करंट टॉपिक्स

डॉ. हेडगेवार ने संघ से अस्पृश्यता कैसे मिटाई?

Spread the love

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पूरी दुनिया जानती है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक कौन थे,  भारत के गठन में उनका क्या योगदान था, ऐसे सवाल अगर विद्वानों से पूछे जायें तो उनमें से 90 प्रतिशत लोगों को इस के बारे में कुछ नहीं पता होता है और शेष दस प्रतिशत लोगों को आधी-अधूरी जानकारी होती है. कुछ लोगों को विकृत जानकारी होती है. अचंभे की बात तो यह है कि इन विद्वानों को अपने अज्ञान के बारे में कोई लज्जा या शर्म बिलकुल भी नहीं लगती है.

अस्पृश्यता का उदाहरण लीजिये!  हिंदू समाज में अस्पृश्यता का पालन किया जाता है. महाराष्ट्र के महान समाजशास्त्री महर्षि वि.रा.शिंदे का ‘भारतीय अस्पृश्यता का प्रश्न’ नामक प्रसिद्ध मराठी पुस्तक है. इस पुस्तक  में कहा गया है कि 1901 की जनगणना के अनुसार 1907-08 में भारत में अछूतों की जनसंख्या 5,32,36,632 (पांच करोड़ बत्तीस लाख छत्तीस हजार छः सौ बत्तीस) है. इसके पूर्व महात्मा ज्योतिराव फुले ने हिंदू समाज में अछूतों की जनसंख्या पाँच-छः करोड़ होने का दावा उन्नीसवीं सदी के मध्य में किया था. डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने भी अछूतों की संख्या छः करोड़ के आसपास है, ऐसा कहा था ‘अस्पृश्यता यह हिंदू धर्म पर कलंक है’ यह महात्मा गांधी का विधान भी प्रसिद्ध है.

अस्पृश्यता के लक्षण क्या है? वह लक्षण इस प्रकार हैं.

*अस्पृश्यता जन्म से निर्धारित की जाती है.

*हिंदू समाज में सैंकडों जातियाँ अछूत मानी गई हैं.

*अछूतों को छूने से मनुष्य अपवित्र हो जाता है.

*अछूतों के व्यवसायों को हीन दर्जा दिया गया. वह व्यवसाय उनके अलावा कोई नहीं करता है.

*अछूत समाज गांव के बाहर रहता है.

*उस पर कड़े सामाजिक निर्बंध लगाये जाते हैं. सार्वजनिक स्थान पर वे नहीं जा सकते हैं. उनको मंदिरों में प्रवेश करना मना होता है. उनको शिक्षा से वंचित रखा जाता है.

*अत्यंत दरिद्रता में और सामाजिक उपेक्षा में उनको अपना जीवन बिताना पड़ता है. बहुत ही अल्प अछूत जमीन के मालिक होते हैं, अन्य सभी मजदूरी ही करते हैं. आर्थिक दृष्टि से वे शतप्रतिशत परावलंबी होते हैं.

*उनकी पहचान के लिये उनकी पोशाक पर भी निर्बंध लगाये गये हैं.

लक्षणों की सूची और भी लंबी हो सकती है. इस अछूत वर्गों को डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कैसे शामिल कर लिया? सवर्णों के मन से संकुचित भाव कैसे निकाल डाला? अछूतों के मन से हीनता का भाव कैसे मिटाया? इसका समाजशास्त्रीय और संघटनशास्त्रीय अध्ययन करने का विचार भारत के एक भी विद्वान के मन में नहीं आता है, यह तो बहुत बड़ा बौद्धिक दिवालियापन है.

