गुरु गोबिन्द सिंह जी का जीवनोद्देश्य धर्म की स्थापना, अधर्म का नाश
नरेंद्र सहगल
‘हिन्द दी चादर’ अर्थात भारतवर्ष का सुरक्षा कवच सिक्ख साम्प्रदाय के नवम् गुरु गुरु तेगबहादुर जी ने हिन्दुत्व अर्थात् भारतीय जीवन पद्धति, सांस्कृतिक धरोहर एवं स्वधर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर मुगलिया दहशतगर्दी को दिल्ली में जाकर चुनौती दी थी. कश्मीर के पंडितों का दु:ख सारे देश के विशाल हिन्दू समाज का दु:ख था. इस ऐतिहासिक बलिदान के माध्यम से पूरे भारतवर्ष के सभी को वर्गों एवं जातियों को संगठित होकर मुगलों की मजहबी तानाशाही के प्रतिकार के लिए हथियार उठाने का आह्वान किया था.
स्वधर्म एवं राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए ए इस महान बलिदान पर दशम गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इसे महान साका की संज्ञा देते हुए कहा था – “तिलक जंजू राखा प्रभ ताका किन्हों बड़ो कलु महि साका. साधनि हेति इति जिन करी, सीसे दया पर सी न उचरी. धर्म हेत साका तिनि किया, सीस दिया पर सिरर न दिया.”
गुरु तेगबहादुर जी के पुत्र शौर्य के प्रतीक गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 11 वर्ष की आयु में ही अत्याचारी मुगल शासन को उखाड़ कर धर्म राज्य (अधर्म का विनाश करने वाला) की स्थापना करने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली थी. तत्पश्चात उनकी सारी गतिविधियां अध्यात्म आधारित सैन्य गतिविधियों में परिवर्तित हो गई. उनके समक्ष अब एक ही लक्ष्य था – भारत के हिन्दू समाज में प्रचलित विघटन को समाप्त करके एक ऐसे शक्तिशाली सैनिक संगठन का निर्माण करना जो भारत को विदेशी अधिनायकवाद से स्वतंत्रता दिलाकर खालसा अर्थात खालिस/पवित्र/आर्य राज की स्थापना करे. आगे चलकर दशम् गुरु ने घोषणा भी की थी “राज करेगा खालसा”.
“खालसे का राज’ के साथ ही उन्होंने यह भी कहा – “आकी रहे न कोई’ अर्थात् सच्चे लोगों का राज तभी स्थापित होगा, जब इस धरा पर आकियों (पापियों) का अंत होगा. इन वाक्यों में दशम गुरु के जीवन का महान उद्देश्य समाया हुआ है. गुरु के शब्दों में पापियों (मुगलों) के विरुद्ध जंग के ऐलान की ललकार है और “खालसा का राज” इन शब्दों में विखंडित, जातिग्रस्त और भेदभाव से भरे हुए और सुप्तावस्था में जी रहे हिन्दू समाज के संगठन और सैनिकीकरण की आवश्यकता जताई गई है. दशमेश पिता का सारा संघर्षमय जीवन इन दोनों पंक्तियों पर ही आधारित रहा है.
दशमेश पिता गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ बचित्र नाटक (आत्म कथा) में पृथ्वी पर अपने अवतरित होने के उद्देश्य की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहा है –
याही काज धरा हम जन्में. समझ लहू साध सब मनमें.
धर्म चलावन संत उबारन. दुष्ट सभी ओ मूल उबारन. (बचित्र नाटक)
स्पष्ट है कि गुरु गोबिन्द सिंह जी की सभी सैन्य गतिविधियां धर्म चलावन (धर्म की स्थापना) और संत उबारन (राष्ट्रवादी सज्जन शक्ति का उदय) के लिए ही थीं. यह तभी संभव हो सकता था जब दुष्टता, पाप और विषमता का पूर्ण अंत होगा. आगे चलकर खालसा पंथ की स्थापना इसी पार्श्व भूमिका तथा उद्देश्य के लिए गुरु जी द्वारा की गई थी.
दशमेश पिता द्वारा घोषित उद्देश्य ‘राज करेगा खालसा’ एक क्षेत्र (पंजाब) और एक ही समुदाय (सिक्ख) की परिधि में नहीं आता. इसका दायरा अखंड भारतवर्ष तथा समस्त हिन्दू समाज है. दशमेश पिता ने तो इससे भी आगे बढ़कर ‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दू, तुर्क द्वन्द भाजै’ कहकर भारतीय चिंतनधारा के सर्वव्यापि, सार्वभौम और सार्वग्राह्य पक्ष को उजागर किया था. वास्तव में दसों गुरुओं का कर्मक्षेत्र भले ही पंजाब को केंद्र मानकर पूरा देश रहा होगा, परंतु उनका दृष्टिकोण तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही था.
