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विश्लेषण – अपनी जड़ों की ओर लौट रहा भारत

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भारत और भारतीयता को प्राथमिकता मिल रही

पश्चिमी आधुनिकता और भारतीयता के द्वंद ने लंबे समय तक भारतीय ज्ञान पद्धति को प्रभावित किया

अनंत विजय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने एक भाषण में कहा कि ‘किसान क्षेत्र के हित के लिए काम करने वाला हमारा संगठन (भारतीय किसान संघ) सर्वमान्य संगठन बन गया है, और ऐसे हमारे संगठन को अनुकूलता भी प्राप्त हो गई है. क्योंकि जो हमारा विचार है, विज्ञान ने ही ऐसी करवट ले ली है कि जिन तत्वों का उद्घोष अपनी स्थापना के समय से हम करते आए, विरोधों के बावजूद, उनको मान्यता देने के बजाय दूसरा कोई पर्याय रहा नहीं अब दुनिया के पास. कृषि के क्षेत्र में और जो कॉलेज में से पढ़ा है, ऐसा कोई व्यक्ति आपकी सराहना करे ऐसे दिन नहीं थे.

आज हमारे महापात्र साहब भी आपके कार्यक्रम में आकर जैविक खेती का गुणगान करते हैं. जैविक खाद के बारे में पचास साल पहले विदर्भ के नैड़प काका बड़ी अच्छी स्कीम लेकर केंद्र सरकार के पास गए थे. ये स्कीम अपने भारत की है, भारत के दिमाग से उपजी है, केवल मात्र इसके लिए उसको कचड़े में डाला गया. आज ऐसा नहीं है. पिछले छह महीने से जो मार पड़ रही है कोरोना की, उसके कारण भी सारी दुनिया विचार करने लगी है और पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है, आशा से देख रही है.‘

मोहन भागवत के भाषण के इस छोटे से अंश में कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी ओर उन्होंने संकेत किया है. पहली बात तो ये कि आज भारत और भारतीयता को प्राथमिकता मिल रही है. भारतीय पद्धति से की गई खोज या नवोन्मेष को या भारतीय पद्धतियों को मान्यता मिलने लगी है. उन्होंने ठीक ही इस बात को रेखांकित किया कि पूरी दुनिया भारत की ओर आशा से देख रही है.

मोहन भागवत के इस वक्तव्य के उस अंश पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें वो कह रहे हैं कि पूरी दुनिया पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है. दरअसल हमारे देश में हुआ ये कि मार्कसवाद के रोमांटिसिज्म में पर्यावरण की लंबे समय तक अनदेखी की गई.

आजादी के बाद जब नेहरू से मोहभंग शुरू हुआ या यों भी कह सकते हैं कि नेहरू युग के दौरान ही मार्क्सवाद औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए उकसाने वाला विचार लेकर आया. औद्योगिककरण में तो विकास पर ही जोर दिया जाता है और कहा भी जाता है कि किसी भी कीमत पर विकास चाहिए. अगर विकास नहीं होगा तो औद्योगिकीकण संभव नहीं हो पाएगा. लेकिन किसी भी कीमत पर विकास की चाहत ने प्रकृति को पूरी तरह से खतरे में डाल दिया.

औद्योगिकीकरण का समर्थन करने वाली विचारधारा में प्रकृति का आदर करने की जगह उसकी उपेक्षा का भाव है. ये उपेक्षा इस हद तक है कि मार्क्स ने ‘मास्टरी ओवर नेचर’ की बात की है यानि प्रकृत्ति पर प्रभुत्व. सृष्टि के इस महत्वपूर्ण अंग, प्रकृति पर प्रभुत्व की कल्पना मात्र से ही इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि मार्क्सवाद के सिद्धांत में बुनियादी दोष है. क्या ये मनुष्य के लिए संभव है कि वो प्रकृति पर प्रभुत्व कायम कर सके. लेकिन मार्क्स ऐसा चाहते थे. उनके प्रकृति को लेकर इस प्रभुत्ववादी नजरिए को उनके अनुयायियों ने जमकर बढ़ाया. इस बात का उल्लेख यहां आवश्यक है कि स्टालिन ने सोवियत रूस की सत्ता संभालने के बाद संरक्षित वन क्षेत्र को नष्ट किया.

औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की. नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है. बाद में इस गलती को सुधारने की कोशिश हुई, लेकिन तब तक बहुत नुकसान हो चुका था. खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी. अभी तो इसका उल्लेख सिर्फ ये बताने के लिए किया गया कि साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की बुनियाद प्रकृति को लेकर बेहद उदासीन और प्रभुत्ववादी रही है.

