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गांव के गांव जलाए – हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा

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17 से 21 जुलाई 1857 – अंग्रेजों द्वारा कानपुर में भीषण नरसंहार

रमेश शर्मा

जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक नरसंहार को सब जानते हैं. पर अंग्रेजों ने इससे पहले और इससे भीषण नरसंहार भी किये हैं. इनमें एक भीषण नरसंहार जुलाई 1857 को कानपुर में हुआ. इसमें लगभग बीस हजार से अधिक निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारा गया था. छह हजार का आंकड़ा तो अकेले कानपुर नगर का है.

इस नरसंहार के नायक जनरल नील और जनरल हैवलॉक नामक दो सैन्य अधिकारी थे. 1857 की क्रांति में कानपुर और बिठूर में केवल पांच दिनों तक चला यह भीषण नरसंहार अकेला नहीं है. इस क्रान्ति के दमन के लिये लगभग हर स्थान पर भीषण नरसंहार हुए. इनमें अधिकांश के वर्णन तो जिला गजेटियरों में शामिल हैं.

कानपुर का यह नरसंहार कितना भीषण होगा, इसका अनुमान केवल इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने इस क्रांति के दमन के लिये लगभग हर स्थान पर एक-एक जनरल तैनात किया था. जनरल ह्यूरोज की कमान में जो सेना थी, उसने मध्यप्रदेश के महू से अपना अभियान आरंभ किया और इंदौर, सीहोर, गढ़ी, राहतगढ़, सागर, आदि स्थानों के बाद झाँसी कालपी और ग्वालियर में अभियान चलाया. जबकि अकेले कानपुर और बिठूर के लिए दो जनरल भेजे गए. वे भी ऐसे जो अपनी क्रूरता के लिये कुख्यात रहे.

इसका कारण यह था कि 1857 में क्रांति का उद्घोष भले सिपाही मंगल पाण्डेय ने बंगाल इन्फ्रेन्ट्री से किया हो, पर इसका मुख्य केंद्र कानपुर और मेरठ थे. इन स्थानों पर मई में क्रान्ति का आरंभ हुआ था. कानपुर में क्रान्ति के नायक नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे थे. इनके नेतृत्व में सेना ने विद्रोह कर दिया था और नाना साहब पेशवा ने कानपुर में सत्ता संभाल ली थी.

यहाँ कुछ अंग्रेज परिवार रहते थे. नाना साहब ने इन अंग्रेज परिवारों को सुरक्षित भेजने का प्रबंध किया था और इन्हें गंगा पार कराने के लिये सत्ती चौरा भेजा गया था. कुछ परिवार नावों में रवाना भी हो गए थे. किन्तु सत्ती चौरा में कुछ सैनिकों को गुस्सा आया और उन्होंने इन परिवारों पर हमला बोल दिया. इसमें कुछ अंग्रेज स्त्री पुरुष मारे गए.

यह घटना 26 जून, 1857 की है और इतिहास के पन्नों पर “सत्ती चौरा कांड” के नाम से जानी जाती है. इसमें मरने वाले अंग्रेजों की संख्या अलग-अलग बताई गई है. इस घटना से अंग्रेज बौखलाए. उन्होंने क्रूरतम अंग्रेज अधिकारियों की कमान में सेना कानपुर भेजी. जनरल हैवलॉक और जनरल नील के कमान में सेना 16 जुलाई, 1857 को कानपुर पहुँची.

इन सैन्य दलों ने पूरे नगर को घेर लिया. ब्रिटिश अधिकारियों को पहले उम्मीद थी कि ब्रिटिश परिवार सुरक्षित होंगे. किन्तु जैसे ही उन्हें अंग्रेज परिवारों के मरने की जानकारी मिली. तो उनका गुस्सा साँतवें आसमान पर पहुँच गया. और भारतीय नागरिकों का कत्लेआम शुरू कर दिया. कोई कल्पना कर सकता है, उस सशस्त्र सैनिक समूह की कार्रवाई की, जहां कोई अपील. कोई दलील का प्रावधान ही न हो.

वह पूरी तरह निरंकुश हो और प्रतिशोध पर उतारू हो. इन सैनिकों द्वारा कानपुर और बिठूर में किये गए कुछ अत्याचारों का तो ऐसा वर्णन है, जिसका उल्लेख करने में भी आत्मा कांपती है. लूटपाट, तोड़फोड़ और घरों को जलाना तो बहुत मामूली था. यह सेना नागरिकों के साथ जितने अत्याचार कर सकती थी वे सब किये गए.