दशम् पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा अपनी आत्मकथा बचित्र-नाटक में अपने जन्म का जो उद्देश्य ‘धर्म की स्थापना, दुष्टों का विनाश और संतजनों का उद्धार’ घोषित किया गया है, वह अकाल पुरुख की योजना का स्पष्टीकरण है. जब भी इस धरा पर राक्षसी वृति पनपने लगती है और पापियों के कृत्यों से मानवता त्राहि-त्राहि कर उठती है, तब-तब सृष्टि की संचालक दिव्यशक्ति अवतार धारण करती है.
इस तथ्य की गहराई को समझने के लिए हम त्रेतायुग के अवतार मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम को समझें. उनके इस धरा पर आने का उद्देश्य था रावण जैसी राक्षसी शक्तियों को समाप्त करके रामराज्य की स्थापना करना. श्रीराम ने धनुर्धारी रूप में आकर यह कार्य सम्पन्न किया. वनवासी क्षेत्रों से सैनिक शक्ति तैयार की. इसे ही समाज में क्षात्रधर्म का जागरण कहा गया है. गोस्वामी तुलसीदास ने इस अवतार विषय पर कहा है –
“जब-जब होंहि धर्म की हानी. बाड़ै असुर महां अभिमानी..
तब-तब धरि प्रभु विविध सरीरा. हरंहि कृपानिधि सज्जन पीरा..”
अर्थात जब-जब धर्म एवं सज्जन शक्ति पर संकट आता है, तब-तब परमात्मा विविध शरीरों के रूप में धराधाम पर आते हैं. सज्जनों के दुख दूर करना उनका उद्देश्य होता है.
द्वापर युग में भी स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहा था –
‘परित्राणाय साधुनां. विनाशाय च दुष्कृताम्..
धर्म संस्थापनार्थाय. संभवामि युगे-युगे..
अर्थात दुष्टों का नाश, सज्जनों का कल्याण तथा धर्म की पुनर्स्थापना हेतु मैं जन्म लेता हूँ.
अतः स्पष्ट है कि दशम् पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने यह कहकर ‘याही काज हम धरा पर जनमें’ अपनी भावी सैनिक रणनीति की घोषणा कर दी थी. उन्होंने अपनी काव्य रचना ‘चंडी दी वार’ में आदिशक्ति भवानी की पूजा करते हुए किरपाण (तलवार) के महत्व पर प्रकाश डाला है. सिक्ख समाज में जो अरदास कही जाती है, उसकी प्रथम पंक्ति से ही दशम् पातशाह ने अपनी रणनीति की घोषणा कर दी है – “प्रथम भगौति सिमरिए’ अर्थात सभी प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करने के पूर्व भगौति (आदि शक्ति भगवति) खड़ग (किरपाण) की वंदना करो.
उल्लेखनीय है कि भारत में शक्ति (शस्त्र पूजन) की प्रथा सनातन काल से ही चली आ रही है. आज भी भारत में विजयादशमी के दिन शस्त्रों की पूजा करने का विधान प्रचलित है. गुरु गोबिंद सिंह जी के समकालीन छत्रपति शिवाजी भी भवानी की पूजा तलवार की पूजा के रूप में ही करते थे. सनातन काल से ही हिन्दू योद्धा शस्त्र पूजन की पद्धति का सम्मान करते हुए रणक्षेत्र में शत्रु के संहार के लिए प्रस्थान करते थे.
दशमेश पिता ने इसी सैन्य परंपरा की पुनर्स्थापना करके हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व तथा सरवंश तक न्योछावर कर दिया था. नवम् गुरु गुरु तेगबहादुर जी के आत्म बलिदान के बाद हिन्दू समाज में प्रतिशोध की भावना तीव्रगति से जाग्रत हुई और दशमेश पिता ने इस प्रतिशोध का नेतृत्व संभाल कर रणक्षेत्र में उतर कर रणभेरी बजा दी.
डॉ. महीप सिंह अपनी रचना ‘गुरु गोबिंद सिंह जी और उनकी कविता’ में लिखते हैं – ‘औरंगजेब की धार्मिक नीतियों के कारण हिन्दुओं में प्रतिकार का भाव जाग्रत हो रहा था —– गुरु गोबिंद सिंह जी ने केवल 9 वर्ष की आयु में दिल्ली में अपने पूज्यपिता का बलिदान होते देखा था. इस अबोध सी लगने वाली आयु में उन्होंने गुरुगद्दी का गुरुत्तर भार संभाला था, जो दिल्ली के मुगल शासन की आखों में खटक रहा था.’ इन परिस्थितियों में दशमेश पिता ने हिन्दुत्व एवं मानवता की रक्षा के लिए कटिबद्ध होकर समाज में क्षात्रधर्म के जागरण का बीड़ा उठाया.
……….क्रमश:
(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)