अस्पृश्यता मिटाने हेतु अपने देश में महात्मा बसवेश्वर से लेकर महात्मा गांधी तक सैंकड़ों महान पुरुषों ने प्रयास किये हैं. अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में प्रयास किये हैं. बसवेश्वर ने ‘सभी लिंगधारक समान हैं, कोई छोटा या बड़ा नहीं है, स्पृश्य-अस्पृश्य नहीं है’ यह भावना अपने अनुयायियों के मन में निर्मित की थी. महात्मा गांधी ने हरिजन सेवक संघ का गठन कर संपूर्ण देश में अस्पृश्यता की कुप्रथा के विरोध में बहुत बड़ा जागरण किया था. महात्मा गांधी ने कभी भी अपने जीवन में अस्पृश्यता को स्थान नहीं दिया था. उनके साबरमती और वर्धा आश्रम में सभी हरिजनों के लिये पट खुले थे. गांधीजी कहते थे, ‘हिंदू धर्मसुधार हेतु और उसकी रक्षा हेतु अस्पृश्यता मिटाना यह महान कार्य है. अगर अस्पृश्यता शेष रहेगी तो हिंदू धर्म की मृत्यु अटल है और अस्पृश्यता जीवित रहने के बजाय हिंदू धर्म की मृत्यु हो जाती है तो भी चलेगा, ऐसा मेरा मानना है’. इस तरह से उन्होंने अस्पृश्यता का विरोध किया है. अस्पृश्यों का उन्होंने हरिजन ऐसा नामकरण किया.

महात्मा गांधी के प्रयास प्रामाणिक थे और हिंदू धर्म तथा समाज के सुधार हेतु किए गये थे. लेकिन क्या उनके प्रयासों से हिंदू समाज से अस्पृश्यता मिट गई? इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर देना हो तो ‘अस्पृश्यता नहीं मिटी है’ ऐसा कहना पड़ता है. अछूतों का नामकरण ‘हरिजन’ हो जाने से केवल शब्द बदल गया लेकिन लोगों के मन का भाव नहीं बदला. गांधीविचार के प्रभाव के कारण पंढरपुर के विठोबा का मंदिर, केरल के अनेक मंदिर अछूतों के लिये खुल गये लेकिन अस्पृश्यता समाप्त नहीं हो पाई.

अस्पृश्यता मिटाने का दूसरा महान प्रयास डॉ. अंबेडकर ने किया. अपना जीवनध्येय बताते हुए उन्होंने कहा था कि मैं अपना सर पटक-पटक कर अस्पृश्यता की दीवार धराशायी करनेवाला हूँ. अगर इसमें मुझे सफलता नहीं मिलती है तो भी मेरा बहता हुआ खून देख कर मेरे अछूत बंधुओं को संघर्ष करने की प्रेरणा मिलेगी. डॉ. अंबेडकर का समग्र जीवन अस्पृश्यता के विरोध में छेड़ा हुआ महासंग्राम ही है. उनके कार्य की विशेषतायें इस प्रकार से थीं–

*उन्होंने गांधीजी का ‘हरिजन’ शब्द अस्वीकृत किया, उसके स्थान पर ‘बहिष्कृत भारत’ ऐसा शब्द प्रयुक्त किया. बाद में संविधान में अनुसूचित जाति ऐसा शब्दप्रयोग किया गया.

*अस्पृश्यता तो सवर्णों के मन की एक लहर है. हम तुम्हें अछूत मानते हैं इसलिये तुम सब अछूत हो, ऐसी सवर्ण समाज की भावना होती है.

*दया की भीख मांग कर, अर्जी अथवा विनती करके, नम्रता से बात करके सवर्ण समाज के मन की यह लहर नहीं मिटायी जा सकती है, उसे मिटाने के लिये संघर्ष करना होगा.

*अस्पृश्यता क्यों पैदा हुई? उसे हिंदू तत्त्वज्ञान की कैसे मान्यता है? यह बताकर इस मान्यता को धराशायी करने हेतु डॉ. अंबेडकर ने परंपरागत आस्था और रूढ़ियों पर तूफानी हमले किये.

*वर्णव्यवस्था से जातियां और जातिव्यवस्था से अस्पृश्यता का निर्माण हुआ है. इसलिये जातिनिर्मूलन होना आवश्यक है. हिंदू समाज को एकवर्णीय बनना होगा और सजातीय विवाहपध्दति का त्याग करना होगा, इसके बिना जातिभेद नहीं मिटेगे और अस्पृश्यता भी नहीं मिटेगी.

