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अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्रति पं. नेहरू की घृणा…!

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आइये, पहले दो पत्रों के अंश पढ़ते हैं….

सबसे पहले, 26 दिसंबर, 1949 को लिखे गए एक पत्र की चर्चा करते हैं. इसमें लिखा है, “मैं अयोध्या के घटनाक्रम से परेशान हूं. पूरी उम्मीद है कि आप व्यक्तिगत रूप से इस मामले में रुचि लेंगे. वहां खतरनाक उदाहरण स्थापित किया जा रहा है, जिसके बुरे परिणाम होंगे”.

22 अप्रैल, 1951 को लिखे दूसरे पत्र में लिखा गया है, “मेरे प्रिय राजेंद्र बाबू, मैं सोमनाथ मामले को लेकर बहुत चिंतित हूं. जैसा कि मुझे डर था, यह एक निश्चित राजनीतिक महत्व ग्रहण कर रहा है. दरअसल, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसका जिक्र किया गया है. इसके सम्‍बन्‍ध में हमारी नीति की आलोचना में, हमसे पूछा जाता है कि हमारी जैसी धर्मनिरपेक्ष सरकार खुद को ऐसे समारोह से कैसे जोड़ सकती है? जो चरित्र में पुनरुत्थानवादी है. संसद में मुझसे सवाल पूछे जा रहे हैं और मैं उनका जवाब देते हुए कह रहा हूं कि सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है और जो लोग किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं, वे पूरी तरह से अपनी निजी क्षमता से काम कर रहे हैं”.

कोई भी सामान्य व्यक्ति आसानी से यह निष्कर्ष निकाल लेगा कि दोनों पत्र एक ही व्यक्ति द्वारा लिखे गए हैं. कोई भी व्यक्ति यह समझेगा कि पत्र लेखक पश्चिमी विचारों से बौद्धिक प्रेरणा लेता है. किसी भी सामान्य से सामान्य व्यक्ति को यह अहसास होगा कि पत्र लिखने वाले ने हिन्दू भावनाओं के प्रति घोर उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान किया है.

पत्र लिखने वाला कोई और नहीं, बल्कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हैं. मुसलमानों के प्रति नेहरू की दयालुता और विशेष प्रेम एक सर्वविदित तथ्य हैं ये दोनों पत्र. उनकी धर्मनिरपेक्षता की नीति, अल्पसंख्यक समुदायों का पक्ष लेना और हिन्‍दुओं का अपमान करना, अगले कुछ दशकों तक देश का नेतृत्व करता रहा, जिससे राष्ट्रीय और भौगोलिक अखंडता के लिए कई चुनौतियाँ पैदा हुईं. समय के साथ नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के कारण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और कई अन्य समस्याएं भी पैदा हुईं. लेकिन, नेहरू भक्तों में वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस, बौद्धिक ईमानदारी और खुलापन नहीं है.

वास्तविकता तो यह है कि नेहरू की धर्मनिरपेक्षता का शुरुआती दिनों से ही विरोध किया गया था. कांग्रेस के भीतर और राजनीतिक क्षेत्र के बाहर के लोगों ने इसका विरोध किया. हमारे पास यह दिखाने के लिए दो ज्वलंत उदाहरण हैं कि कैसे हिन्दू भावनाओं से जुड़े दो प्रमुख मुद्दों पर नेहरू का विरोध किया गया था. सबसे पहले, राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल और केएम मुंशी जैसे अन्य कांग्रेस नेता नेहरू की आपत्ति और विरोध के बावजूद गुजरात में सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण के लिए आगे बढ़े. 1949 के दूसरे मामले में फैजाबाद के तत्कालीन डिस्‍ट्रि‍क्‍ट कलेक्टर ने अयोध्या मंदिर से भगवान राम और सीतामाता की मूर्तियों को हटाने के नेहरू के आदेश को मानने से इनकार कर दिया. परिणामस्वरूप, मंदिर में भगवान राम और सीतामाता की मूर्तियाँ विद्यमान रहीं. ऐसा तब हुआ जब केंद्र और राज्य सरकार उन्हें हटाना चाहती थी. यह हिन्‍दुओं के तीव्र आक्रोश के कारण ही सम्‍भव हो सका था.

