बाबा कांशीराम का नाम हिमाचल प्रदेश के स्वतन्त्रता सेनानियों की सूची में शीर्ष पर लिया जाता है. उनका जन्म ग्राम पद्धयाली गुर्नाड़ (जिला कांगड़ा) में 11 जुलाई, 1888 को हुआ था. इनके पिता श्री लखनु शाह तथा माता श्रीमती रेवती थीं. श्री लखनु शाह और उनके परिवार की सम्पूर्ण क्षेत्र में बहुत प्रतिष्ठा थी.
स्वतन्त्रता आन्दोलन में अनेक लोकगीतों और कविताओं ने राष्ट्रभक्ति की ज्वाला को प्रज्वलित करने में घी का काम किया. इन्हें गाकर लोग सत्याग्रह करते थे और प्रभातफेरी निकालते थे. अनेक क्रान्तिकारी ‘वन्दे मातरम्’ और ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’ जैसे गीत गाते हुए फाँसी पर झूल गये. उन क्रान्तिवीरों के साथ वे गीत और उनके रचनाकार भी अमर हो गये.
इसी प्रकार, बाबा कांशीराम ने अपने गीत और कविताओं द्वारा हिमाचल प्रदेश की बीहड़ पहाड़ियों में पैदल घूम-घूम कर स्वतन्त्रता की अलख जगायी. उनके गीत हिमाचल प्रदेश की स्थानीय लोकभाषा और बोली में होते थे. पर्वतीय क्षेत्र में ग्राम देवताओं की बहुत प्रतिष्ठा है. बाबा कांशीराम ने अपने काव्य में इन देवी-देवताओं और परम्पराओं की भरपूर चर्चा की. इसलिये वे बहुत शीघ्र ही आम जनता की जिह्वा पर चढ़ गये.
1937 में गद्दीवाला (होशियारपुर) में सम्पन्न सम्मेलन में नेहरू जी ने इनकी रचनायें सुनकर और स्वतन्त्रता के प्रति इनका समर्पण देखकर इन्हें ‘पहाड़ी गान्धी’ कहकर सम्बोधित किया. तब ये इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये. जीवन में अनेक विषमताओं से जूझते हुए बाबा काशीराम ने अपने देश, धर्म और समाज पर अपनी चुटीली रचनाओं द्वारा गहन टिप्पणियाँ कीं. इनमें कुणाले री कहाणी, बाबा बालकनाथ कनै फरियाद, पहाड़ेया कन्नै चुगहालियाँ आदि प्रमुख हैं.
उन दिनों अंग्रेजों के अत्याचार चरम पर थे. वे चाहे जिस गाँव में आकर जिसे चाहे जेल में बन्द कर देते थे. दूसरी ओर स्वतन्त्रता के दीवाने भी हँस-हँसकर जेल और फाँसी स्वीकार कर रहे थे. ऐसे में बाबा ने लिखा –
भारत माँ जो आजाद कराणे तायीं
मावाँ दे पुत्र चढ़े फाँसियाँ
हँसदे-हँसदे आजादी ने नारे लाई..
बाबा स्वयं को राष्ट्रीय पुरुष मानते थे. यद्यपि पर्वतीय क्षेत्र में जाति-बिरादरी को बहुत महत्त्व दिया जाता है; पर जब कोई बाबा से यह पूछता था, तो वे गर्व से कहते थे –
मैं कुण, कुण घराना मेरा, सारा हिन्दुस्तान ए मेरा
भारत माँ है मेरी माता, ओ जंजीराँ जकड़ी ए.
ओ अंग्रेजाँ पकड़ी ए, उस नू आजाद कराणा ए..
उनकी सभी कविताओं में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना के स्वर सुनाई देते हैं-
काशीराम जिन्द जवाणी, जिन्दबाज नी लाणी
इक्को बार जमणा, देश बड़ा है कौम बड़ी है.
जिन्द अमानत उस देस दी
कुलजा मत्था टेकी कने, इंकलाब बुलाणा..
इसी प्रकार देश, धर्म और राष्ट्रीयता के स्वर बुलन्द करते हुए बाबा कांशीराम 15 अक्तूबर, 1943 को इन दुनिया से विदा हो गये. हिमाचल प्रदेश में आज भी 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर उनके गीत गाकर उन्हें याद किया जाता है.