*डॉ. अंबेडकर की यह लड़ाई सामाजिक और राजनीतिक थी. अस्पृश्य अल्पसंख्य हैं, इसलिये उनको अल्पसंख्य समाज के नाते संवैधानिक सुरक्षा मिलनी  आवश्यक है. अछूतों को पढ़ना चाहिये और प्रशासन में अच्छी नौकरियां प्राप्त करनी चाहिये, सत्ता की राजनीति में उतरकर राजसत्ता हाथ में लेनी चाहिये, ‘शासनकर्ता जमात बनो’ यह उनका संदेश एवं आदेश था.

डॉ. अंबेडकरजी के कार्य के कारण अस्पृश्य समाज में लोकविलक्षण जागरण हुआ. उनके मन से हीनभाव निकल गया, हम भी उपर उठ सकते हैं, यह आत्मबोध हुआ. इसीलिये जीवन के सभी क्षेत्रों में वे आज प्रगतिपथ पर आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन डॉ. अंबेडकर के कार्य के कारण सवर्ण समाज के मन से क्या अस्पृश्यता मिट गई है? इस प्रश्न का उत्तर ‘ना’ में ही देना पड़ता है. लोग बहुत चालाक होते हैं. सरकार ने अस्पृश्यता के विरोध में कानून बनाये.  जातिवाचक गाली नहीं देनी चाहिये अथवा जाति के कारण किसी मनुष्य को हीन नहीं मानना चाहिये और ऐसा करना कानूनन अपराध माना जाता है. इसलिये लोग जातिवाचक शब्द मुँह से नहीं निकालते हैं, लेकिन उनके मन से अस्पृश्यता मिट गई है, ऐसा इसका मतलब नहीं है. पहले महाराष्ट्र में अछूतों की बस्ती को ‘महारवाड़ा’ कहा जाता था, अब इसे ‘राजवाड़ा’ कहा जाता है. ‘हम राजवाड़ा होकर आये हैं’ ऐसा कोई कहता है तो उसका अर्थ सारे लोग जानते हैं. फलां-फलां मनुष्य अछूत जाति का है, ऐसा लोग नहीं कहते हैं. वे उसे दलित कहते है अथवा सरकारी जमात कहते हैं. शादी का कार्ड छपवाने हेतु एक प्राध्यापक महाशय गये थे. उन्होंने दूकानदार को कार्ड की शब्दरचना बताई, तब दूकानदार ने कहा, ‘अच्छा! आपको जयभीम कार्ड चाहिये।‘ ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं. विस्तार के भय के कारण इतना ही उदाहरण दिया है.

इस पृष्ठभूमि में, संघसंस्थापक डॉ. हेडगेवार के संघ में अस्पृश्यता नजर आती है? इस प्रश्न का उत्तर है कि संघ में अस्पृश्यता बिलकुल नहीं दीखती है. अस्पृश्यता कैसे निर्मित  हो गई? इसे धर्म की आधारभूत मान्यता कैसे प्राप्त हो गई? अस्पृश्यता, वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था का संबंध क्या है? इन प्रश्नों की डॉ. हेडगेवार ने कभी भी मीमांसा नहीं की. ग्रंथ भी नहीं लिखे हैं. एक भी भाषण नहीं दिया. अस्पृश्यता कितनी बुरी है और उसे मिटाना क्यों आवश्यक है, इस बारे में कहा नहीं. लेकिन ऐसा कुछ भी ना करते हुए उन्होंने संघ से अस्पृश्यता को कैसे मिटाया? यह करना उनके लिये कैसे संभव हो पाया?