अयोध्या के प्रति नेहरू के दृष्टिकोण को तीन पत्रों से समझा जा सकता है, जो उन्होंने दिसंबर 1949 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के केंद्रीय गुंबद में दो मूर्तियों – भगवान राम और सीतामाता – के प्रकट होने के बाद लिखे थे. 26 दिसंबर, 1949 को नेहरू ने एक टेलीग्राम संदेश उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीबी पंत को भेजा था. इसमें कहा गया, “मैं अयोध्या के घटनाक्रम से परेशान हूं. पूरी उम्मीद है कि आप इस मामले में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेंगे. वहां खतरनाक उदाहरण पेश किया जा रहा है, जिसके बुरे परिणाम होंगे.”

दूसरा पत्र 7 जनवरी, 1950 को भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल सी राजगोपालाचारी को भेजा गया था. इसमें कहा गया, “मैंने कल रात पंतजी को अयोध्या के बारे में लिखा था और यह पत्र एक ऐसे व्यक्ति के पास भेजा था जो लखनऊ जा रहा था. बाद में पंतजी ने मुझे फोन कर बताया कि वह बहुत चिंतित हैं और वह व्यक्तिगत रूप से इस मामले को देख रहे हैं”.

तीसरे पत्र में, जो प्रसिद्ध गांधीवादी केजी मशरूवाला को भेजा गया था, नेहरू ने लिखा, “आप अयोध्या मस्जिद का उल्लेख करते हैं. यह घटना दो या तीन महीने पहले हुई थी और मैं इससे बहुत परेशान हूं. यूपी सरकार ने एक बहादुरी दिखाई, लेकिन वास्तव में कुछ नहीं किया. फैजाबाद में उनके जिलाधिकारी (केके नायर, आईसीएस) ने दुर्व्यवहार किया और ऐसा होने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया”. यह पत्र 5 मार्च, 1950 को लिखा गया था.

तीनों पत्रों से यह वास्तविकता उजागर होती है कि नेहरू राम जन्मभूमि स्थल पर मूर्तियां प्रकट होने से बेहद परेशान और निराश थे. नेहरू स्वयं स्वीकार करते हैं कि वह ‘अयोध्या के घटनाक्रम से परेशान’ थे. उन्होंने इस घटना को ‘खतरनाक उदाहरण’ बताया, जिसके बुरे परिणाम होने का हवाला दिया था. पत्रों से यह भी जाहिर होता है कि नेहरू खुश नहीं थे क्योंकि उनके निर्देशों के बावजूद मूर्तियां हटाने के लिए कुछ नहीं हो रहा था. उन्होंने फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी केके नायर पर आरोप लगाते हुए कहा था कि नायर ने दुर्व्यवहार किया और ऐसा होने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. यह पत्र तर्क देने के लिए पर्याप्त है कि नेहरू को राम जन्मभूमि के बारे में हिन्दू भावनाओं के प्रति बहुत कम सम्मान और चिंता थी.

कुछ रिपोर्टों से पता चलता है कि नेहरू ने मंदिर से भगवान राम और सीतामाता की मूर्तियों को हटाने के लिए कहा था, लेकिन फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी केके नायर के रुख के कारण ऐसा नहीं हो सका. नेहरू की हिन्दुओं के प्रति रवैये को उनके तीन पत्रों से समझा जा सकता है. मगर केके नायर के साथ जो हुआ वह ज्यादा गंभीर था.

अपने ‘लोकतांत्रिक’, ‘उदार’ और ‘समायोज्य’ राजनेता की छवि के विपरीत नेहरू ने केके नायर के प्रति पूर्णत: बदले की भावना से काम किया था. नेहरू अपनी ‘अधीनता’ को बर्दाश्त नहीं कर सके क्योंकि उन्हें डर था कि अयोध्या के विकास से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि प्रभावित होगी और कश्मीर मुद्दे पर भी असर पड़ेगा.

उत्तर प्रदेश और दिल्ली के राजनीतिक नेतृत्व को यथार्थवादी रिपोर्ट प्रस्तुत करने की नायर को भारी कीमत चुकानी पड़ी. नायर को अंततः पंत सरकार द्वारा सेवाओं से निलंबित कर दिया गया. नायर ने कोर्ट में केस लड़ा और विजयी भी हुए. बाद में उन्होंने सेवाओं से इस्तीफा दे दिया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में प्रैक्‍टि‍स करने लगे.

हालांकि, नायर से जुड़ी घटनाओं से संकेत मिलता है कि नेहरू और कांग्रेस शासन ने उन्हें कभी माफ नहीं किया. राम जन्मभूमि मुद्दे पर एक रिपोर्ट बनाने के लिए उत्तर प्रदेश राज्य सरकार से एक पत्र प्राप्त करने के बाद, नायर ने अपने सहायक गुरुदत्त सिंह को एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजा. 10 अक्तूबर, 1949 को सिंह ने उस स्थान पर राममंदिर के निर्माण की सिफारिश की. सिंह ने साइट का दौरा किया था और देखा था कि हिन्‍दू और मुस्लिम दोनों ने कार्यक्रम किए थे.

