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सामाजिक समरसता भाषण का, लिखने का, पढ़ने का विषय नहीं है, ये जीवन में उतारने का विषय है – गुणवंत सिंह जी

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उदयपुर (विसंकें). सेवा भारती चिकित्सालय, उदयपुर द्वारा पूजनीय बाला साहब देवरस स्मृति सप्तम व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया. जिसका विषय था – सामाजिक समरसता से ही राष्ट्र का उत्थान संभव. मुख्य अतिथि के रूप में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अर्जुनराम जी मेघवाल तथा मुख्य वक्ता के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह सेवा प्रमुख गुणवंत सिंह जी उपस्थित रहे.

गुणवंत सिंह जी ने कहा कि बाला साहब देवरस में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी का आभास होता था, श्री गुरूजी ने तो एक कार्यक्रम में यहां तक कह दिया कि जिन्होंने डॉक्टर साहब को नहीं देखा वह बाला साहब को देख लें. बाला साहब के बाल्यकाल की घटना है, जब उन्होंने अपने मित्रों को खाने पर बुलाया तो अपनी माता जी से कहा कि जिस रसोई में बैठकर मैं भोजन करता हूं, मेरे मित्र भी उसी रसोई में बैठकर भोजन करेंगे. उनकी माता जी भी सामाजिक समरसता की पक्षधर थीं, उन्होंने भी बालासाहब के मित्रों को उसी भावना से भोजन कराया, जिस भावना से वह अपने पुत्र को भोजन करवाती थीं. बालासाहब सत्यवादी व्यक्ति थे, उन्होंने पुणे की वसंत व्याख्यानमाला में यह तक कह दिया कि यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है.

भारत भूमि एक महान भूमि है, इस भूमि पर जन्म लेने के लिए हर कोई लालायित है. विदेशी लोग भी यह मानने लगे हैं कि 84 लाख योनियों में जन्म लेने के बाद यदि भारत में जन्म लिया जाए तो जीवन का उद्धार हो सकता है, भारत की यह स्थिति है विदेशों में. विदेशी भारत के बारे में यह विचार रखते हैं और इसी कारण से भारत को विश्व गुरु मानते हैं. भारत अपने चरित्र के कारण विश्वगुरु है, भारत के लोगों ने कभी विदेश में जाकर किसी संस्कृति को नुकसान नहीं पहुंचाया. हमारी हिन्दू जीवन व्यवस्था में व्यक्ति को पता चलता है कि उसे जो कुछ प्राप्त हुआ है, वह समाज का है, तब वह निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा में अपना जीवन समर्पण कर देता है. किंतु मनुष्य के साथ एक स्वार्थ का तत्व भी ईश्वर ने दिया है, इसी तत्व के कारण कालांतर में सारी व्यवस्थाएं चरमरा गई.

गुणवंत जी ने हजारी प्रसाद जी द्विवेदी के लेख का उल्लेख करते हुए कहा कि किस तरह से रूढ़ियां बेड़ियों में बदल जाती हैं, और समाज की विकृतियां समाज को तोड़ने लगती है, संक्रमित करने लगती हैं. ऐसे में हर काल में भारतवर्ष में ऋषि-मुनि, तपस्वी हुए हैं, जिन्होंने समाज को टूटने से बचाया है. मुगल काल में देवल ऋषि हुए, जिन्होंने देवल स्मृति देकर मुगलों द्वारा शोषित हिन्दू महिलाओं को समाज में फिर से अपनाने का आग्रह किया. जब हमारे लोगों को गले में घंटी बांध कर घूमना पड़ता था, तो केरल के नारायण गुरु ने इस व्यवस्था के खिलाफ खड़े होकर व्यवस्था को बदल दिया. मैला उठाने की परंपरा मुगल काल में आई. जिन लोगों ने इस्लाम कबूल नहीं किया, उनसे मुगलों ने मैला उठाने जैसे कृत्य करवाए, किंतु इन लोगों ने अपने धर्म को नहीं छोड़ा.

उन्होंने कहा कि समाज एक बुरे दौर से गुजर रहा था, भेदभाव चरम पर था. डॉ. भीमराव आंबेडकर जी द्वारा 1931 में घोषणा कर दी गई कि वह हिन्दू धर्म छोड़ेंगे और उन्होंने यह कार्य 1956 में किया. सन् 1931 से लेकर 1956 तक वाह इंतजार करते रहे कि व्यवस्थाएं बदलेंगी. वह हिन्दू धर्म के खिलाफ नहीं थे, बल्कि समाज में कालांतर में उपजी रूढ़ियों के खिलाफ थे. किंतु समाज का कोई व्यक्ति उन्हें रोकने नहीं आया, उनसे उनकी पीड़ा नहीं पूछी. इस काल में अन्य मतों को मानने वाले लोग आंबेडकर जी से संपर्क करने लगे, किंतु बाबा साहेब का तर्क था कि वह भारतीय संस्कृति में से निकले मत को अपनाएंगे, वह किसी बाहर के मत को नहीं अपनाएंगे, अंत में उन्होंने बौद्ध मत स्वीकार किया.  कि वह जानते थे कि विदेश से आया मत समाज और संस्कृति को तोड़ने का काम करता है, इन मतों में मतांतरण होने से राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है, आंबेडकर जी धारा 370 के भी विरोधी थे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह काम हाथ में लिया. समाज में जो लोग अन्य लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, कहीं किसी साधू के रूप में, कहीं किसी ऋषि के रूप में, पहले उनके मन में समरसता का भाव आना चाहिए. इसी उद्देश्य के साथ विश्व हिन्दू परिषद ने 1966 में प्रयागराज में एक अधिवेशन किया, जिसमें सभी ऋषि-मुनियों को आमंत्रित किया गया और समाज में उपस्थित भेदभाव के कारण राष्ट्र की अवनति होना निश्चित है, इस विषय को उठाया. इसके 3 साल बाद 1969 में उड़पि में अधिवेशन संपन्न हुआ तथा एक मंत्र दिया गया – हिन्दव: सोदराः सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत् . मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता. कोठारी जी ने कहा कि सामाजिक समरसता भाषण का, लिखने का, पढ़ने का विषय नहीं है, ये विषय अपनी मानसिक स्थिति को बदल कर अपने जीवन में उतारने का है, सामाजिक समरसता हमारे हर कार्य में दिखनी चाहिए.

मुख्य अथिति अर्जुन मेघवाल जी ने गुरु गोविंद सिंह जी के खालसा पंथ के बारे में बताया कि किस तरह से पंच प्यारे की स्थापना हुई और पंच प्यारों में चार व्यक्ति तथाकथित दलित समाज से थे. उन्होंने ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी के जीवन पर प्रकाश डाला. जब विद्यासागर जी रोड पर पड़े एक बीमार व्यक्ति को अपने घर में ले आते हैं और ठीक होने के पश्चात जब वह अपना परिचय वाल्मीकि समाज के युवा के नाते देता है तो घर में बखेड़ा खड़ा हो जाता है. घर के लोग उस व्यक्ति को बाहर निकाल देना चाहते हैं, लेकिन विद्यासागर जी कड़ी आपत्ति जताते हैं. ऐसे में विद्यासागर जी के समाज के कुछ पंच एकत्रित होकर वाल्मीकि समाज के युवाओं को घर से निकाल देने की बात कहते हैं तो विद्यासागर जी कहते हैं – यह वाल्मीकि समाज का युवा मेरा भाई है, वो कहते हैं – मैं शरीर के अंदर की सफाई करता हूं, यह मेरा भाई बाहर की सफाई करता है, हो गए ना भाई.

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