डॉ. हेडगेवार ने अपने सामने एक ध्येय रखा था. वह ध्येय था हिंदू समाज संगठन का. हिंदू समाज का संगठन क्यों करना है? हिंदू असंगठित है इसलिये! हिंदू क्यों असंगठित हैं? क्योंकि वे अनगिनत जातियों में बंटे हुये हैं,अनेक भाषाओं में बंटे हुये हैं, अनेक पंथों में बंटे हुए हैं. बंट जाने से मनुष्य संकुचित हो जाता है. उसके विचार संकुचित हो जाते हैं. विचार संकुचित हो जाने से मनुष्य स्वार्थी हो जाता है. वह अपने हित का ही विचार करता है और ज्यादा से ज्यादा अपनी जाति का विचार करता है. महात्मा गांधी का 1920 में भारतीय राजनीति पर एकाधिकार स्थापित  हो गया. डॉ. अंबेडकर 1924 से भारतीय राजनीति और समाज में सक्रिय हो गये. 1925 में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की और वे समाज संगठन के कार्य में जुट गये.

जिसे संगठन करना है वह विषमता का आधार लेकर संगठन खड़ा नहीं कर सकता है. जाति, पंथ, भाषा, अस्पृश्यता आदि सारे भेद जीवित रखकर समाज संगठन करूंगा यह विचार डॉक्टरजी ने नहीं किया. समाज में यह भेद अवश्य हैं, मगर इन भेदों से परे हट कर समाज को जोड़नेवाली भावनायें भी विद्यमान हैं. अपने सांस्कृतिक मूल्य, श्रेष्ठ इतिहास, महान आदर्श हैं. डॉ. हेडगेवार ने भेद के सारे विषय दूर रखे और समाज जोड़नेवाले घटकों को पकड़ा. इसमें निम्नलिखित भावना के विकास पर उन्होंने जोर दिया.

* हम सब हिंदू हैं, हिंदू यही हमारी पहचान, हिंदू यही हमारी जाति, हिंदू यही हमारा धर्म है.

* हमारा एक सनातन राष्ट्र है और वह हिंदूराष्ट्र है.

*हम असंगठित हो गये और हमारा राष्ट्र दुर्बल बन गया, अगर हम संगठित बन जाते हैं तो हमारा राष्ट्र सबल बन जायेगा.

*भारत यह हमारी मातृभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि है.

*भारत के उत्थान में मेरा उत्थान है. भारत के पतन में हमारा पतन है.

*समग्र हिंदू समाज उसके सारे गुण-दोष सहित मेरा आत्मीय समाज है. वह आज दुर्बल है, विकलांग है, उसे सबल करना मेरा परमकर्तव्य है और यही सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है.

यह भाव सारे हिंदुओं में विकसित करने हेतु उन्होंने सार्वजनिक सभा, भाषण, सत्याग्रह, आंदोलन ऐसा कोई मार्ग नहीं अपनाया. उन्होंने संघशाखा शुरू की. अपने चौबीस घंटों में से एक घंटा देश के लिये दो, शाखा में आओ ऐसा उन्होंने आवाहन किया. संघ की कार्यपद्धति तैयार की. उन्होंने 1925 में संघशाखा प्रारंभ की और 1940 में देशभर में शाखाओं का विस्तार किया. इन शाखाओं के माध्यम से उन्होंने क्या किया? पहली बात- उन्होंने हिंदू समाज की स्पर्श पाबंदी तोड़ डाली. शाखा में आनेवाले बालतरुण सारे एकसाथ खेलते हैं और एक-दूसरे को छुए बिना कैसे खेल सकते हैं? शाखा में उन्होंने मेलजोल की पाबंदी तोड़ी. कोई भी शाखा एकजातीय शाखा नहीं होगी, इस बात पर उन्होंने शुरू से ही ध्यान दिया. सभी जातियों के बालतरुण शाखा में आने लगे, खेलने लगे, एकत्रित कार्यक्रम करने लगे. दूसरी जाति से मिलने की पाबंदी शाखा ने तोड़ी. शाखा पर भोजन के कार्यक्रम होने लगे. घर से लाये हुए भोजन एक-दूसरे के साथ बांटना आरंभ हो गया. दूसरे के घर का और दूसरे के हाथों से बनाया हुआ भोजन निषिद्ध  मानने की प्रथा त्याग दी. भोजन पाबंदी टूट गई. संघकार्य विस्तार हेतु स्वयंसेवक अलग-अलग प्रांतों में चले गये.  अनजान स्थानों पर जाकर रहे और 1960 के बाद विदेश में भी गये. संघ ने सिंधु पाबंदी तोड़ी. जैसे-जैसे संघकार्य का विस्तार होने लगा, वैसे-वैसे सारे समाज घटकों से संघ का संबंध आने लगा और स्वाभाविक बात यह हुई कि अनुरूप युवक-युवती एक दूसरे से विवाह करने लगे. पुरोगामी भाषा में जिसे अंतरजातीय विवाह कहा जाता है, वह संघस्वयंसेवकों में सहज होने लगे. प्रस्तुत लेखक की तीन बहनें और तीन पुत्रियों के विवाह जाति-पांति का विचार ना करते हुए हिंदू तरुणों के साथ हो गये हैं.

