की बिंदी लगा लेती थी तो उसे स्कूल में प्रवेश पाने में कठिनाई होती थी. ‘सेकिंड वेटिकन’ के बाद भारत के चर्चों में दीये जलने लगे़, ईसाई भजनों में मंजीरे, पखावज एवं तानपूरा बजने लगा, ईसाई महिलाएं साड़ी पहनने लगीं, बिंदी लगाने लगीं, मार्गरेट अल्वा तो बहुत बड़ी बिंदी लगाती हैं, पुरुष धोती तथा नेहरू शर्ट पहनने लगे. भाषा भी स्थानीय हो गई. महत्वपूर्ण बात यह थी कि स्थानीय समाज-व्यवहार में किसी एक की वकालत करना और किसी एक की न करना, ऐसे भी उदाहरण दिखे. एशियाई देशों एवं अफ्रीकी देशों में झगडे़ शुरू करने के बाद ही उनका खोया हुआ वर्चस्व पुन: वापस आया. यूरोप एवं अमरीका के साम्राज्य अपने पीछे खड़े होने का फायदा उठा कर ईसाई मिशनरियों ने खोया वर्चस्व पुन: प्राप्त किया. पूर्वोत्तर भारत में अनेक स्थानों पर पृथकतावादी आन्दोलन शुरू हुये.

पोप तेईसवें की तरह ही ईसाइयत को फैलाने में पोप जॉन पाल द्वितीय का भी काम उतना ही व्यापक रहा. इन ‘संतों’ की सूची में पहले पोप के समय में मसौदा तैयार किया गया, वहीं दूसरे पोप के कार्यकाल में उस पर प्रत्यक्ष अमल हुआ. पोप जॉन पाल द्वितीय को बाईस वर्ष का समय मिला. उन्होंने संपूर्ण कैथोलिक विश्व की पुनर्रचना की. उनका उल्लेख सतत घूमने वाले पोप के रूप में किया जाता है. वे उस वक्त पद पर आये तब शीतयुद्घ जारी था. वे स्वयं पोलेंड से थे. ऊपरी तौर पर वे पूर्व सोवियत संघ की तरफ किंचित झुके हुये प्रतीत होते थे, लेकिन वह केवल आभास ही था.

उन दोनों पोप के काम का भारत पर सीधा असर पड़ा है. एक तो वेटिकन का नेतृत्व प्रारंभ से ही भारत को विशेष महव देता आया है. यह विशेष सकारात्मक विशेष नहीं बल्कि नकारात्मक विशेष है. एक बात सच है कि यूरोपीय लोगों द्वारा विज्ञान के आविष्कार भी भारत पर आक्रमण का मकसद सामने रखकर ही होते थे. पृथ्वी गोल है, इस वैज्ञानिक सिद्घांत का कथित उपयोग भारत की खोज कर वहां जाकर लूटने के लिये किया गया था. पांच सौ वर्ष पूर्व का समय क्रूसेड वार (जिहाद) का था. अरब देशों के लोग यूरोपीय लुटेरों को भारत की ओर जाने नहीं देते थे, इसलिये अफ्रीका का चक्कर लगाने की कल्पना सामने आई. अरबी दस्यु भारत की ओर नहीं जाने देते, लेकिन पृथ्वी तो गोल है तो किसी अन्य मार्ग से भारत तक हम जायेंगे, इस आविर्भाव से कोलंबस ने अमरीका को ढूंढ निकाला. कोलंबस ने अमरीका को ही इंडिया समझा इसलिये आज भी वहां के स्थानीय लोगों को अमरीका ‘इंडियन’ ही कहता है. उनके अधिकारों की रक्षा हेतु वहां के 42 राज्यों में इंडियन राइट्स प्रिजर्वेशन मिनिस्ट्रीज हैं.

जिस तरह कोलंबस के बाद वास्को डि गामा के लिए भारत महवपूर्ण था, उतना ही पोप तेईसवें के बाद पोप जॉन पाल द्वितीय के लिये भारत महवपूर्ण था. ‘सेकिंड वेटिकन’ में चर्च मिशनरियों और पोप को रोम से बाहर निकलना चाहिये, इस तरह का प्रस्ताव पारित होने के बाद वे बाहर निकलकर सर्वप्रथम भारत में आये. सन् 1964 में युखॅरिस्टिक कांग्रेस के लिये पोप का भारत में आना एक अहम घटनाक्रम था. पोप जॉन पाल द्वितीय ने कसम दिलाई थी कि इक्कीसवीं सदी में भारत को ‘क्रिश्चियनिस्तान’ बनाना है, यहां ईसाइयत की फसल काटनी है. यह कसम उन्होंने पचास हजार मिशनरियों को दिलाई थी. वे केवल कसम दिलाने पर ही नहीं रुके, बल्कि प्रत्येक डायोसिस में दस-दस चर्च स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. भारत में तहसील स्तर तक मतांतरण एवं प्रचार का विस्तार होता दिखता है. ईसाई मिशनरियों द्वारा इसी तरह मतांतरण का आक्रमण जारी रहा तो इस सहस्राब्दि के अंत तक नहीं, इसी यानी 21 वीं सदी के अंत तक ही भारत को ‘क्रिश्चियनिस्तान’ बनाने की तैयारी दिखती है.

यह वस्तुस्थिति होते हुये भी, पिछले 65 वर्षो में समाज के जागने के उदाहरण दिखे हैं और राष्ट्रनिर्माण के अनेक प्रकल्प खड़े हो रहे हैं, दस लाख से अधिक लोग इस कार्य में सम्मिलित हैं. साठ-पैंसठ वर्ष पूर्व हमारा समाज ऐसी स्थिति में था कि चाहे जो हो जाये वह जागता ही नहीं था. इसका एक महत्यपूर्ण कारण था, भारत पर अंग्रेजों एवं खैबर मार्ग से आये जिहादियों और मुगलों की एक हजार वर्ष की गुलामी. आजादी की बात करने वाले के लिये मृत्युदंड, यह लगभग आठ सौ वर्षो की सच्चाई थी. एक हजार वर्षो की वह गुलामी आम व्यक्ति की नसों में दौड़ रही थी. उसका बाहर निकलना भी असंभव था. लेकिन पिछले साठ वर्षो में देश में जो उपक्रम आये उनमें से आत्मविश्वास प्राप्त करने वाले युवाओं की संख्या काफी बड़ी है. धीरे-धीरे भारत के बाहर भी भारत का असली परिचय लौट रहा है. विश्व को भारत का पुन: परिचय हो रहा है. 65 वर्ष पूर्व विश्व के लिये भारत सपेरों और जादूगरों का देश था. आज विज्ञान, तकनीक, ज्ञान, उद्योग आदि प्रत्येक क्षेत्र में हम विश्व के साथ चल रहे हैं. इसमें और थोड़ा तैयारी दर्शायें तो पिछले दिनों संतई की उपाधि प्राप्त करने वाले दोनों पोप द्वारा खड़ी की गई चुनौती को परास्त करना कठिन नहीं है.

 

सौजन्य: panchjanya.com

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