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09 जनवरी / जन्मदिवस – सरलचित्त प्रचारक तिलकराज कपूर जी

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tilak jiनई दिल्ली. तिलकराज कपूर का नाम सुनते ही सरलचित्त व्यक्ति का चित्र आँखों में उभर आता है. कन्धे पर कपड़ों और पुस्तकों से भरा झोला. हाथ में अंग्रेजी के समाचारपत्र. किसी हल्के रंग की कमीज, सफेद ढीला पाजामा और टायर सोल की चप्पल. बस ऐसे ही व्यक्तित्व का नाम था तिलकराज कपूर.

9 जनवरी, 1925 को जालन्धर में एक समृद्ध घर में जन्मे तिलक जी वर्ष 1945 में एमए, एलएलबी कर प्रचारक बने. परीक्षा में उनके प्रायः 90 प्रतिशत से अधिक अंक आते थे. एलएलबी में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाया था. वे चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय में वकील बन सकते थे, पर वे सुख-वैभव को ठुकराकर संघ के जीवनव्रती प्रचारक बन गये.

वर्ष 1945 में उनकी नियुक्ति उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई. वर्ष 1948 में प्रतिबन्ध के समय वहीं उन्होंने सत्याग्रह किया. वर्ष 1971 से 1977 तक भी मुजफ्फरनगर के ही जिला प्रचारक थे. आपातकाल लगने पर पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और अनेक यातनाएँ दीं. होश में आने पर उन्होंने स्वयं को जेल में पाया, पर मीसा नहीं लगा होने के कारण वे कुछ माह बाद ही छूट गये. पुलिस उन्हें फिर बन्द करना चाहती थी, पर जेल से निकलते ही कार्यकर्ता उन्हें कार में बैठाकर जिले से बाहर ले गये. पुलिस हाथ मलती रह गयी.

संघ के अनेक दायित्व निभाने के बाद वर्ष 1980 में उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम का पश्चिमी उत्तर प्रदेश का संगठन मन्त्री बनाया गया. यहाँ वनवासी क्षेत्र और सेवा प्रकल्प तो थे नहीं, पर तिलक जी ने लाखों रुपये प्रतिवर्ष एकत्र कर झारखण्ड, उड़ीसा, असम, छत्तीसगढ़ आदि के वनवासी केन्द्रों को भेजे. तिलक जी पत्र-व्यवहार बहुत करते थे. सुबह चार बजे उठकर एक-डेढ़ घंटे पत्र लिखना उनका नियम था. इससे ही वे सबसे सम्बन्ध बनाकर रखते थे. वनवासी क्षेत्र की हिन्दू गतिविधियों तथा खतरनाक ईसाई षड्यन्त्रों के समाचार वे सबके पास भेजते थे. फिर उन्हें दीपावली एवं वर्ष प्रतिपदा पर अभिनन्दन पत्र भी भेजते थे. यही लोग उन्हें सेवा कार्यों के लिए धन देते थे.

तिलक जी का दूसरा शौक था पुस्तक पढ़ना और पढ़वाना. उनके बड़े थैले में एक-दो पुस्तकें सदा रहती थीं. वे हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी के अच्छे ज्ञाता थे. जहां भी वे रहे, वहां बुद्धिजीवी वर्ग से इसी माध्यम से उन्होंने सम्बन्ध बनाये. फिर इसके बाद वे उन्हें संघ के काम में भी जोड़ लेते थे. प्रचारक को स्वयं पर कम से कम खर्च करना चाहिये, इस सोच के चलते उन्होंने आंखें कमजोर होने पर भी लम्बे समय तक चश्मा नहीं बनवाया. इससे उनकी एक आंख बेकार हो गयी. वे हंसी में कहते थे कि अब मैं राजा रणजीत सिंह बन गया हूं. इसके बाद भी उनका पढ़ने और लिखने का क्रम नियमित रहा.

तिलक जी की नियमित दिनचर्या की दूर-दूर तक चर्चा होती थी. सुबह चार बजे गिलास भर कड़क चाय पीकर निवृत्त होना. फिर पत्र-व्यवहार और प्रभात शाखा के लिए जागरण. प्रातः का अल्पाहार वे नहीं करते थे. दोपहर को भोजन करते ही एक-डेढ़ घंटे सोना भी उनकी आदत थी. उठकर फिर गिलास भर चाय पीकर लोगों से मिलने जाना. यदि किसी व्यस्तता के कारण विश्राम सम्भव न हो, तो वे दोपहर को भोजन ही नहीं करते थे. इस नियमितता के कारण उन्हें बीमार पड़ते कम ही देखा गया था.

दिल्ली में उनके परिजन शासन-प्रशासन में बहुत ऊंचे पदों पर रहे, पर उन्होंने कभी किसी से इसकी चर्चा नहीं की. सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति तिलक जी सक्रिय जीवन बिताते हुए रुद्रपुर (जिला ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड) में सात अक्तूबर, 2007 को अनन्त की यात्रा पर चले गये.

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