जनरल नील ने आदेश दिया कि पकड़े गए सभी सिपाही विद्रोही माने जाएं. उन्हें पकड़कर पहले बीबीघर परिसर ले जाया गया. सत्ती चौरा का बीबीघर वह स्थान था, जहाँ कुछ अंग्रेज परिवारों की हत्या की गई थी.

गुस्साए अंग्रेज सैनिकों ने बंदी बनाये गए विद्रोही सैनिकों को उस फर्श को चाटने के लिए विवश किया गया, जहाँ अंग्रेज परिवारों का रक्त गिरा था. इसके बाद उन्हें गोली मारकर पेड़ों पर लटका दिया गया. जबकि कुछ को तोपों से बांध कर उड़ा दिया गया. उधर, जनरल हैवलॉक ने कानपुर छावनी में उन 134 सैनिकों को भी गोली मार देने के आदेश दिये जो क्रान्ति से दूर होकर पुनः अंग्रेजों की सेवा करना चाहते थे. हैवलॉक और नील का कहना था कि इन्होंने ब्रिटिश परिवारों को बचाने का कार्य क्यों नहीं किया. इसके बाद विद्रोह को संरक्षण देने और समर्थन देने वाले कस्बों की ओर सेना चली. इन कस्बों को घेर कर आग लगा दी गई. गाँव के गाँव जलाये गए. जिस गाँव में आग लगाई जाती, उसे सेना पहले घेर लेती थी ताकि कोई जिन्दा बाहर निकल कर भाग न सके.

इन गाँवों में मरने वालों की संख्या हर गाँव की अलग-अलग है, किसी में एक सौ बीस स्त्री पुरुष तो एक गाँव में दो हजार तक पहुँची. यह नरसंहार 17 जुलाई से आरंभ हुआ था जो 21 जुलाई तक निरन्तर चला. इतिहास की विभिन्न पुस्तकों में उल्लेख है कि जीटी रोड के किनारे जितने भी गांव पड़े, उन सभी को हैवलॉक ने जला दिया था. राहगीरों को मार-मार कर पेड़ों पर लटकाया.

कानपुर के वर्तमान के मेघदूत चौराहे पर फांसी का मंच बनाया गया था. यहां मात्र तीन दिन में छह हजार स्त्री बच्चों की निर्ममता से हत्या की गई. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि नृत्यांगना अजीजनबाई की टोली ने यहीं अंग्रेजों से लोहा लिया था. अजीजनबाई को भी हैवलॉक ने ही मारा था.

कानपुर में यह सब करके जनरल हैवलॉक बिठूर पहुँचा. उसकी कमान में मेजर स्टीवेन्सन की एक सैन्य टुकड़ी भी थी. जिसमें मद्रास फ्यूसिलियर्स और पंजाब बलूच सैनिकों की संख्या अधिक थी. यहाँ इस सेना का प्रतिरोध करने वाला कोई न मिला. उसने पेशवा नाना साहब के महल पर कब्जा कर लिया और जो व्यक्ति सामने पड़ा उसे मौत के घाट उतार दिया. ब्रिटिश सैनिकों ने पहले पेशवा के महल का सामान अपने अधिकार में लिया. जिसमें बंदूकें, हाथी और ऊंट और अन्य कीमती सामान था. और फिर महल में आग लगा दी. इसके बाद जैसा कत्लेआम कानपुर में किया था, वैसा ही कत्लेआम बिठूर में किया.

हैवलॉक की क्रूरता की तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने प्रशंसा की और हैवलॉक के नाम को अमर करने के लिये भारत के अंडमान निकोबार के एक द्वीप का नाम “हैवलॉक द्वीप” रखा. यह नाम स्वतंत्रता के बाद 75 वर्षों तक यथावत रहा. इसका नाम पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बदलकर स्वराज द्वीप किया. हैवलॉक द्वारा कानपुर में किये अत्याचार के वर्णन इतिहास की पुस्तकों में भरे पड़े हैं. अंग्रेजों के कानपुर ऑपरेशन में हैवलॉक के साथ रहे कमांडर शेरर ने अपनी पुस्तक “हैवलॉक्स मार्च ऑन कानपुर” में भी इस नरसंहार और अत्याचार का वर्णन किया है.

अंग्रेजों के ऐसे नरसंहार और अत्याचारों से आज की अधिकांश पीढ़ी अनभिज्ञ है. यहाँ तक कि जिस हैवलॉक के अत्याचार से कानपुर का इतिहास भरा है, उसी हैवलॉक के नाम पर बने द्वीप पर पिकनिक मनाकर गौरवान्वित हुआ करते थे. हाँ, उस द्वीप का नाम बदलने से कुछ लोग चौंके और इतिहास के पन्ने पलटे. तब यह सच्चाई सामने आ सकी.

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