डॉ. हेडगेवार ने अस्पृश्यता की शाब्दिक मीमांसा नहीं की, मगर अपनी कृति से उन्होंने कैसी मीमांसा की होगी इसका अर्थबोध अवश्य होता है. अस्पृश्यता यह सवर्ण मन की लहर है और वह सवर्णों के मन में बसती है. परंपरा और रूढ़ि से वह मन में बस जाती है. परंपरा और रूढ़ि तोड़ने से सब कतराते हैं और सभी प्रथायें आगे चलाते रहना यह आम मनुष्य की प्रवृत्ति होती है. अलग राह अपनाने को वह तैयार नहीं होता है. इसलिये ‘मैं आपको अलग राह पर ले जा रहा हूँ’ ऐसा डॉक्टरजी ने कभी नही कहा.

डॉक्टरजी की भाषा कैसी थी? वह कहते थे, ‘अपना कार्य यह ईश्वरीय कार्य है’ यह एक ही विधान ‘गागर में सागर’ है. ईश्वर का कार्य अर्थात सत्य का कार्य, न्याय का कार्य और सभी भूतमात्रों के कल्याण का कार्य. ईश्वरीय कार्य अर्थात समता का कार्य. भूतमात्रों में समता रखना यह ईश्वरीय कार्य है. अपने दर्शन में कहा गया है कि ‘एक ही ईश्वर सर्वव्यापी है, वह चराचर में बसा है, अणु-परमाणु में बसा है, उसका लिंग-वंश-जाति कोई भेद नहीं है’ दूसरे मनुष्य को अपने पास लाना अर्थात उसमें बसे ईश्वर के समीप जाना है. पू. गुरुजी ने अपने कार्यकाल के दौरान डॉक्टरजी द्वारा बताया गया यह ईश्वरीय कार्य अपने बौध्दिकों के माध्यम से विवेचन किया है.

डॉक्टरजी कहते थे, ‘अपना कार्य सनातन है, मैं कुछ नया नहीं बता रहा हूँ, परंपरा से चलता आया विषय बता रहा हूँ, हम वह भूल गये हैं इसलिये उसका स्मरण दिलाने का कार्य मैं कर रहा हूँ’ अत्यंत स्वार्थी और संकुचित बने हिंदू मनुष्य के मन को विशाल बनाने का कार्य डॉ. हेडगेवार ने किया. उसे व्यापक विचार करना सिखाया. संकीर्ण कूप में बसनेवाले को विशाल सागर का दर्शन कराया. जब इस भव्यता का हिंदू मनुष्य को दर्शन होने लगा तब उसे अपनी संकीर्णता और बौने विचारों की लज्जा महसूस होने लगी. यह सारे भाव नष्ट हो गये इसलिये डॉक्टरजी को कहीं कोई झाड़ू फेरनी नहीं पड़ी.

मनोवैज्ञानिक स्तर पर, उनके इस कार्य को देखकर कुशल शल्यचिकित्सक भी चकरा जायेगा. संघस्वयंसवकों के मन से उनकी जाति निकाल डाली, जातिगत श्रेष्ठता का अहंकार निकाला और अस्पृश्यता का भाव मिटा डाला.

