लोकेंद्र सिंह
500 वर्षों के संघर्ष और लंबी प्रतीक्षा के पश्चात अब जाकर वह क्षण आया है, जिसका स्वप्न हिन्दू समाज देख रहा था. अयोध्या जी में भारत की श्रद्धा के केंद्र भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण के शुभारंभ के साथ अब जाकर हिन्दू समाज के आत्मगौरव का वनवास भी खत्म हो रहा है. यह कोई साधारण मंदिर नहीं है, भारत के स्वाभिमान का प्रतीक है. इसलिए यह क्षण सामान्य नहीं है, ऐतिहासिक अवसर है. गौरव की अनुभूति से भर जाने का समय है. इस अवसर के मर्म को समझना है तो वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारतीय समाज के अंतर्मन में झांकना चाहिए. इस समय कोरोना महामारी के कारण समाज एक गहरे संकट का सामना कर रहा है, लेकिन इस सबके बाद भी जब से मंदिर निर्माण की तिथि घोषित हुई है, उसका अंतर्मन प्रफुल्लित है. उसकी आँखों में एक चमक है. हर्षित होकर वह आज के दिन की प्रतीक्षा कर रहा था. भारत में ही नहीं, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भारतीय मन बसता है, वहाँ इस घड़ी की प्रतीक्षा थी. सब अपने अंदाज से इस तिथि को विशेष बनाने का प्रबंध कर रहे हैं. मानो, समूचा विश्व इस समय राममय हो गया है. उत्साह ऐसा है कि मानो आज ही श्रीरामचंद्र अपने वनवास से लौट रहे हैं. यह वनवास ही तो था कि करोड़ों हृदय में बसने वाले श्रीराम अपनी ही जन्मभूमि पर टाट में विराजे थे. अब समय आ गया है कि राक्षसी प्रवृत्तियों के पराभव के बाद भव्य मंदिर में अपने रामजी ठाठ से विराजेंगे.
आज जब यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत मंदिर निर्माण के कार्य हेतु भूमिपूजन किया, तो एक सपना साकार हुआ. इस तरह का उदाहरण पूरे विश्व में कहीं नहीं मिलेगा कि बहुसंख्यक समाज ने अपने ही आराध्य के मंदिर के लिए पाँच शतक का संघर्ष किया. अन्यत्र तो यही देखने को मिलता है कि जैसे ही मूल समाज के हाथ में सत्ता आती है, वह अपने प्रतीकों को स्थापित करने में देरी नहीं करता. औपनिवेशिकता एवं कलंक के प्रतीकों को ढहाने में वह कोई संकोच नहीं करता. लेकिन, हिन्दू समाज वैसा नहीं है. वह बदले की भावना से भरा हुआ नहीं है. अन्यथा अयोध्या में कब का श्रीराम मंदिर बन गया होता. हिन्दू समाज तो सत्य की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा था. उसको यह भी साबित करना था कि उसका पक्ष सत्य का है. वह सही मायनों में राम का उत्तराधिकारी समाज है, जो कंटकों पर चल कर भी स्वयं को प्रमाणित करता है.
आज जिस क्षण के हम सब साक्षी हु, उसको उपस्थित कराने में सहस्त्रों रामभक्तों का बलिदान शामिल है. यह क्षण उन सब बलिदानी रामभक्तों के प्रति भी श्रद्धा से नतमस्तक होने का अवसर है. यह स्वीकार करना चाहिए कि वर्षों से चले आ रहे बिखरे संघर्ष एवं प्रयासों को विश्व हिन्दू परिषद ने एकजुट किया. श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के कारण हिन्दू समाज की हुंकार को न केवल सबने सुना, अपित सब हिन्दुओं के सामूहिक आने से समाज का जो विराट स्वरूप दिखाई दिया, उसके कारण सबने गंभीरता से ध्यान भी दिया. यह भी स्वीकार करना चाहिए कि यदि 2014 में राजनीतिक परिवर्तन नहीं होता, भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में नहीं आती, तब संभव है कि आज भी यह मामला न्यायालय में अटका होता. भाजपानीत सरकार ने न्यायालयीन प्रक्रिया में आगे बढ़कर सहयोग किया है. जबकि पूर्ववर्ती सरकारों ने न्यायालय प्रक्रिया में उदासीनता ही दिखाई. बहरहाल, आज उस कड़वे अनुभव को स्मरण करने का दिन नहीं है. आज तो उत्साह और उल्लास का दिन है. शुभ दिन है. सही मायने में आज ‘भारत की नियति से भेंट’ का दिन है, भारत नव प्रभात में, नयी रोशनी में, जगमग उजाले में, स्वाभिमान के साथ सुशोभित होगा. सकल जगत इस क्षण का साक्षी बनेगा.