चटगांव शस्त्रागार कांड के नायक मास्टर सूर्यसेन का जन्म 18 अक्तूबर, 1893 को चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश) के नवपाड़ा ग्राम में हुआ था. शिक्षा पूरी कर वे अध्यापक बने; पर फिर इसे ठुकरा कर स्वाधीनता संग्राम में कूद गये.
‘मास्टर दा’ ने पूर्वोत्तर भारत में अपने क्रांतिकारी संगठन ‘साम्याश्रम’ की स्थापना की. 1924 में पुलिस ने इन्हें पकड़ कर चार साल के लिए जेल में डाल दिया. 1928 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सुभाष बाबू के नेतृत्व में 7,000 जवानों की सैनिक वेश में परेड से प्रभावित होकर इन्होंने अपने दल को सशस्त्र कर उसका नाम ‘इंडियन रिपब्लिक आर्मी’ रख दिया.
धीरे-धीरे इस सेना में 500 युवक एवं युवतियां भर्ती हो गये. अब इसके लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी. अतः 18 अप्रैल, 1930 की रात को चटगांव के दो शस्त्रागारों को लूटने की योजना बनाई गयी. मास्टर सूर्यसेन ने अपने दो प्रतिनिधि दिल्ली भेज कर चंद्रशेखर आजाद से संपर्क किया.
आजाद ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी शुभकामनाओं के साथ दो पिस्तौल भी उन्हें भेंट की. 18 अप्रैल को सब सैनिक वेश में निजाम पल्टन के अहाते में एकत्र हुए. दल के एक भाग को पुलिस एवं दूसरे को सैनिक शस्त्रागार लूटना था. पौने दस बजे मास्टर दा ने कूच के आदेश दे दिये.
सबने योजनानुसार काम करते हुए टेलिफोन के तार काटे, बंदरगाह जाकर वायरलैस व्यवस्था भंग की तथा रेल की पटरियां उखाड़ दीं. जो दल पुलिस शस्त्रागार पहुंचा, उसे देखकर पहरेदार को लगा कि वे कोई बड़े अधिकारी हैं. अतः उसने दरवाजा खोल दिया. उन्होंने पर्याप्त शस्त्र अपनी गाड़ी में भर लिये. विरोध करने वालों को गोली मार दी तथा शेष शस्त्रों पर तेल डालकर आग लगा दी. मास्टर सूर्यसेन ने यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहरा दिया.
दूसरा दल सैनिक शस्त्रागार पर जा पहुंचा. उसके नेता लोकनाथ बल बहुत गोरे-चिट्टे थे. उनकी वेशभूषा देखकर वहां भी उन्हें सैल्यूट दिया गया. शस्त्रागार के ताले तोड़कर शस्त्र लूट लिये गये. विरोध करते हुए सार्जेंट मेजर कैरल मारा गया; पर क्रांतिकारी पक्ष की कोई जनहानि नहीं हुई. सफल अभियान के बाद सब जलालाबाद की पहाड़ी जा पहुंचे. संचार व्यवस्था भंग होने से अगले चार दिन तक चटगांव का प्रशासन क्रांतिकारियों के हाथ में ही रहा.
22 अप्रैल को संचार व्यवस्था फिर से ठीक कर अंग्रेजों ने पहाड़ी को घेर लिया. इस संघर्ष में 11 क्रांतिकारी मारे गये, जबकि 160 ब्रिटिश सैनिक हताहत हुए. कई क्रांतिवीर पकड़े भी गये. मास्टर सूर्यसेन पर 10,000 रु0 का पुरस्कार घोषित किया गया; पर वे हाथ नहीं आये. अंततः गोइराला गांव के शराबी जमींदार मित्रसेन ने थानेदार माखनलाल दीक्षित द्वारा दिये गये प्रलोभन में फंसकर 16 फरवरी, 1933 को उन्हें अपने घर से पकड़वा दिया. क्रांतिवीरों ने कुछ दिन बाद उस जमींदार तथा थानेदार को यमलोक भेज दिया.
मुकदमे के बाद 12 जनवरी, 1934 उनकी फांसी की तिथि निश्चित हुई. फांसी के लिए ले जाते समय वे ऊंचे स्वर से वन्दे मातरम् का उद्गोष करने लगे. इससे जेल में बंद उनके साथी भी नारे लगाने लगे. इससे खीझकर जेल वार्डन मास्टर दा के सिर पर डंडे मारने लगा; पर इससे उनका स्वर और तेज हो गया. अंततः डंडे की मार से ही मास्टर जी का प्राणांत हो गया. क्रूर जेल प्रशासन ने उनके शव को ही फांसी पर लटकाकर अपना क्रोध शांत किया.
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)