डॉक्टरजी ने हिंदू मानस में वैश्विक भाव जगाया. मैं हिंदू हूँ इसलिये मुझे आदर्श मानव बनना चाहिये; कारण समूचे मानवजाति को मानवता का दर्शन दिखलाने का दायित्व मेरे कंधों पर है, मानवजाति को सुसंस्कारित करना और मनुष्य इस नाते से हम सबसे जुडे हुये हैं, यह विश्वबोध आवश्यक है. स्वामी विवेकानंद ने डॉक्टरजी से पूर्व यह कार्य आरंभ किया था. स्वामी विवेकानंद का एक विधान प्रसिद्ध  है, ‘विस्तार ही जीवन है और संकीर्णता मृत्यु है.’ हम जब संकीर्ण बन गये तब हमारी मृत्यु हुई है और समूचे विश्व को आर्य बनाने की भावना से जब हम खड़े हो गये तब विश्व पादाक्रांत करने की शक्ति हममें आई है. डॉक्टरजी ने यही वैश्विक भावना की एक अतिभव्य कल्पना सब के सामने रखी, केवल कल्पना रखकर वे रुके नहीं. उन्होंने अपना पूरा जीवन इस ध्येय हेतु समर्पित कर दिया. डॉ. हेडगेवार साक्षात ध्येयमूर्ति थे. ‘ध्येय आया देह लेकर’ यह पंक्ति उनका सार्थक वर्णन है.

संघस्वयंसेवकों के मन से अस्पृश्यता का भाव डॉ. हेडगेवार ने निकाल डाला. इसका यह कारण है कि उन्होंने अस्पृश्यों को अस्पृश्यता का स्मरण नहीं दिलाया और उनके लिये कोई अलग शब्दप्रयोग नहीं किया तथा सवर्णों पर कोई आघात नहीं किया. सवर्णों को सवर्णता का स्मरण नहीं दिलाया. डॉक्टरजी ने सवर्ण और अछूतों को उनकी विस्मृत पहचान अवश्य दिलाई और यह पहचान थी उनके हिंदुत्व की!  मैं कौन हूँ? मैं हिंदू हूँ! हिंदू यही मेरी पहचान है! इसलिये संघ में एक गीत अपने आप बन गया . ‘आम्ही हिंदू ही तर आमची स्वाभाविक ललकारी रे!’ (हम हिंदू हैं यह तो हमारी स्वाभाविक गर्जना है!)

महात्मा गांधी संघ के वर्धा शिविर में पधारे थे. तब उन्होंने अधिकारी से पूछा, ‘इस शिविर में कितने अछूत हैं’ तब अधिकारी ने बताया, ‘कोई अछूत नहीं है, हम सब हिंदू हैं!’ उसके उत्तर से गांधीजी का समाधान नहीं हो पाया और उन्होंने स्वयंसेवकों से उनकी जातियों की और नामों की पूछताछ की. तब उनको पता चला कि संघ में तो विभिन्न जातियों के सारे लोग हैं. 1939 में डॉ. अंबेडकर पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में पधारे थे तब उन्होंने स्वयंसेवकों से ऐसा ही सवाल पूछा था. उनको भी यही बात पता चली कि संघ में विभिन्न जातियों के सारे हिंदू एक ही छत के नीचे एकत्रित आते हैं खाते-पीते हैं.

अंत में, एक और बिंदु स्पष्ट करना चाहता हूँ. अस्पृश्यता यह जर्जर रोग है. मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसका इलाज डॉ. हेडगेवार ने ढूँढ निकाला. अस्पृश्य वर्ग के सबलीकरण का मार्ग डॉ. अंबेडकर ने खोजा और महात्मा गांधी ने अछूतों के बारे में सवर्ण समाज के कर्तव्यबोध का मार्ग अपनाया. यह तीनों मार्ग परस्पर पूरक मानकर कार्य करना होगा! अपने ही मार्ग से अस्पृश्यता मिटेगी, इस भ्रम में किसी को नहीं रहना चाहिये. जटिल सामाजिक प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर नहीं हो सकता है. इसलिये कोई अभिनिवेष ना रखते हुए पारस्परिक कार्य का योग्य मूल्यांकन कर के परस्पर पूरक बनकर कार्य करने की आदत डालनी आवश्यक है.

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *