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श्री रामानुजाचार्य

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श्रीरामानुजाचार्य जयंती पर विशेष

दक्षिण भारत के पाण्ड्य राज्य का महाप्रतिभुतिपुरी वह शक्ति स्थान है, जो आचार्य के आविर्भाव से धन्य हुआ. आसुरिकेशवाचार्य दीक्षित चन्द्र ग्रहण के समय कैरविणी सागर संगम पर अपनी पत्नी के साथ स्नान करने आये थे. उनकी पत्नी श्रीकान्तिमती जी श्रीयामुनाचार्य जी के शिष्य श्री शैलपूर्ण जी की बहिन थी. भगवदीय वरदान से जो तेजोमय पुत्र उन्हें यथासमय प्राप्त हुआ, उसका नाम लक्ष्मण रखा गया. यही बालक लक्ष्मण भक्ति मार्ग का पुनरूद्धारक हुआ और जगद्गुरु रामानुजाचार्य कहलाया.

पिता के परलोकवास के अनन्तर लक्ष्मण अद्वैत शास्त्र में निष्ठा रखने वाले आचार्य यादव प्रकाशजी के पास अध्ययन करने लगे, लेकिन लक्ष्मण को अद्वैत-शिक्षा में तनिक भी रुचि नहीं थी. भक्ति, देवार्चन आदि श्रवण, मनन की अपेक्षा निम्नकोटि के साधन हैं- यह उनका हृदय स्वीकार नहीं करता था. भगवान के सच्चिदानन्द धनश्री विग्रह को मायामय बताना उन्हें सहन नहीं था. थोड़े ही दिनों में श्रुतियों के अर्थ के सम्बन्ध में गुरु शिष्य में मतभेद रहने लगा, लेकिन इस मतभेद के कारण बालक लक्ष्मण की गुरुभक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वे गुरुदेव का पूरा सम्मान करते थे.

आचार्य यादव प्रकाश जी मन्त्रशास्त्र के भी विद्वान थे. काशी की राजकुमारी को ब्रह्म पिशाच पीड़ा दे रहा था. राजा के आमंत्रण पर राजा अपने शिष्यों के साथ राजभवन पधारे किन्तु उनके किसी भी मंत्र-तंत्र का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा. अंत में ब्रह्म पिशाच ने ही बताया कि यदि भगवदभक्त लक्ष्मण उस कन्या के मस्तक पर अपने चरण रख दें तो कन्या अच्छी हो जायेगी और पिशाच भी इस दुखद योनि से छूट जायेगा.

गुरु की आज्ञा से लक्ष्मण ने ऐसा ही किया. राजकुमारी स्वस्थ हो गयीं. फलतः राजा ने बहुत अधिक द्रव्य देकर लक्ष्मण का सम्मान किया. लक्ष्मण ने यह सब धन आचार्य यादव प्रकाश जी को अर्पित कर दिया लेकिन यादव प्रकाश जी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी. अब वे लक्ष्मण को अपनी कीर्ति में बाधक मानने लगे. उन्होंने लक्ष्मण को मार डालने का निश्चय किया. काशी यात्रा के बहाने वे सबके साथ चल पड़े. उनका उद्देश्य लक्ष्मण को किसी घोर वन में मरवा देना था, किन्तु गोण्डाख्य पहुंचने पर लक्ष्मण को इस षड्यंत्र का पता लग गया. वे गुरुदेव का साथ छोड़कर अलग हो गये. अनजान मार्ग, भयंकर वन, कांटों और पत्थरों से बालक लक्ष्मण के पैर क्षत-विक्षत हो गये. भूख प्यास ने शरीर को असमर्थ बना दिया. अंत में आतुर होकर वे भक्त हमारी भगवान को पुकारने लगे. इसी समय उन्हें एक व्याध दम्पति दिखाई पड़े. उन दोनों ने बताया कि यहां से काशी बहुत दूर है जहां लक्ष्मण को जाना है. रात्रि को वहीं विश्राम करना था. रात में व्याध पत्नी को प्यास लगी. सवेरा होने पर थोड़ी दूर चलने पर एक कुंआ दिखाई पड़ा. कुएं पर बहुत मनुष्य जल भर रहे थे. कोई पात्र न होने के कारण लक्ष्मण ने अंजलि में जल लेकर तीन बार व्याध पत्नी को जल पिलाया. चौथी बार वे जल पिलाने गये तो न वहां व्याध था न व्याध पत्नी.

अब लक्ष्मण समझ गये कि भगवान लक्ष्मीनारायण ने ही उन्हें दर्शन दिया था और उस भयंकर वन से रात्रि में सोते समय उन्हें काशी पहुंचा दिया. लक्ष्मण घर आये. माता ने पुत्र को हृदय से लगा लिया. जब लक्ष्मण के मामा काशीपूर्ण जी ने सब बातें सुनीं तब उन्होंने उसी शाल कूप के जल से नित्य भगवान वरदराज को स्नान कराने का आदेश दिया. भगवत् कृपा का यह अनुभव करके बालक लक्ष्मण का हृदय भक्ति से परिपूर्ण हो उठा.

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