इसके विपरीत अगर हम विचार करें तो भारतीय विचार परंपरा में प्रकृति को भगवान का दर्जा दिया गया है. हम तो ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ को मानने वाले लोग हैं. इस पंचतत्व का निषेध या उससे आगे जाकर कुछ और नया खोज वैज्ञानिक अभी तक कर नहीं पाए हैं सिवा इसके कि वो इन पंच तत्वों के अंदर के अवयवों को ढूंढ निकालने का दावा कर रहे हैं. हमारी परंपरा में तो नदी पर्वत और जल को पूजे जाने की परंपरा रही है. कभी भी आप देख लें किसी भी शुभ अवसर पर प्रकृति को भी याद किया जाता है.

मोहन भागवत ने इस ओर भी इशारा किया है कि कोरोना के बाद स्थितियां बहुत बदल गई हैं. सचमुच बहुत बदली हैं और भारतीय ज्ञान परंपरा में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है, आज वो अचानक बेहद महत्वपूर्ण हो गई हैं. हमारे जो वामपंथी प्रगतिशील मित्र आयुर्वेद का मजाक उड़ाया करते थे, उनको सुबह शाम काढ़ा पीते या फिर गिलोय चबाते देखा जा सकता है. आज पूरी दुनिया में भारतीय खान-पान की आदतों को लेकर विमर्श हो रहा है. हमारे यहां तो हर मौसम के हिसाब से भोजन तय है. मौसम तो छोड़िए सूर्यास्त और सूर्योदय के बाद या पहले क्या खाना और क्या नहीं खाना ये भी बताया गया है.

आज पश्चिमी जीवन शैली के भोजन या भोजन पद्धति से इम्यूनिटी बढ़ने की बात समझ में नहीं आ रही है. आज भारतीय पद्धति से भोजन यानि ताजा खाने की वकालत की जा रही है, फ्रिज में रखे तीन दिन पुराने खाने को हानिकारक बताया जा रहा है. कोरोना काल में पूरी दुनिया भारतीय योग विद्या को आशा भरी नजरों से देख रही है. आज जब कोरोना का कोई ज्ञात ट्रीटमेंट नहीं है तो ऐसे में श्वसन प्रणाली को ठीक रखने, जीवन शैली को संतुलित रखने की बात हो रही है. भारत में तो इन चीजों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है.

इस परंपरा को अंग्रेजी के आभिजात्य मानसिकता और वामपंथ के विदेशी ज्ञान ने पिछले कई दशकों से नेपथ्य में धकेलने की कोशिश की. सफल भी हुए. मोहन भागवत जी ने विदर्भ के एक किसान का जो उदाहरण दिया वो बेहद सटीक है. किसी भी प्रस्ताव को इस वजह से रद्दी की टोकरी में फेंका जाता रहा कि वो भारतीय परंपरा और प्राचीन ग्रंथों पर आधारित होता था. अब देश एक बार फिर से अपनी जड़ों और अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरास की ओर लौटता नजर आ रहा है.

अगर इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए तो हम पाते हैं कि हमारे देश में कथित तौर पर प्रगतिशील विचारों के शक्तिशाली होने की वजह से आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी विचारों का अंधानुकरण शुरू हो गया. भारतीय विचारों को, भारतीय चिकित्सा पद्धति को, भारतीय दर्शन को, भारतीय पौराणिक लेखन को सायास पीछे किया गया. उसको दकियानूसी, पुरातनपंथी या परंपरावादी आदि कहकर उपहास किया गया.

पश्चिमी आधुनिकता के आख्यान का गुणगान या उसके बढ़ते प्रभाव ने भारतीय जीवन शैली और भारतीय पद्धति को प्रभावित करना शुरू कर दिया. नतीजा यह हुआ कि हमारे देश में एक ऐसा समाज बनने लगा था जो पूरी तरह से न तो भारतीयता में यकीन करता था और न ही पूरी तरह से पश्चिमी रीति-रिवाज को आत्मसात कर पा रहा था. पश्चिमी आधुनिकता और भारतीयता के इस द्वंद ने लंबे समय तक भारतीय ज्ञान पद्धति को प्रभावित किया. कोरोना की वजह से और देश में बदले राजनीतिक हालात ने एक अवसर प्रदान किया है, जिसकी वजह से एक बार फिर से देश अपनी जड़ों की ओर लौटता दिख रहा है.

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