उन्होंने रिपोर्ट में लिखा, “हिन्दू जनता ने वर्तमान में मौजूद छोटे मंदिर के स्थान पर एक भव्य और विशाल मंदिर बनाने की दृष्टि से यह आवेदन किया है. रास्ते में कुछ भी नहीं है और अनुमति दी जा सकती है क्योंकि हिन्दू आबादी उस स्थान पर एक भव्य मंदिर बनाने के लिए बहुत उत्सुक है, जहां भगवान रामचंद्र जी का जन्म हुआ था. जिस भूमि पर मंदिर बनाया जाना है वह नजूल (सरकारी भूमि) की है”.

इस रिपोर्ट से नेहरू और पंत चिढ़ गये. इसके बाद पंत ने हिन्दुओं को मंदिर से बाहर निकालने का आदेश दिया, लेकिन नायर ने यह कहते हुए दबाव के आगे झुकने से इनकार कर दिया कि इससे दंगे भड़क सकते हैं. नायर ने मूर्तियां हटाने से भी इनकार कर दिया. नायर ने राज्य सरकार के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री के निर्देश पर कार्रवाई नहीं करने के अपने फैसले का बचाव किया. उन्होंने यूपी के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कहा, “अगर सरकार ने किसी भी कीमत पर मूर्तियों को हटाने का फैसला किया है तो मैं अनुरोध करूंगा कि मुझे पदमुक्त कर दिया जाए और मेरी जगह एक ऐसे अधिकारी को नियुक्त किया जाए जो समाधान में वह गुण देख सके जो मैं समझ नहीं सकता.”

उधर, नेहरू मंदिर से मूर्तियां हटाने पर अड़े हुए थे. उन्होंने गोविंद वल्लभ पंत को एक और पत्र लिखा और कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो वे अयोध्या का दौरा करेंगे. उसी पत्र में, नेहरू ने कहा था, “मुझे खुशी होगी अगर आप मुझे अयोध्या की स्थिति से अवगत कराएंगे. जैसा कि आप जानते हैं, मैं इसे और अखिल भारतीय मामलों और विशेष रूप से कश्मीर पर इसके प्रभावों को बहुत महत्व देता हूं. मैं और आप जब पिछली बार यहां आए थे तो आपको सुझाव दिया था कि यदि आवश्यक हुआ तो मैं अयोध्या जाऊंगा. यदि आपको लगता है कि ऐसा किया जाना चाहिए तो मैं तारीख तलाशने का प्रयास करूंगा. हालांकि, मैं बहुत व्यस्त हूं”.

नेहरू कभी अयोध्या नहीं गये. पत्र हमें विश्वास दिलाते हैं कि नेहरू केवल मूर्तियाँ हटाने के लिए ही अयोध्या आये होंगे. आख़िरकार, मंदिर पर ताला लगा दिया गया, हिन्‍दुओं को प्रवेश करने से रोक दिया गया. पूजा के लिए केवल एक पुजारी को अनुमति दी गई. मंदिर के कपाट  1986 में खोले गए थे.

केके नायर को उनके पेशेवर कर्तव्य के लिए हमेशा याद किया जाएगा. केके नायर के कारण नेहरू बेनकाब हो गए. कंडांगलाथिल करुणाकरण नायर का जन्म 11 सितंबर, 1907 को केरल में हुआ था. उनका जीवन केरल के अलप्पुझा के कुट्टनाड गांव से शुरू हुआ था. राज्य में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, नायर उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड चले गए और 21 साल की उम्र में भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) परीक्षा उत्तीर्ण की. तब उन्हें फैजाबाद के उपायुक्त सह जिला मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात किया गया था, जिसका पुराना नाम अयोध्या था. 1 जून 1949 को सेवा से इस्तीफा देने के बाद, नायर भारतीय जनसंघ में शामिल हो गए. नायर और उनकी पत्नी दोनों अंततः लोकसभा के सदस्य बने.

नेहरू के पत्र और केके नायर के साथ उनका व्यवहार उन्हें बहुत खराब तरीके से दर्शाता है और उनकी सीमाओं को रेखांकित करता है. दूसरी ओर नायर एक सही व्यक्ति साबित हुये. यह नेहरू बनाम नायर की लड़ाई थी. आख़िरकार नायर जीत गए और नेहरू हार गए.

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