नई दिल्ली. भारत को स्वतन्त्र करवाने हेतु अनेक जेल यात्राएं करने वाले अच्युत पटवर्धन का जन्म 5 फरवरी, 1905 को हुआ था. स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने वर्ष 1932 तक अर्थशास्त्र पढ़ाया. अर्थशास्त्र के अध्यापन के दौरान ध्यान में आया कि अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार योजनाबद्ध रूप से चौपट किया है. इससे वे गांधी जी के विचारों की ओर आकर्षित हुये. उनका मत था कि देश को स्वतन्त्र कराने के लिये कोई भी मार्ग अनुचित नहीं है. अतः वे क्रान्तिकारियों का भी सहयोग करने लगे. गांधी जी द्वारा प्रारम्भ किये गये अनेक आन्दोलनों में वे जेल गये. वर्ष 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के समय जब अधिकांश नेता पकड़े गये, तो पटवर्धन भूमिगत हो गये और स्थान-स्थान पर जाकर आन्दोलन को गति देते रहे. सरकार ने इन पर तीन लाख रुपए का पुरस्कार घोषित किया, पर ये तीन साल तक पुलिस-प्रशासन की पकड़ में नहीं आये.
उन्होंने मुख्यतः महाराष्ट्र में सतारा, नन्दुरवार और महाड़ में ‘लोकशक्ति’ के नाम से आन्दोलन चलाया. एक समय तो यह आन्दोलन इतना प्रबल हो उठा था कि सतारा में समानान्तर सरकार ही गठित हो गयी. इसलिए उस समय उन्हें ‘सतारा के शेर’ और ‘सत्याग्रह के सिंह’ जैसी उपाधियाँ दी गयीं. स्वाधीनता प्राप्ति के बाद अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य बनाया गया, पर कुछ समय बाद ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. अब वे समाजवादी विचारों की ओर आकर्षित हुये और सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने, पर यहां भी उनका मन नहीं लगा और वर्ष 1950 में उन्होंने राजनीति को सदा के लिये अलविदा कह दिया. उन दिनों जयप्रकाश नारायण भी सर्वोदय के माध्यम से देश परिवर्तन का प्रयास कर रहे थे. पटवर्धन की उनसे अच्छी मित्रता हो गयी. उन्होंने जयप्रकाश जी को एक पत्र लिखा, जिससे उनकी मनोभावना प्रकट होती है – ‘‘अब तो सत्ता की राजनीति ही हमारा ध्येय हो गयी है. हमारा सामाजिक चिन्तन सत्तावादी चिन्तन हो गया है. दल के अन्दर और बाहर यही भावना जाग रही है. उसके कारण व्यक्ति पूजा पनप रही है और सारा सामाजिक जीवन कलुषित हो गया है. सत्ता पाने के लिये लोकजीवन में निर्दयता और निष्ठुरता पनप रही है. भाईचारा और दूसरों के प्रति उदारता समाप्त सी हो रही है. इसे बदलने का कोई तात्कालिक उपाय भी नहीं दिखता.’’
चन्द्रशेखर धर्माधिकारी की एक पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा, ‘‘हम यह अनदेखा नहीं कर सकते कि समाज में जो निहित स्वार्थ और अन्ध श्रद्धाएँ हैं, उनके दबाव में सारी प्रगति ठिठक रही है. लाखों भारतीय अमानवीय परिस्थितियों में जीते-मरते हैं.’’ उन पर जे. कृष्णमूर्ति और ऐनी बेसेण्ट के विचारों का व्यापक प्रभाव था. एक बार जब किसी ने उनसे कहा कि उन्होंने देश के लिये जो कष्ट सहे हैं, उनकी चर्चा क्यों नहीं करते, उन्हें लिखते क्यों नहीं ? तो उन्होंने हंस कर कहा कि अनेक लोग ऐसे हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये मुझसे भी अधिक कष्ट सहे हैं.
जीवन के अन्तिम दिनों में वे महाराष्ट्र में बन्धुता और समता के आधार पर आदर्श ग्राम निर्माण के प्रयास में लगे थे. निर्धन, निर्बल और सरल चित्त वनवासियों को उन्होंने अपना आराध्य बनाया. वर्ष 1992 में लखनऊ विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में उन्होंने अपने न्यास का सारा काम नानाजी देशमुख को सौंपने की बात उनसे कही, पर इसे, कार्यरूप में परिणत होने से पूर्व ही काशी में उनका देहावसान हो गया.